पुर्तगाली, डच और अंग्रेज ; भारत के विरूद्ध तीनों एक

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मनोज ज्वाला
पुर्तगाली , डच और अंग्रेज बाहर से देखने-समझने में तो अलग-अलग जातियों के लोग प्रतीत होते हैं ; किन्तु चमडी के रंग से श्वेत और धार्मिक मजहबी ढंग से ईसाई होने के कारण अश्वेत व गैर-ईसाई लोगों-राष्ट्रों  के विरूद्ध भीतर से ये सभी एक ही हैं । अंग्रेजों द्वारा लिखित भारतीय इतिहास की किताबों में हमें यह पढने को भी मिलता रहा है कि भारत में अपना-अपना उपनिवेश व बाजार स्थापित करने के दौरान विभिन्न राष्ट्रीयताओं के ये लोग एक-दूसरे से लडते-झगडते रहे हैं और इनके बीच युद्ध भी होते रहे हैं; किन्तु यह सब इनका बाहरी स्वांग प्रतीत होता है । क्योंकि इन सबके औपनिवेशिक-व्यापारिक हित पृथक-पृथक होने के बावजूद इन सब का नस्लवादी हित एक ही रहा है- समस्त पृथ्वी के मनुष्यों का ईसाइकरण , पृथ्वी के समस्त संसाधनों का अधिग्रहण–अपहरण तथा समस्त अश्वेत प्रजा का धर्मान्तरण-उन्मूलन और भारत एवं सनातन धर्म का विखण्डन–विलोपन । इस तथ्य के अनेक प्रमाण हैं, किन्तु प्रचलित इतिहास की किताबों में ये गौण हैं ; क्योंकि यह इतिहास इसी गुप्त उद्देश्य के तहत अंग्रेजों द्वारा लिखा हुआ है , वास्तविक इतिहास तो घुप्प अंधेरे में कहीं पडा हुआ है ।

