महर्षि दयानन्द द्वारा लिखित व प्रकाशित ग्रन्थों पर एक दृष्टि

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1847

मनमोहन कुमार आर्य

दयानन्द (1825-1883) ने सन् 1863 में अपने गुरू दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती की मथुरा स्थित कुटिया से आगरा आकर वैदिक धर्म का प्रचार आरम्भ किया था। धर्म प्रचार मुख्यतः मौखिक प्रवचनों, उपदेशों व व्याख्यानों द्वारा ही होता है। इसके अतिरिक्त अन्य धर्मावलम्बियों के साथ अपने व उनकी मान्यताओं व सिद्धान्तों की चर्चा करने तथा कुछ विवादास्पद विषयों पर तर्क, युक्तियों व मान्य प्रमाणों द्वारा शास्त्रार्थ भी किया जाता है। महर्षि दयानन्द ने अन्य सभी प्रमुख मतों के आचार्यों वा धर्माचार्यों से अनेक शास्त्रार्थ भी किये। प्राचीन काल में किसी लिखित शास्त्रार्थ का उल्लेख नहीं मिलता। महर्षि दयानन्द ने लिखित शास्त्रार्थ की परम्परा डाली जिसका उद्देश्य यह था कि शास्त्रार्थ सम्पन्न होने के बाद किसी मत के आचार्य वा उनके अनुयायी शास्त्रार्थ में कही गई बातों से अपने आपको पृथक न कर सकें। महर्षि दयानन्द का प्रसिद्धतम शास्त्रार्थ काशी में मंगलवार 16 नवम्बर, सन् 1869 में हुआ था। इस शास्त्रार्थ में महर्षि दयानन्द मूर्तिपूजा पर वेदानुसार अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए अकेले विद्वान थे जबकि विपक्षियों की ओर से लगभग 30 वा उससे अधिक शीर्ष पौराणिक विद्वान सम्मिलित हुए थे। शास्त्रार्थ के समय तो इस शास्त्रार्थ का विवरण लिखा नहीं गया था परन्तु इसके बाद स्वयं स्वामी दयानन्द जी ने इस विवरण को लिखकर प्रकाशित किया। इस शास्त्रार्थ के बाद उनके अनेक मतों के विद्वानों से अनेक विषयों पर शास्त्रार्थ हुए जिनका लिखित विवरण उपलब्ध है जो धार्मिक जगत में सत्य के निर्णयार्थ महत्वपूर्ण दस्तावेज है।

 

धर्म प्रचार में किसी मत व धार्मिक आन्दोलन के प्रवर्तक को अपनी मान्यताओं व सिद्धान्तों के प्रचारार्थ एक या अधिक ग्रन्थों को लिखकर प्रकाशित करना भी आवश्यक होता है। महर्षि दयानन्द ने भी अपने वैदिक सिद्धान्तों के प्रचारार्थ एक नहीं अपितु छोटे-बड़े 27 व उससे अधिक ग्रन्थों की रचना की। उन्होंने वेदांगप्रकाश के अन्तर्गत भी 14 ग्रन्थों की रचना की वा कराई है। यह ग्रन्थ हैं वर्णोच्चरणशिक्षा, सन्धिविषय, नामिक, कारकीय, सामासिक, स्त्रैणतद्धित, अव्ययार्थ, आख्यातिक, सौवर, पारिभाषिक, धातुपाठ, गणपाठ, उपादिकोष और निघण्टु। वेदांगप्रकाश ग्रन्थों की रचना के प्रयोजन पर ‘ऋषि दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थों का इतिहास’ नामी महनीय पुस्तक के लेखक महामहोपाध्याय पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने लिख है कि ‘हम संस्कृतवाक्यप्रबोध (महर्षि दयानन्द का एक लघु ग्रन्थ) के प्रकरण में लिख चुके हैं कि महर्षि ने अपने कार्यकाल में संस्कृत भाषा के प्रचार और उन्नति के लिए महान् प्रयत्न किया था। उन्हीं की प्रेरणा से प्रभावित होकर अनेक व्यक्ति संस्कृत सीखने के लिए लालायित हो उठे थे। उन्होंने स्वामी जी से संस्कृत सीखने के लिये उपयोगी ग्रन्थों की रचना की प्रार्थना की। उसी के फलस्वरूप ऋषि ने संस्कृतवाक्यप्रबोध रचा और वेदंगप्रकाश के विविध भागें में (चैदह) ग्रन्थों की रचना कराई।’ स्वामी दयानन्द ने अपने जीवन में अनेक शास्त्रार्थ किये। इन शास्त्रार्थों में से 7 शास्त्रार्थों का लिखित विवरण भी उपलब्ध होता है जो आर्यसमाज के साहित्य के प्रकाशन जुड़ी संस्थाओं द्वारा समय-समय पर प्रकाशित होते आ रहे हैं। इन शास्त्रार्थों में प्रश्नोत्तर हलधर, काशी शास्त्रार्थ, हुगली शास्त्रार्थ और प्रतिमापूजन-विचार, सत्यधर्म विचार मेला चांदापुर, जालन्धर शास्त्रार्थ, सत्यासत्यविवेक-शास्त्रार्थ बेरली और उदयपुर शास्त्रार्थ सहित शास्त्रार्थ अजमेर और मसूदा सम्मिलत हैं। पं. मीमांसक जी ने महर्षि ‘दयानन्द के शास्त्रार्थ एवं प्रवचन’ नाम से भी एक पृथक ग्रन्थ का प्रणयन किया है जिसमें उनके सभी उपलब्ध शास्त्रार्थों व प्रवचनों का समावेश किया है। इस श्रृंखला में स्वामी दयानन्द जी का समस्त उपलब्ध पत्रव्यवहार भी चार भागों में प्रकाशित है जिसमें पं. लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. भगवद्दत्त, पं. युधिष्ठिर मीमांसक, महाशय मामराज और पं. चमूपति जी आदि का महत्वपूर्ण योगदान है। इस पत्रव्यवहार से भी महर्षि दयानन्द के जीवन, कृतित्व व उनकी वेदोक्त विचारधारा पर प्रकाश पड़ता है और अनेक बातों का रहस्योद्घाटन व स्पष्टीकरण भी होता है। महर्षि दयानन्द जी के कुछ ऐसे अमुद्रित ग्रन्थ भी हैं जो महर्षि दयानन्द की प्रेरणा से बने। इन ग्रन्थों में कुरान का हिन्दी अनुवाद, शतपथ क्लिष्ट प्रतीक सूची, निरुक्त शतपथ की मूल सूची, वार्तिकपाठ-संग्रह, महाभाष्य का संक्षेप, ऋग्वेद के 61 सूक्तों का अनेकार्थ सम्मिलित हैं।

