ईश्वरीय ज्ञान वेद के पुनरूद्धारक, रक्षक व प्रचारक महर्षि दयानन्द

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भारत का इतिहास संसार में सबसे प्राचीन है। भारत के पास महाभारत नामक इतिहास ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में वर्णित महाभारत युद्ध की काल गणना करने पर यह पांच सहस्र वर्षों से कुछ अधिक पूर्व हुआ सिद्ध होता है। महाभारत से पुराना ग्रन्थ वाल्मिीकि रामायण व इसमें वर्णित इतिहास है जिसकी गणना लाखों व करोड़ों वर्षों में है। कारण यह है कि श्री रामचन्द्र जी त्रेता युग में हुए थे। हमारे देश में सृष्टि का आयुकाल एक हजार चतुर्यगी बताया गया है। एक चतुर्युगी में चार युग सतयुग, द्वापर, त्रेता और कलियुग होते हैं। कलियुग 4 लाख 32 सहस्र वर्षों का होता है। इसका दो गुना अर्थात् 8 लाख 64 सहस्र वर्ष का द्वापर और उससे पूर्व त्रेता युग रहा जिसकी कुछ अवधि कलियुग की अवधि का तीन गुना अर्थात् 12 लाख 96 वर्ष का होता है। इस समय सृष्टि सम्वत् 1,96,08,53,116 वां वर्ष चल रहा है। श्री रामचन्द्र जी इस लम्बी अवधि के आरम्भ से लेकर विगत 8.64 लाख वर्ष से पूर्व कभी हुये थे क्योंकि एक चतुर्युगी अर्थात् 43.20 लाख वर्ष के बाद दूसरी फिर तीसरी, इस प्रकार से चारों युग आते व जाते रहते हैं। इन दोनों ग्रन्थों, रामायण व महाभारत, को पढ़ने से एक बात सिद्ध होती है कि उन दिनों देश में सर्वत्र वैदिक धर्म और वैदिक संस्कृति ही विद्यमान थी। राम व रावण तथा अन्य सभी राजा व प्रजायें वैदिक धर्मी ही थे। इसी प्रकार से महाभारत में भी सभी राजा व प्रजा वैदिक धर्मी थे। वेद और वैदिक धर्म सृष्टि के आरम्भ से चला आ रहा है। सृष्टि के आरम्भ में ही हमारे सच्चे ब्राह्मणों ने वेदों की रक्षा अपने प्राणों के समान की थी। यही कारण है कि महर्षि दयानन्द को अपने जीवन काल (1825-1883) में वेद अपने मूल रूप में सुरक्षित प्राप्त हुए थे। यह सर्वविदित है कि महाभारत काल के बाद वेदों का सत्यस्वरूप सुरक्षित नहीं रहा। इसके नाम पर अज्ञान के कारण अन्धविश्वास व कुप्रथाओं का प्रचलन हुआ। महर्षि दयानन्द महाभारत काल से अब तक के लगभग 5,100 वर्षों से कुछ अधिक काल में पहले व्यक्ति हुए जिन्होंने वेदों के सत्य अर्थों की खोज की और उपलब्ध व्याकरण के ग्रन्थों के आधार पर तथा अपनी योग की उपलब्धियों का उपयोग कर वेदों में निहित सत्य वेदार्थ को प्राप्त करने में पूर्ण सफलता प्राप्त की। अपने इसी ज्ञान के आधार पर उन्होंने हमें सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ सहित अनेक ग्रन्थ मुख्यतः चारों वेदों की भूमिका एवं वेदों का संस्कृत व हिन्दी भाषा का भाष्य दिया। इनके इस वेदों की व्याख्या के कार्य के लिए संसार की उनके समकालीन व उत्तरकालीन पीढि़या चिर ऋणी हैं।

