पंजाब के निकाय चुनावों का हिंसक होना? 

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ललित गर्ग

पंजाब के नगर निकाय चुनावों में कांग्रेस को विधानसभा चुनावों की ही तरह ऐतिहासिक जीत हासिल हुई है। पूरे देश में भाजपा का परचम फहरा रहा है, हाल ही में गुजरात एवं हिमाचल प्रदेश में भाजपा ने जीत हासिल करके कांग्रेसमुक्त भारत की दिशा में एक और कदम बढ़ाया है लेकिन पंजाब के निकाय चुनावों ने कांग्रेस की टूटती सांसों में नये प्राण का संचार किया है। लेकिन इन चुनावों ने लोकतंत्र को एक बार फिर लहूलुहान किया है, जो बेहद शर्मनाक एवं चिन्ता का विषय है। पंजाब मंे मतपेटी पर खून के धब्बे लगे, जो लोकतंत्र के नाम पर कालिख है। इतनी बड़ी चुनावी हिंसा एवं ज़ोर-ज़बरदस्ती मतदान केन्द्रों पर कब्जों ने लोकतंत्र का गला घोंट कर रख दिया। मूल्यों पर आधारित राजनीति करने का आश्वासन देने वालों से हमारा समकालीन इतिहास भविष्य की देहरी पर खड़ा कुछ सवालों का जवाब मांग रहा है।
हिंसा ही नहीं, लोकतंत्र की विसंगति यह भी है कि जनता बेहतर की उम्मीद में पार्टी प्रत्याशियों को बदल-बदलकर परखती रहती है। बहरहाल, हार-जीत तो लगी रहती है, मगर इस तस्वीर का चिंताजनक पहलू यह है कि चुनाव के दौरान हिंसक संघर्ष की खबरें आई हैं। यह आकंड़ा विधानसभा चुनाव के दौरान हुई घटनाओं से अधिक है। खासकर मुख्यमंत्री अमरेंद्र सिंह के गृह जनपद पटियाला में हिंसा की घटनाएं ज्यादा चिंता बढ़ाने वाली हैं।
आज राजतंत्र नहीं लोकतंत्र है। जैसे राजतंत्र में लोकतंत्र नहीं चलता वैसे ही लोकतंत्र में राजतंत्र नहीं चलता। लोकतंत्र में जनमत ही सर्वाेच्च है। मत का अधिकार गिना गया है। वह भी सबको बराबर। मताधिकार के उपयोग में हिंसा का घुसना शुभ लक्षण नहीं है। इन चुनावों के चिन्तन का महत्वपूर्ण पक्ष है- हम लोकतंत्र में हिंसा एवं पतन के गलत प्रवाह को रोके। लोकतंत्र के इस पवित्र अनुष्ठान में हिंसा एवं आपराधिक तत्वों का बढ़-चढ़ कर हिस्सेदारी करना देश की लोकतांत्रिक मर्यादाओं एवं संस्कृति की साख पर प्रश्नचिन्ह खडे़ कर रही है।
यहां प्रश्न कौन जीता या कौन हारा का नहीं है, प्रश्न लोकतांत्रिक मूल्यों का है। भले ही पंजाब में निकाय चुनावों में कांग्रेस ने अपना परचम लहरा दिया है। भले ही भारतीय जनता पार्टी, शिरोमणि अकाली दल बादल और आम आदमी पार्टी को करारी हार मिली है। भले स्थानीय निकाय चुनाव में मुद्दे पानी, बिजली, सड़कें, स्वच्छता, स्थानीय स्तर पर स्वास्थ्य सेवाएं और अन्य जनसुविधाएं के रहे हो, लेकिन बड़ा प्रश्न तो यह है कि चुनाव में हिंसा एवं आपराधिक तत्वों की धुसपैठ को कैसे रोका जाये?
लोेकतंत्र में सबसे महत्वपूर्ण पहलू चुनाव है। यह राष्ट्रीय चरित्र का प्रतिबिम्ब है। लोकतंत्र में स्वस्थ मूल्यों का बनाए रखने के लिये चुनाव की स्वस्थता अनिवार्य है। चुनाव में नीति की बात पीछे छूट जाती है तो वहां महासमर मच जाता है, हिंसा का खुला ताण्डव होता है, वहां सम्प्रदायवाद सिर उठाता है, जातिवाद के आधार पर वोटों का विभाजन होता है, धनबल हावी होता है। ये सब स्थितियां लोकतंत्र को मूच्र्छित करती है। लोकतंत्र के प्रसाद को सुदृढ़ आधार प्रदान करने के लिये जहां स्वतंत्रता, पारदर्शिता, नैतिकता जरूरी है वहीं अहिंसा भी मूल आधार है। इसके बिना लोकतंत्र का अस्तित्व टिक नहीं सकता।
