सवाल शहजादे-शहजादियों की राजनीति का

-देवेन्द्र कुमार-  rahul
नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित होते ही यह आशंका व्यक्त की गई थी कि अब आगे का पूरा चुनाव नरेन्द्र मोदी बनाम राहुल गांधी बनने वाला है। यद्यपि कांग्रेस की पूरी कोशिश इससे बचते हुए चुनाव को मुद्दों पर आधारित बनाने की ही थी। सूचना का अधिकार, भोजन का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, रोजगार का अधिकार, डायरेक्ट कैश ट्रान्सफर और भू-अधिग्रहण कानून में संशोधन को वह अपना ट्रम्प-कार्ड बनाना चाहती थी। जबकि मोदी का पूरा जोर इस चुनाव को शहजादा बनाम यतीम बनाने की रही है और यह कामयाब भी हो रही है। लोकसभा चुनाव के पूर्व का सेमीफाइनल माने जाने वाले हिन्दी भाषा-भाषी चार राज्यों का चुनाव परिणाम शहजादे के पैरे तलों जमीन खींच ली है। आज मोदी कांग्रेस की वंशवादी परंपरा पर हमला बोलकर जनता की वाहवाही बटोर रहे हैं। जब वे राहुल को शहजादा कह सनसनी फैलाने की कोशिश करते हैं तो इसके पीछे एक स्पष्ट रणनीति होती है। अतीत में बेचे गये चाय की चर्चा करते हैं तो यह बताने की कोशिश होती है कि मैं भी एक सामान्य भारतीय की तरह जिल्लत और जल्लालत भरी जिन्दगी से बड़ी कठिनाई से बाहर आया हूं। मेरे पास जो भी कुछ है वह मेरे द्वारा अर्जित है, बाप-दादाओं की कमाई नहीं है, एक यतीम सी जिन्दगी, जो आम भारतीयों की होती है, हमारी भी है। हमारी जमापूंजी में जमाखोरी नहीं है, कोयले की काली कमाई नहीं है, टू-जी की चासनी नहीं है, आज आम भारतीय 20 से 30 रुपये प्रतिदिन में अपना गुजारा करता है जबकि साग की कीमत 40 रुपये प्रति किलो है । सच्चाई तो यह है कि आज आम भारतीयों को यतीम सी जिदंगी जीने के लिए विवश कर दिया गया है , तो इस स्थिति में यतीमों की राजनीति बुरी भी तो नहीं है।
वैसे भी मोदी के लिए अब करो या मरो की स्थिति निर्मित कर दी गई है । यदि राहुल असफल भी होते है तब भी उनकी राजनीति तो चलती ही रहेगी, शहजादों की यही तो विशेषता है। पर जैसा की हर यतीम के साथ होता है, मोदी के लिए असफलता का मतलब है सियासी मौत ,यदि मोदी के प्रयासों से भाजपा 273 के जादुई आकड़े को पार कर लेती है तब तो मोदी की बल्ले -बल्ले और यदि असफलता हाथ लगती है तब फिर राजग रुपी जहाज की जरुरत होगी और वैसी स्थिति में मोदी को कप्तानी से हाथ धोना पड़ेगा , फिर किसी नये खेमनहार की जरुरत होगी । मोदी का साम्प्रदायिक अतीत के कारण भी मोदी के नेतृत्व में राजग का विस्तार संभव नहीं दिखता। मोदी की छवि ही राजग विस्तार में बाधक होगी।
वैसे भी मोदी की शैली सामूहिक नेतृत्व की नहीं है । वे बूलडोजर है । संघ परिवार के पदाधिकारी हो या पर्यवेक्षक या भाजपा के सहयोगी जिसने भी आंख दिखाने की जुर्रत की राजनीतिक बियावान में भटक गयें । कभी प्रदेश भाजपा के वरिष्ठ नेता रहे शंकर सिंह बाघेला इसके ज्वलंत उदाहरण है। मोदी के नेतृत्व को लेकर भाजपा में भी केन्द्रीय स्तर पर आंतरिक खलबली है । सभी अपने -अपने भविष्य को लेकर फिक्रमंद है और चुप्पी मात्र इसलिए है कि कहीं उनकी भी राजनीतिक बियावान की शुरुआत नहीं हो जाए।
और मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की सोच भी संघ परिवार की विचारधारा के ठीक उलट ही है। एक निम्न जाति का व्यक्ति, शुद्र को राज्य संचालन का अधिकार उन धर्मशास्त्रों, मूल्यों और संस्कृति के ठीक विपरीत है जिसकी वकालत आज तक संघ परिवार करती आई है। दरअसल संघ की सोच मोदी की इस साम्प्रदातिक छवि का मात्र दोहन करना है । हिन्दी भाषा – भाषी राज्यों में मोदी को हिन्दू हृदय सम्राट के बतौर पेष कर यदि 200 सीटें भी आ जाती है तो फिर किसी उदार छवि के व्यक्ति को सामने लाकर वह राजग की सरकार बना सकती है । और एैसा करने का उसके पास तर्कसंगत आधार भी होगा । इस तीर से मोदी आडवाणी दोनों का पता साफ हो जायेगा, साथ ही पिछड़ों को दरकिनार करने का तोहमत भी नहीं लगेगा । और तब आज मोदी की राह में बाधक बनते नजर आते आडवाणी की राह में मोदी फुल नहीं बिछाएंगे। निश्चित रुप से आज भी संघ परिवार के पास इन दोनों का विकल्प तैयार होगा । और संघ परिवार सही वक्त पर अपने तरकष का असली तीर सामने लायेगा। दरअसल आरएसएस का मोदी प्रेम का कारण मात्र इतना ही है ? रणनीति साफ है , वह आडवाणी और मोदी को आपस में टकराकर एक तीसरे चेहरे को सामने लाने की फिराक में है। संघ को इस बात की पूरी समक्ष है कि 273 के जादुई आकड़े को हासिल करना आज भी मोदी के लिए दुश्कर कार्य है । और यदि यह सच साबित हुई तो वाकई मोदी की दशा एक यतीम सी ही हो जायेगी। जिसकी राजनीति आज वे करने की कोशिश कर रहे है और शहजादे तब भी राजनीति की पारियां खेल गुलाल करते नजर आयेंगे।
रही बात शहजादे की, शहजादे-शहजादियों की राजनीति की, तो इस मूल्क में इकलौती कांग्रेस ही शहजादे-शहजादियों की राजनीति नहीं करती । यदि वामदलों को छोड़ दे तो शहजादे-शहजादियों की राजनीति और कुनबापरस्ती करीबन सभी दलों में हैं, खुद भाजपा भी इससे अछूता नहीं है । वे देसी राजे-रजबाड़े जिनकी संख्या 565 बतलाई जाती है, इस 545 संसदीय व्यवस्था में समाहित हो गएं । इन रियासतों के वंशज सभी दलों में अपनी शोभा बढ़ा रहे हैं । अलवर, सिंधिया, जोधपुर ,बीकानेर के राजधरानें को ही देखें तो इनके वंशज कांग्रेस भाजपा दोनों में ही सम्मानित – सुशोभित हो रहे हैं। सिंधिया परिवार की बहू भाजपा में महारानी के बतौर सिर्फ पूजी ही जाती नहीं रही हैं, वरन् शहजादे-शहजादियों के खिलाफ जहर उगलते मोदी हाथ थाम राजस्थान का मुख्यमंत्री भी बन गई । लालू , मुलायम ,नवीन पटनायक , करुणानिधि, शिबु सारेन की कुनबापरस्ती की तो कहानी ही अलग है। पर क्या मोदी भाजपा खूद की कुनबापरस्ती और शहजादा-शहजादी परस्ती के खिलाफ बोलने की जुर्रत करेंगे।

