पुरातन परंपरा पर विवेकपूर्ण बहस हो

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तमिलनाडु में पोंगल के अवसर पर मनाया जल्लीकट्टू सांडों को काबू करने का प्राचीन खेल है। जो सर्वोच्च न्यायालय की ओर से लगाए गए प्रतिबंध का विरोध आंदोलन की शक्ल में तब्दील होता दिख है। राज्य की जनता इसे अपनी अस्मिता और सांस्कृतिक पहचान के साथ जोड़कर देख रही है, लेकिन एनजीओ की याचिका पर शीर्ष अदालत ने इस खेल को पशुओं के प्रति क्रूरता माना हैं ,और मई 2014 में इस पर प्रतिबंध लगा दिया था। इस प्रतिबंध के खिलाफ और जल्लीकट्टू के समर्थन में पूरे प्रदेश में प्रदर्शन हो रहे हैं, और अब जल्लीकट्टू आखिरकार पुनः शुरू करने का सलीका खोज लिया गया हैं। तमाम अंर्तविरोधों के बावजूद चार सौं साल परंपरा पर राजनीतिक हितग्राहियों के कारण अपना खोता अस्तित्व प्राप्त करती दिख रही है, लेकिन इसके साथ सभ्यता और संस्कृति पर संविधान और न्यायपालिका को कमजोर करने की फितरत हावी होती दिख रही है। परंपरा पर कानून की कैंची चलती हुई नहीं प्रतीत हो रही है। संवैधानिक ढ़ाचे में न्यायपालिका संस्कृति और सभ्यता से पहले होती है, लेकिन कुछ राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति की वजह से न्यायपालिका कमजोर पड़ता दिख रहा है। चार सौ साल पुरानी संस्कृति और परंपरा के नाम पर जानवरों के साथ हो रहे, अन्याय को नजरअंदाज किया जा रहा है, जो उचित समझ में भी नहीं आती है, संस्कृति और परंपरा के नाम पर जानवरों के साथ हो रहें, अत्याचारों और कुप्रथाओं को समाज में कब तक स्थान दिया जाता रहेगा। देश और समाज में पर्यावरणीय असंतुलन की स्थिति भी निर्मित होने के लिए सामाजिक परिदृष्य ही जिम्मेदार है, फिर जानवरों के साथ निर्मम बदसलुकी के लिए जिम्मेदार आखिर कौन हो सकता है, सत्ता की भूखी राजनीतिक हैसियत, या आम जनता। प्राचीन समय में जल्लीकट्टू का नाम सल्लीकट्टू हुआ करता था, जिसमें सल्ली का अर्थ सिक्का और कासू का निहितार्थ अर्थ सिंग होता था, यानि परंपरा और संस्कृति के ओहदे के तर्ज पर सांड़ों के सिंग पर सिक्का बांधकर उसकों हासिल करने की जंग होती थी। धीरे-धीरे परंपरा तो गतिमान रही, लेकिन नाम में परिवर्तन करके सल्लीकट्टू ने जल्लीकट्टू नाम धारण कर लिया। 2004 में एनिमल वेलफेयर बोर्ड़ ने इस खेल पर बैन के लिए आवाज बुलंद की।

