“वैदिक धर्म एवं संस्कृति के अनन्य भक्त पं0 चमूपति”

0
198

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

वेद संसार की सबसे पुरानी पुस्तक है। वेद ही संसार के अतीत, वर्तमान एवं भविष्य के धर्म विषयक ज्ञान के आदि
स्रोत भी हैं। यह बात अनेक तर्क एवं युक्तियों से सिद्ध की जा सकती है। वेदों का इतर मत-
पंथ के ग्रन्थों से तुलनात्मक अध्ययन भी इस बात की पुष्टि करता है। वेदों का ज्ञान मनुष्यों
से आविर्भूत न होकर सृष्टि के रचयिता एवं पालक परमेश्वर से आविर्भूत है जिसका उद्देश्य
मनुष्य मात्र का कल्याण एवं उसे धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष प्रदान कराना है। वैदिक धर्म एवं
संस्कृति किसी एक जाति, मत व समुदाय की बपौती न होकर मनुष्यमात्र की साझा धर्म एवं
संस्कृति है। वेदां का अध्ययन एवं वैदिक सिद्धान्तों का आचरण मनुष्य के ज्ञान को शून्य से
शिखर पर ले जाता है। अतः सभी मनुष्यों को वेदाध्ययन एवं वैदिक धर्म का आचरण स्वार्थ से
ऊपर उठकर ज्ञान व विवेकपूर्वक करना चाहिये। वेद एवं मत-मतान्तरों का अध्ययन करने पर
यह तथ्य सामने आता है कि यदि 5200 वर्ष पूर्व महाभारत युद्ध न हुआ होता तो संसार में
एकमात्र वैदिक धर्म का ही अस्तित्व रहता है। संसार में महाभारत के बाद जो अविद्यायुक्त
मत प्रचलित हुए हैं, वह भी प्रचलित न होते। महर्षि दयानन्द महाभारत युद्ध के बाद ऐसे पहले ऋषि हुए हैं जिन्होंने विलुप्त
वेदों व उसके सत्यार्थों का पुनरुद्धार करने के साथ वेद विषयक सभी भ्रान्तियों का निवारण किया। ऋषि दयानन्द ने
समझाया है कि वेद मनुष्य के धर्म एवं कर्तव्यों का मूल स्रोत व आधार है। वेदानुकूल मान्यतायें एवं सिद्धान्त ही धर्म एवं
कर्तव्य हो सकते हैं। धर्म संज्ञा केवल वेदों व उनकी सत्य मान्यताओं की होती है। वेदों से इतर मनुष्यों द्वारा स्थापित व
प्रचलित संस्थायें मत व पन्थ तो हो सकती हैं, परन्तु धर्म कदापि नहीं। ऋषि दयानन्द ने वैदिक मान्यताओं का प्रकाश करने
और अविद्या को मिटाने के लिये सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की रचना की थी जो अपने प्रयोजन में सफल रहा है। वैदिक विचारधारा
एवं आर्यसमाज के वेद प्रचार की देन देश के प्रसिद्ध विद्वान पं0 चमूपति जी थे।
महर्षि दयानन्द के आविर्भाव से पूर्व देश अज्ञान, अन्धविश्वास, कुरीतियों, सामाजिक बुराईयों तथा देश व समाज के
प्रति अपने कर्तव्यों से विमुख प्रायः था। ऋषि दयानन्द ने वेद प्रचार का जो धर्मान्दोलन किया उससे देशवासियों ने वह लाभ
नहीं उठाया, जितना उठाना अपेक्षित था। इसी कारण विज्ञान के वर्तमान युग में अविद्यायुक्त पुराने मत-मतान्तर न केवल
प्रचलित हैं अपितु इनकी संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है। ऋषि दयानन्द की उनके विरोधियों द्वारा विषपान कराये जाने से
सन् 1883 में मृत्यु हुई थी। उनके बाद उनके अनेक शिष्यों ने उनके वेदप्रचार आन्दोलन को तीव्र गति से आगे बढ़ाने का प्रयत्न
किया। अविद्यान्धकार को मिटाने का प्रयत्न किया जिससे देश व समाज से अज्ञान दूर हुआ व घटा तथा देश स्वतन्त्रता प्राप्त
कर धीमी गति से उन्नति को प्राप्त हो रहा है। ऋषि दयानन्द की वैदिक विचारधारा को तीव्र गति से आगे बढ़ाने वाले उच्च
कोटि के मनीषियों में पं. चमूपति जी का अग्रणीय स्थान है।
पं0 चमूपति जी का जन्म बहावलपुर के खैरपुर ग्राम में 15 फरवरी, सन् 1893 ई0 को एक प्रतिष्ठित मेहता परिवार में
हुआ था। बहावलपुर स्थान अब पाकिस्तान में है। आपके पिता का नाम वसन्दाराम तथा माता का नाम उत्तमी देवी था। मैट्रिक
तक की शिक्षा आपने अपने जन्म ग्राम खैरपुर में उर्दू एवं अंग्रेजी भाषाओं के माध्यम से प्राप्त की थीं। बहावलपुर के हार्दिक
इजर्टन कालेज से आपने उर्दू, फारसी एवं अंग्रेजी में बी0ए0 किया। बी0ए0 तक आप देवनागरी अक्षरों से अनभिज्ञ थे।