क्या आपने यह कभी सोचा है कि “भारत की खोज वास्को-डी-गामा ने की” यह तथ्य आखिर किस आधार पर स्थापित कर दिया गया और इसका निहितार्थ क्या है ? भारत कहीं भुला हुआ या खोया हुआ था क्या ? इतिहास में यह भी तो लिखा जा सकता था कि वास्को-डी-गामा ने लूट-पाट का अपना धंधा चमकाने के लिए भारत में शरण लिया अथवा भारत में जा कर लूटपाट का अपना धंधा चमकाया । किन्तु ऐसा न लिख कर ऐसा लिखना कि ‘वास्को-डी-गामा ने भारत की खोज की’ गहरी धूर्त्ततापूर्ण कुटिल षड्यंत्र है । ऐसा लिखने का निहितार्थ यह है कि अमूक चीज की खोज हमने की , इसलिए वह चीज हमारी हो गई । अर्थात भारत का कोई राजा महाराजा मालिक-मुख्त्यार-स्वामी था ही नहीं, वह यों ही किसी बियाबान में लावारिस पडा हुआ था, जिसे एक पुर्तगाली ने यत्नपूर्वक खोज निकाला , इस कारण वह उसकी हो गई । यह वास्तव में द्विअर्थी कथन है , जिसका वास्तविक अर्थ गौण कर दिया गया है और सुनियोजित अर्थ को अंग्रेजों ने  इतिहास में स्थापित कर दिया है । इतिहास के इस कथन का वास्तविक अर्थ यह है कि वास्को-डी-गामा ने लुटपाट का अपना धंधा चमकाने के निमित्त अपने साथियों-प्रतिद्वंदियों से दूर जा कर एक सुरक्षित ठीकाने की खोज की । ठीक वैसे ही , जैसे कोई तस्कर या धंधेबाज आदमी अपने धंधे के लिए देश भर में घूम कर किसी बडे शहर को खोज लिया अथवा किसी बडे शहर में कोई बडा व्यावसायिक प्रतिष्ठान ढूंढ लिया । ऐसे में वह आदमी अथवा उसके लोग अगर यह कहने लगें कि उस अमूक शहर की अथवा अमूक प्रतिष्ठान की खोज उसी तस्कर ने की, तो इसे या तो उनका पागलपन कहा जाएगा या उनकी धूर्त्तता ।  मगर उस अमूक शहर के लोग या उस अमूक प्रतिष्ठान के लोग भी अगर यह  मनने लगें कि हमारे शहर और हमारे प्रतिष्ठान की खोज तो सचमुच उसी तस्कर धंधेबाज ने की, तो इसे आप क्या कहेंगे ? जाहिर है निरी मूर्खता या आत्मविस्मृति । हमारे देश के अधिकतर लोग इसी निरी मूर्खता व आत्मविस्मृति के शिकार हैं , उस इतिहास के कारण जिसे षड्यंत्रकारी अंग्रेजों ने लिख रखा है । इतिहासकार अंग्रेजों ने  यह नहीं लिखा है कि भारत की खोज किसी अंग्रेज ने की, बल्कि यह लिखा है कि वास्को-डी-गामा नामक पुर्तगाली नाविक ने की, तो इसके भी गहरे अर्थ हैं  ।   दर-असल पुर्तगाल डच और अंग्रेज बाहर से दीखते जरूर हैं पृथक , मगर भीतर से सभी एक ही हैं । मेरे इस कथन का यह भी एक प्रमाण है । ईसाइयों के सर्वोच्च धर्माध्यक्ष पोप द्वारा सन १४९२ में ही पूरी पृथ्वी का बंटवारा करने वाला  अपना ‘बुल’ जारी कर भारत को पुर्तगालियों  के हिस्से में डाल दिये जाने से उत्साहित-प्रेरित हो कर वास्को-डी-गामा नामक पुर्तगाली नाविक डान छह वर्षों तक विभिन्न समुद्री मार्गों में भूलते-भटकते रहने के बाद सन १४९८ में भारत पहुंचने और तदोपरांत गोवा-दमन-दीव आदि स्थानों पर अपना झण्डा गाडने में सफल हो गया था , जिसे युरोपीय लोगों में बहुत बडी सफलता आश्चर्यजनक सफलता मानी गई  ; क्योंकि उनके लिए भारत पहुंच जाना स्वर्ग पहुंच जाने के समान था । जाहिर है, युरोप की इस भारी सफलता का श्रेय पोप के षड्यंत्रकारी बुल और उसके क्रियान्वयन की शुरुआत करने वाले वास्को-डी-गामा के जुनून को था । इसी कारण अंग्रेजों ने भी ऐसा ही लिखा , ताकि षड्यंत्र का हर एक तार एक-दूसरे से बाकायदा मजबूतीपूर्वक जुड जाए , जिससे उसकी विश्वसनीयता पुष्ट होती रहे । षड्यंत्रकारी लोग जिनके विरूद्ध षड्यंत्र रचते हैं, उन्हें छलने-ठगने के लिए बाहर-बाहर आपस में लडते-झगडते भी हैं, ताकि लोग इस भ्रम में रहें कि वे सभी एक-दूसरे से भिन्न व परस्पर विरोधी हैं । यहां भी ऐसा ही हुआ है ।

पूरी पृथ्वी का मालिक होने का सपना देखने और उसे हकीकत में बदलने की चाल चलते रहने वाले षड्यंत्रकारियों की इस धूर्त्तता और उनकी दिखावटी पारस्परिक शत्रुता को समझने के लिए आपको इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना होगा कि पोप अलेक्जण्डर षष्ठम ने अपने ‘बुल’ में युरोप से पूरब के समस्त गोलार्द्ध को पुर्तगाल के हिस्से में डाल रखा है और उस गोलार्द्ध के भीतर भारत की खोज अगर एक पुर्तगाली ने की , तो यह देश अंग्रेजों के अधीन कैसे हो गया ?  जबकि , अंग्रेजों के भारत आने के लगभग एक सौ साल पहले से पुर्तगाली  यहां आ कर न केवल जम चुके थे, बल्कि यहां के कई भू-भागों पर वे अपना शासन भी स्थापित कर चुके थे और इन दोनों जातियों में परस्पर संघर्ष भी होते रहे हैं ।