हमने यह लेख महर्षि दयानन्द प्रदत्त दृष्टि के अनुरूप वेद के यथार्थ स्वरूप को जानने के लिए लिखा है। महर्षि दयानन्द ने आर्य समाज की स्थापना 10 अप्रैल, 1875 को मुम्बई में की थी। आर्य समाज के 10 नियम बनाये गये थे जिनमें तीसरे नियम में कहा गया है कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है तथा वेद का पढ़ना पढ़ाना व सुनना सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है। वेद चार मन्त्र संहिताओं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद को कहते हैं। इन्हें महर्षि दयानन्द ने सब सत्य विद्याओं का ग्रन्थ घोषित किया है। महर्षि दयानन्द के समय तक विद्यमान किसी पुस्तक को किसी भी विद्वान अथवा किसी मत के अनुयायी ने सब सत्य विद्याओं का ग्रन्थ घोषित नहीं किया था। उन्होंने वेदों को सब सत्य विद्याओं का पुस्तक होने की घोषणा अपने अपूर्व ज्ञान, विवेक व ऊहा से की थी। महर्षि दयानन्द अपने समय के कोई सामान्य या साधारण विद्वान नहीं थे अपितु वह एक युगपुरूष व संस्कृत विद्या के अपूर्व विद्वान थे। उनका अध्ययन किसी एक पाठशाला या विद्यालय में किन्हीं एक-दो गुरूओं से नहीं हुआ था अपितु देश भर के सभी विद्वानों की संगति कर उन्होंने उनसे अधिकाधिक ज्ञान प्राप्त किया था। वह देश भर में घूम-घूम कर वेदों का प्रचार करते थे तथा वार्तालाप, शास्त्र चर्चा व शास्त्रार्थ भी करते थे। अपने प्रत्येक कथन को वह तर्क, युक्ति, सृष्टिक्रम के अनुकूल, सत्यासत्य की समीक्षा व विश्लेषण कर सिद्ध करते थे। यही पद्धति सत्य के निर्णय करने में आज के युग में अनेक विषयों के विद्वानों व वैज्ञानिकों द्वारा भी अपनाई जाती है। प्राचीन काल से ही वेदों के उपांग के रूप में हमारे पास एक ग्रन्थ न्याय दर्शन है जिसमें किसी विचार या मान्यता को सत्य सिद्ध करने के उपाय बताये गये हैं जो आज भी शत-प्रतिशत प्रासंगिक एवं उपयोगी होने के साथ सारे विश्व का एक मार्गदर्शक है साथ ही अपने विषय का विश्व के साहित्य में अपूर्व ग्रन्थ है। इस न्याय दर्शन का पूरा उपयोग महर्षि दयानन्द अपने विषय के प्रतिपादन व उसे सत्य सिद्ध करने में करते थे। इसी आधार पर उन्होंने चार वेदों को सब सत्य विद्याओं की पुस्तक सिद्ध किया है।

महर्षि दयानन्द ने देश भर में घूमकर विद्वानों, आचार्यों, योगियों, संन्यासियों, पुस्तकालयों के ग्रन्थों का अध्ययन किया और योग साधना कर सिद्धियां व सफलतायें प्राप्त कीं। इनसे उन्हें ज्ञान, विवेक व ऊहा बुद्धि की प्राप्ति हुई। उन्होंने इस प्रश्न पर भी विचार किया कि मनुष्यों को सृष्टि के आरम्भ में ज्ञान की प्राप्ति किस प्रकार से हुई? वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि मनुष्यों का यह सामथ्र्य नहीं है कि वह ज्ञान व भाषा की उत्पत्ति कर सकें। यह दोनों ही वस्तुयें उन्हें सृष्टि के आरम्भ में सृष्टि की रचना करने वाले ईश्वर से प्राप्त होती हैं। उन्होंने इस विषय पर गहन अनुसंधान व चिन्तन किया और इससे उन्हें जो बोध हुआ उसे उन्होंने प्रमाणों से सिद्ध किया। इस निष्कर्ष पर पहुंचने व अनुसंधान करने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि ईश्वर से सृष्टि के आरम्भ में प्राप्त ज्ञान व भाषा ही वेद और उसकी भाषा है। महर्षि के इन निष्कर्षों की पुष्टि अनेक प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध सन्दर्भों व प्रमाणों से भी होती है। शतपथ ब्राह्मण सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों व ऋषियों द्वारा सबसे प्रथम रचित ग्रन्थ हैं जो वेद व्याख्यान कहलाते हैं। प्राचीन ऋषियों ने चारों वेदों के अलग-अलग ब्राह्मण ग्रन्थ रचे गये। इनसे ज्ञात होता है कि ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में प्रथम चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद का ज्ञान वैदिक संस्कृत भाषा व इसके अर्थ सहित दिया था। यह सभी ऋषि व स्त्री-पुरूष युवावस्था में उत्पन्न हुए थे। यह सृष्टि व मनुष्योत्पत्ति अमैथुनी सृष्टि कहलाती है। उनका तर्क यह है कि यदि ईश्वर शिशु के रूप में मनुष्यों को जन्म देता तो उनके पालन-पोषण की समस्या थी। और यदि वह वृद्धावस्था में आदि मनुष्यों को जन्म देता तो फिर सन्तानोत्पत्ति न होने से सृष्टि का क्रम आगे न बढ़ता। अतः आदि मनुष्य सृष्टि स्त्री व पुरूषों की युवावस्था में हुई थी और इनकी संख्या शत व सहस्राधिक थी, इससे कुछ अधिक भी हो सकती है। यह सिद्धान्त पूर्णतया अव्यवहारिक है कि सृष्टि के आरम्भ में सर्व प्रथम केवल एक पुरूष व एक स्त्री उत्पन्न हुए। इसमें दोष यह आता है कि उनकी सभी सन्तानें परस्पर भाई व बहिन होंगी अतः माता-पिता व भाई बहिनों से सृष्टि का क्रम आगे नहीं बढ़ सकता और यदि चलेगा तो वह आरम्भ से ही भ्रष्ट होगा। यह वेदों के विरूद्ध हेने से स्वीकार करने योग्य नहीं है। ईश्वर के होते हुए ऐसा होना कदापि सम्भव नहीं है।

