सितारा हस्तियों को चेहरा बनाए जाने से किसान-आंदोलन की साख़ पर सवाल

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ग्यारह दौर की वार्त्ता, निरंतर किसानों से संपर्क और संवाद साधे रखने के प्रयास, उनकी हर उचित-अनुचित माँगों को मानने की पेशकश, यहाँ तक की कृषि-क़ानून को अगले डेढ़ वर्ष तक स्थगित रखने के प्रस्ताव के बावजूद सरकार और किसानों के मध्य गतिरोध ज्यों-का-त्यों बना हुआ है। सरकार बार-बार कह रही है कि वह किसानों से महज़ एक कॉल की दूरी पर है। बातचीत के लिए सदैव तैयार एवं तत्पर है, फिर भी किसान-नेता आंदोलन पर अड़े हुए हैं? असहयोग आंदोलन के दौरान चौरी-चौरा में हुई हिंसक घटना के शताब्दी वर्ष पर यह सवाल स्वाभाविक ही होगा कि किसानों-मज़दूरों-विद्यार्थियों-दलितों आदि के नाम पर आए दिन होने वाले इन हिंसक आंदोलनों से आख़िर देश को क्या हासिल होता है?

26 जनवरी को आंदोलन के नाम पर कथित किसानों ने जो किया उसके बाद तो यह तय हो गया कि उनका नेतृत्व कर रहे नेताओं की नीयत में शुरू से ही खोट था। यह सर्वविदित है कि 26 जनवरी 1950 हम भारतीयों के लिए ऐतिहासिक महत्त्व रखता है। यह न केवल प्रतिवर्ष मनाया जाने वाला राष्ट्रीय पर्व है, अपितु यह हमारी समृद्ध गणतंत्रात्मक विरासत, राष्ट्रीय एकात्मता एवं अखंडता का जीवंत प्रतीक है। यह दिवस स्वराज एवं स्वतंत्रता के लिए हमारे त्याग, बलिदान, संघर्ष एवं साहस की कही-अनकही अनगिन पवित्र सुधियाँ समेटे है। और ठीक इसी प्रकार लालकिले का भी अपना एक इतिहास है, अपनी गौरव-गाथा है। वह ईंट-गारे-चूने-पत्थर से बना महज़ एक किला ही नहीं, बल्कि हमारे राष्ट्रीय गौरव एवं स्वाभिमान का प्रतीक है।