दर-असल हुआ यह कि अधिकाधिक धन के लिए लूट-पाट करने के बावत सर्वाधिक समृद्ध व सुरक्षित प्रदेश की टोह में भागता-फिरता पुर्तगाली ‘डान’ वास्को-डी-गामा अपने नाविक दस्यु-दल के साथ हिन्द महासागर के भारतीय सीमा-स्थित कालीकट बंदरगाह तक आया हुआ था । यहां आ कर भारत की सम्पदा-समृद्धि देख वह दंग रह गया । आस-पास के कई छोटे टापुओं- गोवा दमन दीव अंण्ड्मान आदि को  लूट का अपना शिकार बनाते हुए भारी धन-माल के साथ समन्दर-पार वापस अपने देश जाकर वहां उसने ‘भारत की खोज’ कर लेने का दावा पेश कर किया । फिर तो उसके द्वारा लूट के नये अड्डे की खोज कर लिए जाने के बाद उसके तमाम पुर्तगाली साथियों-लुटेरों की फौज ही यहां आने लगी, जिनने कालान्तर बाद यहां के कई छोटे-बडे स्थानों-टापुओं को लुट-पाट के अपने घेरे में ले लिया । अपने पैर जमाते ही वे दस्यु पुर्तगाली एक ओर धर्मान्तरण को अंजाम देने लगे , तो दूसरी ओर  स्थानीय राजाओं-रजवाडों की शक्ति को चुनौती भी । वे भारत के राजाओं रजवाडों से  सीधे टकराने लगे , जबकि उनके बहुत बाद आये अंग्रेज लुटेरे नाविक ब्रिटिश महारानी का राजदूत बन कर भारत के मुगल बादशाह जहांगिर के दरबार में पैर जमाने तथा अन्य मुगल नवाबों की चापलुसी-तिमारदारी कर तरह-तरह की रियायतें हासिल कर अपनी स्थिति मजबूत बनाने में सफल हो गए । आगे सन १६६२ में जब पुर्तगाल की राजकुमारी कैथरिन का ब्रिटिश राजकुमार चार्ल्स के साथ विवाह सम्पन्न हुआ, तब पुर्तगाल के राजा ने भारत का बम्बई (अब मुम्बई) नामक भू-भाग अपने दामाद को दहेज में दान कर दिया , जिसे उसने दस हजार पौण्ड के वार्षिक किराये पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी को हस्तगत कर दिया । इस तरह से भारत में अंग्रेजों को आगे कर पुर्तगाल यहां से वापस हो गए । इतिहास के इसी तथ्य से अब आप समझिए कि युरोप की इन दोनों जातियों के दोनों राज्यों में अगर शत्रुता होती तो वह वैवाहिक गठबन्धन और उस भारतीय भूमि का परस्पर हस्तान्तरण भला कैसे होता ? सच्ची बात असल में यह है कि वह सब कुछ उस पोप की षड्यंत्रकारी योजना के तहत हुआ, जिसने सम्पूर्ण पृथ्वी का आपस में बंटवारा करते हुए भारत को पुर्तगाल के हिस्से में डाल रखा था ; किन्तु धूर्त्तता, चालबाजी, कूटनीति व क्रूरता के मामले में अंग्रेजों को पुर्तगालियों के बनिस्बत अधिक चालाक व निपुण देख-समझ कर बम्बई-हस्तन्तरण के जरिये इन्हें आगे कर दिया और उन्हें पीछे । डचों के साथ भी ऐसा ही हुआ । उनके कब्जे में जो भी भारतीय भूभाग था , सो सब कतिपय संधियों के तहत अंग्रेजों के हवाले कर उन्हें भी वापस हो जाना पडा । बम्बई के दान और हस्तान्तरण से पोप ने समस्त पृथ्वी पर अपने स्वामित्व के अपने हवाई दावे का परीक्षण भी कर लिया कि वह पृथ्वी के किसी भी भूभाग का मनमाना इस्तेमाल कर उसकी खरीद-बिक्री कर सकता है या नहीं ? इस दावे का बाजाब्ता परीक्षण किये जाने के तहत बम्बई न केवल दान कर दी गई , बल्कि दान हासिल करने वाले ने उसे एक कम्पनी के नाम पट्टे पर दे दिया और उसके छोटे-बडे अनेक भू-खण्डों का बडे पैमाने पर विक्रय भी किया । उससे पहले कम से कम भारत में भूमि का क्रय-विक्रय नहीं होता था । भूमि का स्वामी तो भगवान ही हुआ करता था । किन्तु भारत के लोगों ने भी  क्रीडा-कौतूहलवश ही सही भारत में ही भू-खण्ड खरीदे । किसी ने उस खरीद-बिक्री का कोई विरोध नहीं किया ; बल्कि खेल-खेल में ही सही, पोप की मिल्कियत को लोगों ने स्वीकार कर लिया । इस तरह से ‘गौड’ के इकलौते पुत्र के पार्थिव प्रतिनिधि अर्थात पोप का स्वामीत्व परीक्षित-स्थापित हो जाने के बाद अंग्रेजी ईस्ट इण्डिया कम्पनी उसकी योजना के अनुसार उसके षड्यंत्र का क्रियान्वयन कर रही है अथवा नहीं, इसकी निगरानी करने वास्ते पुर्तगाली ईसाई इसके गोवा प्रदेश में डटे रहे जो सन १९४७ में अंग्रेजों के भारत से वापस जाने के बाद भी नहीं गये । यहां गौरतलब है कि सन १९६२ में गोवा की आजादी के बाद भी पोप व पुर्तगाल के बही-खाते में  गोवा आज भी एक पुर्तगाली राज्य माना जा रहा है । यह मैं अपनी ओर से नहीं कह रहा हूं , बल्कि पुर्तगाल के राजकीय अध्यादेशों तथा वहां के शासनिक दस्तावेजों में इसे देखा जा सकता है , आप भी देख सकते हैं ।