महर्षि दयानन्द ने वेदों का अध्ययन कर यह भी घोषित किया कि वेद सभी सत्य विद्याओं कर पुस्तकें हैं जिसमें अन्य सभी विषयों की शिक्षा के साथ धर्म की शिक्षा भी सम्मिलित है एवं जो सत्य व तर्क की कसौटी पर खरीं हैं। स्वामीजी के अनुसार वेद धर्म का मूल ग्रन्थ है जिसका उल्लेख मनुस्मृति के वचनों वेद अखिलो धर्ममूलम्में मिलता हे। उनके अनुसार सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उनका आदि मूल ईश्वर ही है। सब सत्य विद्याओं व पदार्थों का आदि मूल ईश्वर होने का कारण ईश्वर का सच्चिदानन्द, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वातिसूक्ष्म, अजन्मा, अनादि, नित्य व स्वयंभू आदि से पूर्ण होना है। यह सारा ब्रह्माण्ड ईश्वर द्वारा मूल प्रकृति से पूर्व कल्पों की भांति सृजित किया गया है जिससे ब्रह्माण्ड में विद्यमान अनादि, अनुत्पन्न व नित्य जीवात्मायें पूर्व कल्प में किये गये अपने शुभाशुभ या पुण्य-पाप कर्मों का सुख वा दुःख के रूप में फल प्राप्त कर सकें और वेद विहित कर्मों को करके मोक्ष अर्थात् दीर्घकाल तक दुखों से निवृत रह सकें। उन्होंने यह भी बताया कि दुःखों की निवृति शुभ कर्मों, वेदाध्ययन, मन को नियंत्रित कर योगदर्शन के अनुसार ईश्वरोपासना तथा यज्ञ-अग्निहोत्र आदि करने से होती है। स्वामीजी ने वेदों को ईश्वर का नित्य ज्ञान बताया जो सदा-सर्वदा विद्यमान रहता है और जिसके अवलम्बन में ही मनुष्य जीवन की सफलता का रहस्य छिपा है। वेदों से सम्बन्धित मान्यताओं के आधार उन्होंने अपने सभी ग्रन्थों सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, ऋग्वेद-यजुर्वेद भाष्य, संस्कार विधि, आर्याभिविनय आदि की रचना की। उनके रचे हुए ग्रन्थों की से जीवन से जुड़ी हर व्यक्तिगत समस्याओं के समाधान करने के साथ समाज, देश व विश्व की व्यवस्था को सर्वजनहिताय व सर्वजनसुखाय बनाया जा सकता है। स्वामीजी ने देश भर में घूमकर वेदों का प्रचार किया। वेदाध्ययन के लिए संस्कृत की पाठशालायें खोली और गुरूकुल शिक्षा प्रणाली का जीवन्त स्वरूप प्रस्तुत किया जिसका पालन आर्यसमाज के उनके अनुयायियों ने किया। आज आर्य समाज द्वारा देश भर में लगभग 500 गुरूकुलों का संचालन किया जा रहा है। स्वामीजी संस्कृत भाषा के अध्ययन के पक्षधर थे जिससे वेद एवं वैदिक साहित्य सुरक्षित रहें और इससे मानव जाति को इनका लाभ मिलता रहे। संस्कृत के बाद वह हिन्दी को सर्वाधिक महत्व देते थे और इन दोनों भाषाओं के बाद वह संसार की अन्य सभी भाषाओं को आवश्यकतानुसार सीखने और प्रयोग में लाने के प्रति उदार थे। विज्ञान व तकनीकि का भी वह सम्मान करते थे और देश में विज्ञान व तकनीकी का प्रयोग तथा इनके अध्ययन के लिए उन्होंने प्रयास किये थे। संक्षेप में कह सकते हैं कि वह स्वदेशी की भावना के साथ सभी मनुष्यों के श्रेष्ठ गुण, कर्म व स्वभाव युक्त आचरण के पक्षधर थे जिसका मार्गदर्शक वेद व वैदिक साहित्य की तर्क व युक्ति प्रमाणों से सिद्ध शिक्षायें थी। उनके जीवन व साहित्य से जीवन की सभी समस्याओं का समाधान सम्भव है।

