आज की समस्या मात्र रोटी-कपड़े के लिए नहीं है। आज की सबसे बड़ी चिंता कहें या समस्या, शिक्षित लोगों में शुभ विचारों के अभाव की है। वास्तव में यदि सूक्ष्म अध्ययन किया जाय तो पता चलेगा कि आजकल लोगों में शुभ आचरण का अभाव है। लोगों में न तो आत्म-निष्ठा और न ही प्रभु-निष्ठा।
पश्चिमात्य जगत के अंधानुकरण के चलते आज भारतीय समाज में मानसिक दबाव, मनोदौर्बल्य, तामसी माहौल, जीवन की विफलताएँ, परिवार संस्था का दुबलापन तो आया ही है साथ ही साथ व्यक्तियों में अकेलापन एक समस्या बन गई है। इन सब समस्याओं से सामना न करने की क्षमता होने की वजह से बहुतांश लोगों में शारीरिक एवं मानसिक दुर्बलता दिखाई देती है। परिणामस्वरूप जवान स्त्री-पुरुषों में नशीले पदार्थों का सेवन बढ़ता जा रहा हैऔर उनका जीवन बर्वादी की कगार पर पहुँच रहा है।
आज के भौतिकवादी मनुष्य ने ‘खाओ, पियो और मौज करो’ को ही जीवन का सर्वस्व मान लिया है। लोगों का अंतःकरण इतना दुर्बल, क्षुद्र और निस्तेज बन गया है कि जहाँ सत्ता, अधिकार, कामिनी अथवा कांचन का तुच्छ प्रलोभन मिलता है वहाँ फिसल कर अपनी लाचारी प्रदर्शित करने लगता है। मानव प्रेम, मानव सेवा तथा परोपकार जैसे शब्द केवल बोलचाल की भाषा तक ही सीमित रह गये हैं।
आज के इस ‘स्वान्तः सुखाय युग’ में सांस्कृ तिक, नैतिक मूल्यों को स्थान ही नहीं है। माता, पिता, गुरू इत्यादि पूज्यों के प्रति न तो आदर की भावना है और न ही प्रभुतत्व में श्रद्धा। जीवन की विषमताओं से भागने वाले हम, प्रत्येक वस्तु का चाँदी का टुकड़ों से मूल्यांकन करने वाले हम, भला शांति एवं समाधान कैसे प्राप्त कर सकते हैं।
वर्तमान समय में भ्रष्टाचार संपूर्ण समाज में बुरी तरह फैल चुका है। हर व्यक्ति स्वीकारता है कि भ्रष्टाचार है। नेता कहते हैं कि चरित्र ह्रास हो रहा है। पर इसे दूर कैसे किया जाए ? यह कोई सरल कार्य नहीं है। प्रयास भी किया जाता है तो कनिष्ठ वर्ग के कर्मचारियों में व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर करने का। जब कि पहले वरिष्ठ स्तर से भ्रष्टाचार दुर करने का हटाने का प्रयास करना चाहिए। कारण यह कि कम वेतन पाने वाले लोगों का भ्रष्टाचार तो सहानुभूति का विषय है, न कि परेशानी का। चरित्र, नैतिकता, तथा ऐसे तमाम गुण ऊपर से होकर नीचे उतरने चाहिए।
इतिहास के पृष्ठों में झांके तो पायेंगे कि मनुष्य जीवन के लिए आदर्श की पहचान करना दार्शनिकों का सबसे प्रिय विषय रहा है। किंतु निकट वर्तमान के समय में इस तरफ से ध्यान हटा है। इसका कारण जहाँ आर्थिक तनावों से उत्पन्न मजबूरी है, वहीं एक अन्य वजह भोग विलास की दौड़ भी है। आधुनिक समय की चकाचौंध ने निश्चित तौर पर आदर्श की सोच को भोगवाद की ओर धकेला है। इस वजह से भ्रष्टाचार पनपा और बढ़ा है।
भ्रष्टाचार रूपी समस्या से ग्रसित होने का नतीजा यह है कि मनुष्य इंसानियत की मूल सोच से निरंतर दूर हटता जाता है। इतना ही नहीं, उसका लालच निरंतर बढ़ता जाता है। भोग-विलास और लालच की सोच होते-जाने के कारण पर्यावरण बिगड़ा, अपराध, हिंसा और युद्ध की समस्यायें प्रगट हुई हैं।
अध्यात्म की नींव न रहने पर संतुलन बिगड़कर स्वार्थ, अत्याचार, अनाचार, भ्रष्टाचार कैसे बढ़ते हैं और श्रेष्ठ कहे जाने वाले भी क ैसे अधः पतित होते है। इसका असंदिग्ध प्रमाण अपने निधर्मी राज्य का अत्यंत दुःखदायक वर्तमान राजनैतिक एवं अन्य सार्वजनिक जीवन। मनुष्य का विकास और भविष्य उनकी अंतः स्थिति पर निर्भर है। जैसा बीज होगा वैसा ही पौधा उगेगा। जैसे विचार होंगे वैसे ही कर्म बनेंगे। जैसे कर्म करेंगे वैसी ही परिस्थितियाँ बन जायेंगी। भली-बुरी परिस्थितियाँ अनायास ही सामने नहीं आ खड़ी होती। उनका अपने कर्तव्य से बड़ा गहरा संबंध होता है।
मनुष्य को यदि कुछ उल्लेखनीय सफलताएं पानी हैं तो उन्हें आराम तलवी छोड़कर तपस्वी जीवन अपनाना चाहिए। तपस्या के प्रभाव से सही दिशा का बोध हो जाता है। तप का अर्थ शरीर को यातनाएँ देना नहीं, श्रेष्ठ जीवन क्रम अपनाना है। ज्ञानी पुरुषों का कहना है कि तपस्या दीपक है, आचरण से धर्म सधता है, ज्ञान पर ब्रह्म का स्वरूप है और सन्यास ही उत्तम तप है। जो व्यक्ति इस तत्व को समझ कर ज्ञान स्वरूप, निराधार और संपूर्ण प्राणियों के भीतर रहने वाली आत्मा को जान लेता है, वह सर्वव्यापक हो जाता है।
प्रत्येक व्यक्ति क्षमता संपन्न है। अकू ट क्षमताओं का भंडार है। सृष्टी ने जब मनुष्य जाति की रचना की, तब सबसे पहले उसने उनकी कठिनाइयों को ध्यान में रखा होगा और फिर उनका सामना करने के लिए विलक्षण क्षमताओं का समावेश किया, पर आज व्यक्ति गुमराह हो गया है। अपनी क्षमताओं, प्रतिभाओं को देख-परख नहीं पाता। स्वयं को उस स्तर का नहीं आंकता, जिस स्तर का वास्तव में वह है। यदि ऐसा हो पाता, तो व्यक्ति आज इतना त्रस्त नहीं होता। उसमें घुटने-टेकने की प्रवृत्ति जाती रहती।
-लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार है।