 

वेदांगप्रकाश के 14 ग्रन्थों से इतर महर्षि दयानन्द के वृहत एवं लघु ग्रन्थों की संख्या 27 है। स्वामीजी ने सन् 1863 से 1873 तक के 10 वर्षों में चार लघु ग्रन्थ सन्ध्या, भागवत-खण्डन, अद्वैतमत और गर्दभतापिनी उपनिषद् लिखे व प्रकाशित कराये। यह ग्रन्थ विलुप्त हैं परन्तु सन् 1962 में इन चार में से एक भागवत-खण्डन ग्रन्थ पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी को उपलब्ध हो गया था जिसको उन्होंने प्रकाशित करा दिया और अब यह उपलब्ध है। स्वामी दयानन्द जी की सबसे प्रमुख कृति ‘सत्यार्थप्रकाश’ है। इसमें ग्रन्थकार ने अपनी वेद विषयक सभी मान्यताओं को प्रथम दस समुल्लास में सविस्तार, युक्ति, तर्क, वेद व शास्त्रीय प्रमाणों, प्रश्नोत्तर शैली में शंका समाधान व आख्यानों सहित प्रस्तुत किया है। इस ग्रन्थ में सृष्टि, वेद व धर्म संबंधी अनेक तथ्यों का प्रथम बार उद्घाटन हुआ है। इस ग्रन्थ के अन्त के चार समुल्लासों में आर्यावर्तीय मतों सहित बौद्ध, जैन, बाइबिल व कुरान आधारित मतों की समीक्षा की गई है। यह ग्रन्थ एक प्रकार से विश्व धर्म कोष है जिसे पढ़कर संसार के सभी मतों वा धर्मों का गम्भीर व साधारण ज्ञान सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के पाठक को होता है। हमारा अनुमान है कि विश्व में इस ग्रन्थ के समान धर्म व मत-मतान्तर विषयक दूसरा प्रामाणिक व सत्य मान्यताओं का अन्य कोई ग्रन्थ नहीं है। इस ग्रन्थ का प्रथम संस्करण सन् 1875 में तथा द्वितीय संशोधित व परिवर्धित संस्करण सन् 1884 में प्रकाशित हुआ था। इस समय सन् 1884 वाला संस्करण ही सर्वत्र प्रचारित व प्रसारित है। इस ग्रन्थ के अनेक भारतीय भाषाओं सहित अंग्रेजी व अनेक विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी प्रकाशित हुए हैं।

 