राजनीति का अपराधीकरण हो रहा है या अपराध का राजनीतिकरण? आतंकवाद, उग्रवाद के बाद अब यह कौन-सा वाद है? जिस प्रकार उग्रवादियों को एक भाषण, एक सर्वदलीय रैली या जुलूस से मुख्यधारा में नहीं जोड़ा जा सकता, ठीक उसी प्रकार चुनावों में हिंसा एवं अपराध का गठजोड़ को भी नहीं तोड़ा जा सकता। इसकी दवा है कि राष्ट्रीय पार्टियां जीतने वाले प्रत्याशी को नहीं अपितु योग्य चरित्रवान प्रत्याशी को टिकट दें। क्योंकि यह बात साफ है कि हिंसा के मूल में बाहुबल का प्रदर्शन ही है, जो लोकतांत्रिक मान्यताओं के अनुरूप तो कतई नहीं है। सरल शब्दों में कहें तो यह सत्ता पक्ष के दबदबे का पर्याय है। मगर इसकी एक वजह यह भी है कि जो लोग एक दशक से स्थानीय निकायों में काबिज थे, वे राज्य सरकार हाथ से निकल जाने के बाद लोकतंत्र की पहले पायदान पर छोटी सरकार के भी हाथ से निकल जाने से बेचैन हो उठे। चुनाव आयोग की सख्ती व शासन-प्रशासन की चुस्ती से भारत में चुनाव हिंसा से निरापद हो रहे हैं। लेकिन पंजाब में निकाय चुनावों में हिंसा की खबरों ने बेचैन कर दिया। तेजी से बढ़ता चुनावी हिंसक दौर पंजाब का दर्द नहीं रहा। इसने हर भारतीय दिल को जख्मी बनाया है। अब इसे रोकने के लिये प्रतीक्षा नहीं, प्रक्रिया आवश्यक है। इसके लिये चुनाव आयोग  और सरकार को सोचना होगा कि भविष्य में इस तरह की प्रवृत्ति को कैसे रोका जाये। किसी भी चुनाव में हिंसा का मतलब यही है कि लोगों को पारदर्शी तरीके से वोट देने से वंचित करने की कोशिशें हुई हैं, जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में कतई स्वीकार्य नहीं है। निकाय चुनावों में जीत के बाद कांग्रेस की भी जवाबदेही बनती है कि लोगों को पारदर्शी व जनभावनाओं के अनुरूप स्थानीय प्रशासन दे।
जालन्धर के 80 वार्डों में से 66 पर कांग्रेस का कब्जा हो गया है। भाजपा के कई दिग्गजों का पत्ता साफ हो गया है। दो-दो बार जीतते आए पार्षद भी हार गए हैं। इससे पता चलता है कि भाजपा और अकाली दल का जनाधार खिसक चुका है। अमृतसर में निकाय मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू की प्रतिष्ठा दाव पर थी। उन्होंने भी इन चुनावों में कड़ी मेहनत की। अमृतसर में तो अकाली दल का व्यापक जनाधार रहा है लेकिन वह भी काम नहीं आया। पटियाला तो कैप्टन अमरेन्द्र सिंह का गृह क्षेत्र है। अब तक पटियाला में कोई पार्टी इस तरह से नहीं जीती जिस तरह से पटियाला में कांग्रेस जीती है। लेकिन इस तरह की जीत का हिंसक होना, बूथ कैप्चरिंग का आरोप लगना या फिर लोकतंत्र की हत्या का आरोप लगना- जीत के मायने बदल देती है। भाजपा भले ही इन चुनावों में धांधलियों को लेकर कोर्ट का दरवाजा खटखटाए लेकिन राजनीतिक दलों को सोचना है कि लोकतंत्र को किस तरह हिंसा-मुक्त किया जा सकता है।

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