लेख को विराम देने से पूर्व यह जानना उचित होगा कि महर्षि दयानन्द के कार्य क्षेत्र में पदार्पण करने के समय सन् 1863 ई. में वेद विलुप्ति के कागार पर थे। वेद के सत्यार्थ तो विगत पांच हजार वर्षों से ही विलुप्त थे परन्तु वेदों की संहितायें व पोथियां भी आसानी से उपलब्ध नहीं थी क्योंकि भारत में इनका किसी प्रेस या मुद्रणालय से प्रकाशन नहीे हुआ था। हमारे पारौणिक सनातन धर्मी बन्धुओं को वेद की किंचित चिन्ता नहीं थी। वेदों के संरक्षण व प्रचार में उनकी कोई रूचि नहीं थी यद्यपि वह भी वेदों को ईश्वरीय ज्ञान मानते हैं। उन्होंने तो ईश्वरीय ज्ञान वेदों का स्थान मनुष्यकृत ग्रन्थों पुराणों, गीता व रामचरित मानस आदि ग्रन्थों को दे दिया था जिनमें वैदिक सिद्धान्तों के विरूद्ध अनेक बातें थीं। हमें आश्चर्य होता है कि काशी विद्वानों की नगरी थी और वहां भी वेदों का पठन-पाठन समाप्त हो चुका था। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में महर्षि दयानन्द ने वेदों की खोज की और उन्हें प्राप्त कर उनके सत्य अर्थों पर विचार व चिन्तन कर अपने योग व विद्या बल से वेदों के सत्य अर्थों को जानने में सफलता प्राप्त की। उन्होंने वेदों के सत्य अर्थ भी किए और उनके प्रकाशन का कार्य भी किया। आज भारत में वेद सत्य अर्थों से युक्त अपने यथार्थ स्वरूप के साथ उपलब्ध हैं इसका सारा श्रेय महर्षि दयानन्द व उनके आर्यसमाज के अनुयायी विद्वानों को है। पौराणिक बन्धुओं ने वेदों के सरंक्षण में जो उपेक्षा की वह अत्यन्त दुःखद है। इस कार्य के लिए देश व विश्व की सारी जनता को महर्षि दयानन्द की आभारी हैं। लेख की समाप्ति पर संक्षेप में इतना कह सकते हैं कि वेद व वैदिक साहित्य के अध्ययन से जीवन अभ्युदय व निःश्रेयस को प्राप्त होता है। इनकी प्राप्ति का अन्य कोई मार्ग, पथ व जीवन पद्धति नहीं है। इन्हीं शब्दों के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

 

 

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