जिस प्रकार इन कथित किसानों ने लाल किले को निशाना बनाया, तिरंगे को अपमानित किया, पुलिस-प्रशासन पर हिंसक हमले किए, बच्चों-महिलाओं आम लोगों तक को नहीं बख़्शा, जैसे नारों-झंडों-भाषाओं का इस्तेमाल किया, जिस प्रकार वे लाठी-डंडे-फरसे-कृपाण से लैस होकर सड़कों पर उग्र प्रदर्शन करते दिखाई दिए- वे सभी स्तब्ध एवं व्यथित करने वाले हैं। बल्कि उनमें से कुछ तो अपने हाथों में बंदूक तक लहरा रहे थे। ऐसे में किसी के लिए भी यह विश्वास करना कठिन है कि ये किसान हैं और हमारे देश के किसान ऐसे भी हो सकते हैं? यहाँ तक कि उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए दिशानिर्देशों एवं ट्रैक्टर-रैली निकालने से पूर्व सरकार से किए गए वायदों की भी खुलेआम धज्जियाँ उड़ाईं। उन्होंने इन सबको करने के लिए जो दिन चुना, वह भी अपने भीतर गहरे निहितार्थों को समाविष्ट किए हुए है। देश जानना चाहता है कि गणतंत्र-दिवस का ही दिन क्यों? कथित किसानों के परेड की ज़ुनूनी ज़िद क्यों? और जब वे दावा कर रहे थे कि किसानों द्वारा तिरंगे को सलामी देने में हर्ज ही क्या है तो फिर लालकिला पर हिंसक हमला व उपद्रव क्यों? उस लालकिले पर जिसके प्राचीर से प्रधानमंत्री हर वर्ष 15 अगस्त को देश को संबोधित करते हैं और हमारी आन-बान-शान के प्रतीक राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे को फहराते हैं। भारतवर्ष जब ब्रिटिश उपनिवेश से स्वतंत्र होकर एक संप्रभु-लोकतांत्रिक देश बना तो तत्कालीन प्रधानमंत्री ने पहली बार लाल किले पर ही तिरंगा फहराया था। लालकिले ने इससे पूर्व भी आक्रांताओं के हमलों के बहुत-से ज़ख्म और घाव झेले हैं। पर उसका ताज़ा ज़ख्म व घाव उससे कहीं गहरा एवं मर्मांतक है, क्योंकि यह अपनों की ओट लेकर दिया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इन तथाकथित किसानों ने लालकिले पर 26 जनवरी जैसे राष्ट्रीय-दिवस पर जैसा उपद्रव-उत्पात मचाया है, किले के गुंबदों को जो क्षति पहुँचाई है उससे लोकतंत्र शर्मसार हुआ है। उससे पूरी दुनिया में हमारी छवि धूमिल हुई है, हमारे मस्तक पर हमेशा-हमेशा के लिए कलंक का टीका लगा है। और उससे भी अधिक विस्मयकारी यह है कि अभी भी कुछ नेता, सामाजिक-राजनीतिक संगठन, तथाकथित बुद्धिजीवी इस हिंसक आंदोलन को जन-आंदोलन की संज्ञा देकर महिमामंडित करने की कुचेष्टा कर रहे हैं।