2

आर्यसमाज से प्रभावित होकर आपने संस्कृत में एम0ए0 करने का संकल्प लिया और परीक्षा में सफलता प्राप्त कर एक
मेधावी युवक होने का प्रशंसनीय उदाहरण प्रस्तुत किया।
विद्यार्थी जीवन में आप सिख मत की ओर आकर्षित हुए थे। आपने सिख मत की पुस्तक ‘‘जपु जी” का उर्दू में
काव्यानुवाद किया था जिससे निकटवर्ती क्षेत्रों में आपको प्रसिद्धि और सम्मान प्राप्त हआ था। जन्म से दार्शनिक प्रवृत्ति के
कारण तर्कहीन पौराणिक विचारधारा से आपकी संन्तुष्टि नहीं हुई जिसका परिणाम यह हुआ कि आप नास्तिक बन गए।
इसके पश्चात आपने स्वामी विवेकानन्द के साहित्य का अध्ययन किया और उसके कुछ समय पश्चात महर्षि दयानन्द के
साहित्य का दार्शनिक तर्क दृष्टि से अध्ययन किया। इस साहित्यिक ऊहापोह से आप पुनः आस्तिक बन गए। अब आप
प्राणपण से आर्यसमाज के कार्यों में रुचि लेने लगे। सन् 1919 में आपने स्वामी दयानन्द के उर्दू जीवन चरित्र ‘‘दयानन्द
आनन्द सागर” का प्रणयन किया जो कि कविता में है। इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद कर पं0 चमूपति जी के भक्त पं0 राजेन्द्र
जिज्ञासु जी ने इसका प्रकाशन भी किया है। इस ग्रन्थ में आपने स्वामी दयानन्द के लिए ‘‘सरवरे मखलूकात” अर्थात् ‘मानव
शिरोमणि’ विशेषण का प्रयोग किया है। इस ग्रन्थ व इस विशेषण के कारण आपको मुस्लिम रियासत को छोड़ना पड़ा था। यह
असहिष्णुता का एक वास्तविक उदाहरण था।
आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब द्वारा संचालित दयानन्द सेवा संस्थान के भी आप सदस्य बने थे। संस्थान के
समाजोत्थान के उद्देश्य को पूरा करते हुए आपने आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब द्वारा प्रकाशित अंग्रेजी पत्र ‘‘वैदिक मैगजीन”
एवं हिन्दी पत्र ‘‘आर्य” के सम्पादन का कार्य भी किया। आपकी विद्वता एवं वेदों में निष्ठा के प्रभाव से इन पत्रों ने अपूर्व
सफलतायें प्राप्त कीं और यह देशभर में लोकप्रिय हुए। सन् 1926 से आरम्भ कर आठ वर्षों तक आपने गुरुकुल कांगड़ी,
हरिद्वार में उपाध्याय, अधिष्ठाता एवं आचार्य के पदों को सुशोभित किया। आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब की ओर से सन् 1925
में आप वैदिक धर्म एवं संस्कृति के प्रचारार्थ अफ्रीका यात्रा पर गये। इस अफ्रीका यात्रा में आपको भारतीय पौराणिक विद्वान
पं0 माधवाचार्य ने शास्त्रार्थ के लिए आमंत्रित किया। पं0 माधवाचार्य का उद्देश्य पं0 चमूपति जी को अपमानित करना और
अपने शिष्यों पर प्रभाव जमाना था। अनेक लोगों की उपस्थिति में शास्त्रार्थ आरम्भ हुआ। पं0 माधवाचार्य के एक प्रश्न के उत्तर
में पं0 चमूपति जी ने शालीनतापूर्वक कहा कि पं0 माधवाचार्य की पत्नी को पुत्री मानने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं, अपितु
प्रसन्नता है। निराले अन्दाज में चमूपति जी द्वारा कहे गए इन शब्दों का लोगों पर अच्छा प्रभाव पड़ा। शास्त्रार्थ पं0 चमूपति
के इन्हीं शब्दों पर समाप्त हो गया। इस शास्त्रार्थ से पं0 माधवाचार्य की पं0 चमूपति को अपमानित करने की योजना विफल हो
गयी। उर्दू कवि एवं पाकिस्तान के विचार के जन्मदाता डॉ0 इकबाल एक बार पंडित चमूपति से मिलने गये। पं0 जी से बातचीत
का डॉ0 इकबाल पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने पं0 चमूपति जी से आदर पूर्वक कहा कि आपके व्यवहार ने उन्हें अपने गुरु की
स्मृति को ताजा कर दिया है।
अपने जीवन काल में एक बार पं0 चमूपति जी किसी तपोवन आश्रम में गये थे। एक दिन जब वह उस तपोवन के
निकट एक सरोवर के पास से गुजर रहे थे तो उन्होंने सरोवर में एक हिन्दू को मछलियां पकड़ते देखा। उनके मुख से निकला
‘‘देखो! यह इस्लामी हिन्दू धर्म है”। एकबार एक व्याख्यान में पंडित ने मुसलमानों की हज की रीति नीति एवं व्यवहार का
उल्लेख कर भावपूर्ण शब्दों में कहा था ‘‘हज करते समय कोई मोमिन जूं तक नहीं मार सकता, सिला हुआ वस्त्र भी नहीं पहन
सकता। यह है वैदिक इस्लाम”। इस्लाम के इस अहिंसक रूप के पं0 चमूपति जी प्रशंसक थे।
पं0 चमूपति जी संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, फारसी व अरबी के उच्चकोटि के विद्वान, लेखक, कवि एवं वक्ता थे।
हिन्दी, उर्दू व अंग्रेजी में आपने अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया। सोम-सरोवर, जीवन-ज्योति, योगेश्वर कृष्ण, वृक्षों में आत्मा,
हमारे स्वामी आदि हिन्दी, दयानन्द-आनन्द-सागर, मरसिया-ए-गोखले, जवाहिरे-जावेद, चौदहवी-का-चांद, मजहब-का-
मकसद आदि उर्दू तथा महात्मा गांधी और आर्यसमाज, यजुर्वेद का अनुवाद, गिलिम्प्सेज आफ दयानन्द आदि आपकी अंग्रेजी
की कुछ प्रसिद्ध कृतियां हैं।