पुर्तगाल की संसद में वहां की सरकार द्वारा भारत के गोवा-दमन-दीव  के लिए मनोनीत दो प्रतिनिधि आज भी वैसे ही पदासीन होते हैं , जैसे गोवा की आजादी से पूर्व हुआ करते थे । पुर्तगाल सरकार में ‘हाईकमिश्नर फार दी स्टेट आफ इण्डिया’ का एक पद आज भी कायम है, जिस पर अनिवार्य रुप से पुर्तगाल अधिकारी ही पदासीन होता है । आपको यह जानने-सुनने में हास्यास्पद भले ही लगे , किन्तु ऐसा नहीं है कि पुर्तगाली सरकार किसी पागलपन में ऐसा कर रही है और इस तथ्य से अनभिज्ञ है कि गोवा-दमन-दीव भारत के भूभाग हैं और उनका शासन-प्रशासन अब भारत-गणराज्य के संविधान के तहत संचालित होता है । बावजूद इसके वहां की संसद में आज भी भूतपूर्व ‘पुर्तगीज भारत’ के दो सांसद पुर्तगाली-सरकार द्वारा मनोनीत होते रहते हैं, तो इसके गहरे अर्थ हैं । दर-असल शीर्षस्थ कैथोलिक चर्च (अब वेटिकन सिटी) की हस्तक पुर्तगाली सरकार उसके पोप द्वारा जारी ‘बुल’ के अनुसार भारत पर अपनी (उसकी) मिल्कियत अनवरत जारी रखे रहने की उसकी दूरगामी योजना के क्रियान्वयन हेतु दस्तावेजी सबूत कायम रखने की सोची-समझी चाल के तहत ऐसा कर रही है । भारत के इन द्वीपों की आजादी को वे दोनों सर्वथा नकारते रहे हैं और इसे हमारा ‘स्वराज्य’ तो कतई नहीं, ‘सत्ता-हस्तान्तरण’ भी नहीं , बल्कि पुर्तगाली राज्य पर भारत का आक्रमण करार दे रहे हैं ।

उधर १५ अगस्त १९४७ को ब्रिटिश पार्लियामेण्ट से पारित इण्डियन इण्डिपेण्डेंस एक्ट के तहत डोमोनियन स्टेट के तौर पर मिली तथाकथित आजादी को भी हम तो अपना ‘स्वराज’ ही मान रहे हैं , किन्तु इस एक्ट के मसौदे के अनुसार यह तो ब्रिटिश राष्ट्र-मण्डल (कामन वेल्थ) के अधीन सत्ता-हस्तान्तरण मात्र है , जो प्रकान्तर में उनका ‘स्व’राज है । किन्तु अंग्रेजों के उस सत्ता-हस्तान्तरण तथा पुर्तगालियों के उपरोक्त दस्तावेजीकरण के बडे गहरे अर्थ हैं, जो कभी भी अनर्थ उत्त्पन्न कर सकते हैं । ठीक उसी तरह से, जैसे बाइबिल के किसी कथन का यह अर्थ निकालते हुए कि सारी पृथ्वी ईसाइयों के लिए ही है , पोप ने इसी आधार पर पूरी पृथवी को दो ईसाई शक्तियों के बीच बांट रखा है ।

(मेरी शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक-‘भारत के विरूद्ध पश्चिम के बौद्धिक षड्यंत्र’ की एक बानगी)

मनोज ज्वाला

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