यह भारतीय सामाजिक परिवेश का अंर्तर्विरोधात्मक द्वंद है, कि वर्तमान सामाजिक और आधुनिक परिवेश में भी परंपराओं और रूढियों को लेकर रोक पर व्यापक पैमाने पर विरोध का सुर पकड़ता रहा है। तमिलनाड़ू में जल्लकट्टू को लेकर कुछ विगत समय से भावावेश की गंगा निकल पड़ी है, जिसमें विवेकपूर्ण बहस की संभावना नदारद और अति संकुचित अर्थों में सीमित रह गई, जिसके फलस्वरूप समाज में यह जानवरों के ऊपर बर्बरता की कहानी पुनः एक बार चालू होती प्रतीत हो रही है, जिसको हवा देने का काम राजनीतिक पार्टियों से भी जनता का समर्थन प्राप्त करने के लिए किया जा रहा हैं, क्योंकि मूक प्राणी अपने दर्द को बयां नहीं कर सकते, और उनका वोटतंत्र में कोई भागेदारी नहीं होती, इसलिए वोटतंत्र इस बर्बरता के खेल में हावी होती दीप्तमान हो रही है, और लोकतांत्रिक परिवेश का संवैधानिक ढ़ांचा जानवरों के हितों को सुरक्षित करने में कुछ हद तक नाकाफी साबित होता दिख रहा है। सुप्रीम कोर्ट के रोक के बावजूद अध्यादेश के माध्यम से इस खेल को पुनः रंग देने की कवायद चल रही है, और हालांकि उच्च न्यायालय ने भी अपना अंतिम निर्णय नहीं सुनाया है। पशु-प्रेमियों की दलीलों से अदालत सहमत थी, और होना भी चाहिए, क्योंकि खेल के नाम पर किसी भी प्राणी के साथ बर्बरता नहीं की जा सकती है। मनोंरंजन की बिसात में सांड़ों के साथ अत्याचार की हद पार की जाती रही है, जिस पर रोक लगानी जरूरी भी थी, क्यांेकि सांड़ो को शराब पिलाना, और उसकों उग्रता के लिए भड़काना उचित नहीं कहा जा सकता है। यह दुर्भाग्य ही है, कि आदमियों को भी नुकसान होने के बावजूद वह संस्कृति के नाम पर बलिदान पर उतारू रहते है।
वर्तमान दौर में जब नई तकनीक, और ज्ञान से दुनिया आगे बढ़ रही है, फिर हमारा समाज कब तक पुरातन सोच की संस्कृति और सभ्यता को ढोता फिरता रहेगा। समाज में बदलाव होना वक्त के साथ लाजिमी हो जाता है, नही तो सामाजिक ताना-बाना उसी ढर्रें पर खड़ा रह जाता है, और दुनिया आगे निकल जाती है, फिर जल्लीकट्टू के परिवेश में भी यही संवेदनाएं लागू होनी चाहिए थी, लेकिन तमिलनाड़ू सरकार प्रगतिषील समाज के निर्माण पर जोर न देते हुए तार्किक बहस का मुद्वा निर्मित करने में असफल दिख रही है, और अध्यादेश के माध्यम से फैसलें को पलटने पर उतारू है, जबकि अभी न्यायालय का सर्वोच्च निर्णय आया हीं नहीं है। पशु-पक्षियों को लेकर दुनियाभर में जागरूकता का माहौल बन रहा है, दरअसल, देश की राजनीतिक पार्टियां अपने वोटबैंक को ठोस आधार देने के लिए संस्कृति और परंपराओं का दोहन करने का अवसर तलाशती रहती है। इसी के मद्देनजर केंद्र सरकार ने 8 जनवरी 2016 को एक अधिसूचना जारी करके जल्लीकट्टू पर लगे प्रतिबंध को हटा लिया था। कुछ पशुप्रेमी संस्थाओं ने सरकार के इस फैसले को शीर्ष अदालत में चुनौती दी. फिर अदालत ने प्रतिबंध को जारी रखते हुए अपना फैसला सुरक्षित रख लिया। जल्लीकट्टू के समर्थन में प्रदर्शन करने वाले प्रिवेंशन ऑफ क्रूअल्टी टू एनिमल्स एक्ट 1960 के सेक्शन 27 में संशोधन करके जल्लीकट्टू सांड को प्रशिक्षित पशुओं की श्रेणी में रखने की मांग कर रहे हैं। दरअसल, चाहे राज्य की सरकारें हो या केंद्र की, लोक परंपरा और संस्कृति से जुड़े सवालों का विवेकसम्मत हल ढूंढने के बजाय उन्हें भड़काने का ही आज़ादी के समय से करती आ रही हैं.वही जल्लीकट्टू का मसला भी इसी नजरिये की उपज है।जब धरती पर स्वास्थ्य जीवन के लिए प्राकृतिक संतुलना के लिए ईष्वर निर्मित सभी चीजों का होना जरूरी है, फिर ऐसी प्रथाओं को लेकर बैठे रहना उचित नही कहा जा सकता है। निहितार्थ अर्थों में विचार किया जाएं, तो जीवंत और सत्त प्रगतिशील सभ्यता और संस्कृति वही होती है, जो समय के साथ अपनी आलोचनात्मक और निर्णायकत्मक समीक्षा के दौर से गुजरती रहती है। फिर जल्लीकट्टू जैसी पुरातन पंरपरा इसका अपवाद स्वरूप कब तक रह सकती है।
अगर जल्लीकट्टू को पुनः आयोजित किया जाता है, फिर अन्य राज्यों में होने वाले जानवरों के साथ मनोंरंजन की प्रथा पुनः हिचकोले मारनी शुरू हो जाएंगी, जैसी असम में बुलबुल की लड़ाई, आंध्रप्रदेश में मुर्गा लड़ाई, गोआ में बैलों की लड़ाई और अन्य राज्यों में होने वाली जानवरों के साथ क्रुरता का व्यवहार हावी होने की मांग मुखर हो जाएंगी, जो समय के साथ लगभग बंद पड़ी है। इसके साथ इस जल्लीकट्टू के आयोजन में 2010 से 2014 के बीच 17 लोगों की मौत और हजारों की संख्या में लोग घायल भी हो चुके है। इस तरह ऐसी परंपरा प्रगतिशील समाज का द्योतक नहीं हो सकती है, जिसमें जानवरों और वन्यजीवों के साथ खिलवाड़ किया जाता रहा हो, इस पर रोक लगाना ही आवश्यक है, और राजनीतिक पार्टियों को भी वोट बैंक की संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठकर सोचने की जरूरत होती है। जो वर्तमान समय में होता नहीं दिख रहा है। बहरहाल वर्तमान में अन्य धर्मो और जातीय समूहों में भी ऐसी पारंपरिक सांस्कृतिक विकृतियां प्रचलित हैं। अगर जल्लीकट्टू जैसे अनावश्यक परंपरा पर रोक लगाने में सफलता मिलती है तो अन्य धर्मो में भी प्रचलित सांस्कृतिक विकृतियों के द्वार बंद हो सकेंगे। क्या राजनीतिक दल और सरकारें इतना साहस दिखा पाएंगी? यह बात अभी तक समझ से पर दिख रही हैं.

महेश तिवारी

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