3

ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज को कई स्वर्णिम नियम दिये हैं। एक नियम है कि मनुष्य को सत्य के ग्रहण करने और
असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए। सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में उन्होंने लिखा है कि सत्य को मानना एवं
मनवाना तथा असत्य को छोड़ना और छुड़वाना उन्हें अभीष्ट है। सत्य के ग्रहण को ही वह मनुष्य जीवन का लक्ष्य स्वीकार
करते थे। पं0 चमूपति ने ऋषि दयानन्द जी के विचारों को सर्वात्मा अपनाया और उनका प्रचार किया। 15 जून सन् 1937 को
44 वर्ष की आयु में पंडित चमूपति जी ने अपने नश्वर शरीर का त्याग किया। पं0 जी ने वेदप्रचार का जो कार्य किया और उच्च
कोटि के ग्रन्थों की रचना की है, उसके कारण उनका नाम व यश सदा अमर रहेंगे।
पं0 जी की सत्यनिष्ठा का एक उदाहरण प्रस्तुत कर हम इस लेख को विराम देंगे। एक बार पं0 चमूपति जी अपनी
पत्नी एवं पुत्र के साथ रेल से यात्रा कर रहे थे। टिकट परीक्षक आया और उसने पंडित जी से टिकट मांगे। पण्डित जी ने दो
टिकट लिये थे। परीक्षक ने बच्चे की आयु पूछी तो पंडित जी ने उसकी जन्म तिथि के आधार पर गणना कर कहा कि आज
इसने पांच वर्ष पूरे किये हैं और इसका छठा वर्ष आरम्भ हुआ है। टिकट परीक्षक ने कहा कि नियमानुसार आपको इस बच्चे का
आधा टिकट लेना चाहिये था। पण्डित जी ने अपनी इस भूल के लिये खेद प्रकट किया और टिकट परीक्षक को टिकट की
धनराशि और जुर्माना लेने को कहा। टिकट परीक्षक ने कहा कोई बात नहीं, आज छठे वर्ष का पहला दिन है। पंडित जी नहीं माने
और उन्होंने अपनी गलती का भुगतान टिकट एवं दण्ड राशि का भुगतान करके किया। इसका टिकट परीक्षक पर यह प्रभाव
हुआ कि वह आर्यसमाज और पण्डित जी का भक्त बन गया। इस घटना से आर्यसमाज के अनुयायियों को भी शिक्षा लेनी
चाहिये और आत्मालोचन कर सत्य मार्ग पर चलने की प्रतिज्ञा लेनी चाहिये। हम ईश्वरभक्त, वेदभक्त और ऋषिभक्त पं0
चमूपति जी को उनके गौरवमय जीवन एवं कार्यों को स्मरण कर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोनः09412985121

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here