सन् 1875-76 में ही स्वामी दयानन्द जी ने पंचमहायज्ञ विधि, वेद-भाष्य का नमूना (प्रथम), वेदविरुद्धमत-खण्डन, वेदान्तिध्वान्त-निवारण लघु ग्रन्थों की रचना व प्रकाशन किया। इसके बाद स्वामीजी ने दो प्रमुख ग्रन्थों आर्याभिविनय व संस्कारविधि की रचना कर इन्हें संवत् 1932 विक्रमी में प्रकाशित किया। स्वामी दयानन्द जी के जीवन का प्रमुख कार्य वेदों का प्रचार और वेदभाष्य की रचना है। आपने संवत् 1932 अर्थात् सन् 1876 में वेदभाष्य का प्रथम नमूना, इसके बाद चतुर्वेद-विषय-सूची, पश्चात दूसरा वेदभाष्य का नमूना, ऋग्वेदभाष्यभूमिका, ऋग्वेद-भाष्य तथा यजुर्वेद-भाष्य की रचना की। ऋग्वेदभाष्य का कार्य सन् 1883 में उनकी मृत्यु पर्यन्त चलता रहा। ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका, यजुर्वेद का कार्य पूरा हो चुका था तथा ऋग्वेद के सातवें मण्डल का कार्य चल रहा था। अभी उन्होंने सातवें मण्डल के 61 वे सूक्त का भाष्य पूर्ण किया था। वह बासठवें सूक्त के दूसरे मन्त्र का भाष्य कर चुके थे कि उन्हें जोधपुर में विष दिये जाने व उसके कारण कुछ समय रूग्ण रहकर दिवंगत हो जाने के कारण ऋग्वेद और उसके बाद सामवेद तथा अथर्ववेद के भाष्य का कार्य अवरुद्ध हो गया। महर्षि दयानन्द ने जितना भाष्य किया वह संस्कृत भाष्य व भाषानुवाद के संस्करणों सहित अनेक प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित होकर उप्लब्ध हैं। महर्षि दयानन्द वेदों के जितने भाग का भाष्य नहीं कर सके उन पर भी अनेक आर्यविद्वानों के भाष्य वा टीकायें उपलब्ध हैं।

सन् 1977-78 में महर्षि दयानन्द ने आर्येाद्देश्यरत्नमाला, भ्रान्तिनिवारण तथा अष्टाध्यायीभाष्य की रचना की। इसके बाद के वर्षों में उन्होंने आत्मचरित्र, संस्कृतवाक्यप्रबोध, व्यवहारभानु, गौतम अहल्या की कथा, भ्रमोच्छेदन, अनुभ्रमोच्छेदन तथा गोकरुणानिधि की रचना कर इनका प्रकाशन किया। गौतम अहल्या की कथा का वर्णन उनके पत्रों व ग्रन्थों में प्रकाशित विज्ञापनों से मिलता है परन्तु सम्प्रति यह पुस्तक उपलब्ध नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि अन्य विलुप्त पुस्तकों की तरह यह भी विलुप्त हो गई।

महर्षि दयानन्द ने वेदोक्त धर्म विषयक उपर्युक्त जो साहित्य लिखा है वह संसार के सभी मताचार्यों में सर्वाधिक है। ईश्वर, जीवात्मा व सृष्टि विषयक शायद् ही कोई ऐसा विषय या प्रश्न हो, जिसकों उन्होंने स्वयं प्रस्तुत कर उसका समाधान न किया हो। स्वामीजी संसार में केवल एक वेदोक्त धर्म को ही ईश्वर प्रदत्त, पूर्ण सत्य व संसार के लिए सभी मनुष्यों के लिए कल्याणकारी व आचरणीय मानते थे। उन्हें उपासना की भी एक ही पद्धति ‘वैदिक योग पद्धति’ मान्य थी। अन्य किसी पद्धति से उपासना करने पर वह फल प्राप्त नहीं हो सकता जो कि योग की ध्यान व समाधि विधि के द्वारा उपासना करने से होता है। महर्षि दयानन्द ने जो विपुल धर्म विषयक साहित्य लिखा है वह आज भी प्रासंगिक व उपयोगी है और हमेशा रहेगा। न केवल भारत के सभी लोग अपितु विश्व के सभी लोग श्रद्धाभाव से उसका अनुशीलन कर उसे आचरण में लाकर अपने जीवन को उपासना के मार्ग पर अग्रसर कर इससे मनुष्य जीवन के लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं। जीवन की लक्ष्य प्राप्ति का एक ही मार्ग है और वह है महर्षि दयानन्द प्रदर्शित वेदोक्त मार्ग। इस लेख में हमने महर्षि दयानन्द जी के ग्रन्थों का परिचय कराने का प्रयास किया है। आशा है कि पाठक इससे लाभान्वित होंगे।

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