सार्वजनिक स्थान क्यों?

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mayastatueपेशाबघर सभी स्थानों पर। शौचालय सार्वजनिक स्थान पर। प्याऊ सार्वजनिक स्थान पर। बारात की आवभगत सार्वजनिक स्थान पर। घर की टैरेस से लेकर दुकान की देहरी तक सार्वजनिक स्थान पर। भोज सार्वजनिक स्थान पर। मेला सार्वजनिक स्थान पर। धरना-प्रदर्शन सार्वजनिक स्थान पर। गाली-गलौज सार्वजनिक स्थान पर। मोबाइल, पर्स जैसी छोटी-मोटी चोरी सार्वजनिक स्थान पर। तो भैया मूर्ति सार्वजनिक स्थान पर क्यों नहीं?

हमारे समाज की अजीब विडंबना है कि हम प्यार, मनुहार (राखी सावंत जैसों को छोड़कर), ईर्ष्‍या, गुप्त मंत्रणा, चुगलखोरी जैसी बढिया चीजें बंद कमरे में भी इस तरह करते हैं कि कमरे की दीवारों तक को पता नहीं चले। लेकिन जितनी भी रिलीज करनेवाली चीजें हैं, उसके लिए हम सार्वजनिक स्थानों पर करते हैं। जैसे पेशाब, टट्टी, प्यास (प्याऊ पानी रिलीज करता है), भोज (रूतबा रिलीज किया जाता है), मेला (परंपरा और सामाजिक एहसास रिलीज किए जाते हैं), धरना-प्रदर्शन (विरोध, इच्छा, कुंठा आदि रिलीज किए जाते हैं), गाली-गलौज (गुस्सा और अपनी कमजोरी रिलीज किए जाते हैं) और चोरी (ये सोचना पड़ेगा!) सब सार्वजनिक स्थानों के लिए हैं। क्यों, ये तो आप समझ गए होंगे।

लेकिन मूर्ति इस श्रेणी में क्यों? क्योंकि यह भी चोरी की तरह समवर्ती सूची में आती है। यानी, यह पर्सनल और पब्लिक दोनों है। हम अपने पूर्वजों को याद करते हैं तो उन्हें पहले बरामदे (आजकल ड्राइंग रूम), फिर शयन कक्ष, और अंत पूजा घर में स्थान देते हैं। यह विशुद्ध आस्था की बात है। लेकिन जब हमारा बैंक बैलेंस बढ़ता है और व्यक्तिगत रूतबा, सामाजिक रूतबे की सीमा लांघने लगता है तब व्यक्ति अपनी आस्था को सड़क पर लाता है। इसलिए आपने देखा होगा कि पहले के धन्ना सेठों ने जब भी जमीन आदि कम दाम में बेचे या किसी संस्था के लिए दान (?) किए तो वहां अपना या अपने किसी पूर्वज के नाम की तख्ती लगा देता है। आधुनिक भारत में इसका सबसे बड़ा उदाहरण टाटा, रिलायंस और मौजूदा केंद्र सरकार है। 1907 में जब जमशेदजी टाटा ने साक्ची नामक जगह में अपनी फैक्ट्री लगाई तब वहां कोई टाटा, बाय-बाय नहीं था, लेकिन फिर एक समय वह भी आया कि लोग उस जमशेदपुर जिले को (साक्ची नामक जगह वहीं है) टाटा नगर के नाम से जानते हैं और किसी को इससे परेशानी नहीं है। देश की हर महत्वपूर्ण योजना नेहरू जी से शुरू होकर गांधी (बापू नहीं) पर आकर खत्म हो जाती है। और आपको वह विज्ञापन तो याद होगा न कि जिसमें बैटिंग करते सहवाग के पास फोन आता है, ‘कर लो दुनिया मुट्ठी में’। उधर वे छक्का लगाते थे, और इधर नीचे लिखा होता था-रिलायंस धीरूभाई अंबानी। आज परिवार बंटा है, नाम वही है।

और, यह सब तो सार्वजनिक स्थान पर ही हो रहा है न। आप कहेंगे, टाटा और रिलायंस के मामले में तो यह बात नितांत पर्सनल है। मगर बारीकी में जाएं तो राजीव गांधी पुल और रोजगार योजना आदि भी पर्सनल ही है। क्योंकि सत्ता अपने सार्वजनिक स्वभाव में भी नितांत वैयक्तिक ही होती है। सो अगर मूर्तियां लग रही हैं सार्वजनिक स्थानों पर तो इतने हो-हल्ला की जरूरत नहीं थी। बल्कि माया के मामले में तो कैबिनेट ने इसकी अनुमति दी है, अगर हम संसदीय परंपरा में जीने के आदी हो पाए हैं अभी तक (जो कि नहीं हो पाया है) तो हमें मानना चाहिए कि समाज के खास हिस्से का प्रतिनिधि अपनी वैयक्तिक सोच से अपने समाज को ओत-प्रोत कर देना चाहता है ताकि टाटा, अंबानी की तरह उसकी राह भी निष्कंटक हो सके। हम जाएंगे तो हम भी यही करेंगे। सार्वजनिक स्थान या कहें कि गैर-मंजरूआ जमीन समाज में जहां-तहां छोड़ी ही इसलिए जाती है कि वहां व्यक्ति सोच की नुमाइश की जा सके। इतने सारे एक्जीबिशन क्या घर में लगते हैं? आखिर फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी ने अपने विमान पर अपनी पत्नी का नाम लिखवा दिया न। माइकल जैक्सन आखिर चांद पर पहुंच ही गए न। तो माया मेम साब ने अगर गैर-मंजरूआ जमीन पर अगर कुछ मंजरूआ (भविष्य में मंजर देनेवाला) काम कर लिया तो फल आने का इंतजार करें। पौधा न काटें, वरना समाज में एकरसता आने का खतरा है।

-अनिका अरोड़ा

2 COMMENTS

  1. ye to manuvadiyon ki kheej hai ki jo rutwa samman hamare purwajon ko milta tha aaj usase jyada rutwa hamare (manuvadiyon) ke pichhlagguyon arthat shudron, achhuto ko mil raha hai, isliye yah bat manuvadiyon ko hajam nahin hoti hai, yadi vikash ki bat kahi jaay to 50-55 varshon se manuvadiyon ne raaj kiya hai, tab vikash yad nahin yaaa aaj hath se bagdor gayee aur chhotelogon ko samman milane lagaa to vikash aur paisa barbad hone lagaa hai, 50-55 varson se aur aaj bhi sarvajanik (van ki jameen, rajasv ki jameen) men mandir isee raashi se banaaye ja rahen hai to paisa barbad nahin hai, aisa kyon

  2. अगर् यॆ पैसा विकस् मै काम् आता तॊ प्रदॆश् बहुत् आगॆ हॊता…

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