मोदी के इरादे तो नेक हैं। आज हर भारतीय की दिल्ली तमन्ना -ख्वाहिश है कि हमारा जनतंत्र सही अर्थों में जनतंत्र की तरह काम करे। संसद अरबपतियों का कल्ब बनकर न रह जाय ,जो आज साफ-साफ शहजादे -शहजादियों और राजनीतिक घरानों के कुनबों के हाथों गिरवी रखा दिख रहा है। जनतांत्रिक प्रक्रिया को दीमक की तरह चाट रहा है और हम बेबसी के आलम में किसी मसीहा का इन्तजार कर रहे है, अन्ना आन्दोलन में उमड़ी भीड़ मात्र लोकपाल के लिए नहीं जुटी थी । वह जनतंत्र में आमूलचुक बदलाव की आस लगा कर आई थी । बरसों से जनसमुदाय के अवचेतन में दमित गुस्से और नफरत का वह प्रकटीकरण था । और आम आदमी पार्टी का इस कदर सामने आना ,स्थापित राजनीतिक दलों का खेल बिगाड़ने की कुबत पैदा कर लेना , इसी की शालीन अभिव्यक्ति है। शहजादा -शहजादियों और कुनबापरस्तों के खिलाफ गुस्सा भी है और नफरत भी, पर विकल्पहीनता भी है और दुर्भाग्य यह है कि आज मोदी की चमक कारपरेट घरानों की थैली से है। मोदी कॉरपरेट घरानों की पहली और आखिरी पसंद है और यहीं मोदी का दोहरा व्यक्तिव सामने आता है।

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