सच तो यह है कि 26 जनवरी को हुई हिंसा सुनियोजित षड्यंत्रों की त्रासद परिणति थी। कोई आश्चर्य नहीं कि इस षड्यंत्र में देश-विरोधी बाहरी और भीतरी शक्तियों की संलिप्तता हो। यह वास्तव में किसी भी राष्ट्र की प्रभुसत्ता को सीधी चुनौती है। इससे पूर्व भी 15 अगस्त, 2020 को लाल किले पर खालिस्तानी झंडा फहराने के लिए सिख फॉर जस्टिस नाम के खालिस्तानी आतंकी संगठन ने लोगों को भड़काने का प्रयास करते हुए ऐसा करने पर भारी रकम तक देने की पेशकश की थी। यद्यपि पुलिस की सतर्कता के बल पर तब ऐसा संभव नहीं हो सका, परंतु उससे एक दिन पूर्व वे मोगा के एक प्रशासनिक भवन पर खालिस्तानी झंडा फहराने में सफल रहे। मोगा में ही 15 अगस्त को एक गुरुद्वारे पर खालिस्तानी झंडा फहराया गया था। कुछ दिनों बाद हरियाणा के सिरसा से भी ऐसी ख़बरें आईं। 4 अक्टूबर को भी शंभू टोल प्लाजा पर खालिस्तानी झंडा फहराने पर आतंकी संगठन द्वारा इनाम देने की घोषणा की गई। इन सब छिटपुट प्रयासों के बाद अंततः 26 जनवरी 2021का दिन भारतीय लोकतंत्र को कलंकित करने एवं हमारी प्रभुसत्ता को सीधी चुनौती देने के लिए पुनः चुना गया और इस बार यह कुचक्र किसान-आंदोलन की आड़ में चला गया। इसके लिए बड़ी आयोजना से सोशल मीडिया का दुरुपयोग किया गया। फेसबुक-ट्विटर आदि के माध्यम से लोगों को हिंसक आंदोलन के लिए भड़काया गया, 26 जनवरी का विशेष एवं ऐतिहासिक दिवस चुना गया ताकि पूरी दुनिया का ध्यान आकृष्ट किया जा सके, एक चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार को अस्थिर किया जा सके, उसकी साख़ और विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा किया जा सके, संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर तमाम वैश्विक संस्थाओं एवं मित्र देशों की सरकारों की निगाहों में उसे बदनाम किया जा सके, उसे मानवाधिकारों को दबाने और कुचलने वाला बताया जा सके। उनकी तैयारी का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपने इन प्रयासों के लिए देश-विदेश की तमाम प्रसिद्ध हस्तियों तक से संपर्क साधा, उनका सहयोग लिया। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, ब्रिटेन आदि देशों में लगातार अभियान चलाए। भले ही सितारा हैसियत वाली हस्तियों को आंदोलन का चेहरा बनाए जाने से इनकी साख़ को बट्टा लगा हो, पर इतना तो तय है कि रेहाना, मियाँ ख़लीफ़ा, ग्रेटा थनबर्ग जैसी हस्तियों का सहयोग उन्हें बिना मूल्य चुकाए तो मिला नहीं होगा? मुस्कान तक बेचने की कला एवं अदा में माहिर इन चमकते-दमकते सितारा चेहरों ने कथित किसानों की पीड़ा से पसीजकर ट्वीट किया है, यह एक नितांत वायवीय, रूमानी-सा ख़्याल है! हाँ, किसानों के प्रति इनकी संवेदना तब कुछ मायने भी रखती, जब ये भारत की माटी, मन-मिजाज़ से नाम मात्र को भी परिचित होते। एक्टिविस्ट ग्रेटा थनबर्ग के हालिया ट्वीट से सामने आए दिशानिर्देशों, कार्यक्रमों एवं योजनाओं ने इन षड्यंत्रकारियों की कलई खोलकर रख दी है। चहुँ ओर हो रही आलोचना और नेपथ्य की कथा-पटकथा के उज़ागर हो जाने की आशंका में ग्रेटा से वह ट्वीट भले ही डिलीट करवा लिया गया हो, पर इससे इस आंदोलन के पीछे की राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय साज़िशों का पर्दाफ़ाश तो हुआ ही है। यह सब देखते-जानते-समझते हुए भी यदि अब भी हम इसे भोले-भाले, मासूम किसानों-अन्नदाताओं का आंदोलन कह रहे हैं तो या तो हम निरा भोले हैं या नितांत धूर्त्त। राजनीति की पाठशाला का ककहरा जानने वाला व्यक्ति भी यह देख-जान-समझ सकता है कि किसान-आंदोलन दिशाहीन हो चुका है, इसका सूत्र अब नेपथ्य के खिलाड़ियों के हाथों में है, वही बिसात बिछा रहा है, वही चालें चल रहा है और दाँव पर अब केवल मोदी सरकार ही नहीं, बल्कि देश और दुनिया का सबसे प्राचीन, विशाल एवं महान लोकतंत्र लगा है। यदि हम अब भी नहीं चेते तो सचमुच देर हो जाएगी। अवसर की ताक में घात लगाकर बैठीं देश-विरोधी ताक़तें अपना मतलब-मक़सद साधेंगी। ऐसी हिंसा, अराजकता, उच्छृंखलता, स्वेच्छाचारिता और पुलिस-प्रशासन, क़ानून-व्यवस्था, राज्य-राजधानी को अपहृत करने, बंधक बनाने की बढ़ती प्रवृत्ति अंततः हमारे देश और लोकतंत्र पर भारी पड़ेगी। इसलिए सरकार के साथ-साथ अब आम नागरिक-समाज को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। सर्वसाधारण और प्रबुद्ध वर्ग को एक साथ आगे आकर ऐसी निरंकुश एवं अराजक प्रवृत्तियों का पुरज़ोर खंडन करना पड़ेगा और हर हाल में राष्ट्रीय एकता, अखंडता एवं संप्रभुता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए अपना-अपना योगदान देना पड़ेगा।

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