सूफी सम्मेलन से सवाल

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वर्ल्ड सूफी फोरम
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शंकर शरण

दिल्ली में विश्व सूफी सम्मेलन और उस के द्वारा आतंकवाद की निन्दा की खबर आश्वस्तकारी होनी चाहिए थी। किन्तु अंग्रेजी कहावत है, तफसील में शैतान मिलता है। इस पूरे आयोजन, आयोजक, अब तक के वक्तव्य तथा प्रस्तावित वक्ताओं, आदि की तफसील निराशाजनक है। बल्कि संदेह पैदा करती है। कि यह किस सूफी परंपरा वाला सम्मेलन हैः सरहिन्दी, चिश्ती, औलिया वाला या बुल्लेशाह, जफर, गालिब वाला?  पहली परंपरा छल-बल से केवल इस्लाम के प्रसार के लिए कटिबद्ध थी। जबकि दूसरी मानवतावादी थी। इसे बिना स्पष्ट किए गोल-मोल सूफीवाद की बात करना घातक हो सकता है।

यह याद करना रोचक होगा कि वर्तमान ‘वर्ल्ड सूफी फोरम’ के इस जलसे से पहले, अप्रैल 2009 में, लोक सभा चुनाव के दौरान एक और ‘वर्ल्ड सूफी काउंसिल’ यहाँ समाचारों में आया था। किसलिए? उन सूफियों ने देश के अनेक नगरों में दो सप्ताह लगातार यात्राएं करके लोगों से बीजेपी के खिलाफ ‘सेक्यूलर दलों और उम्मीदवारों’ को जिताने की अपील की थी। उस का नेतृत्व भी अजमेर के सूफी सैयद मुहम्मद जिलानी ने ही किया था। किन्तु हाँ, उन्होंने सेक्यूलरिज्म के नाम पर केवल बीजेपी से सावधान कराया, तबलीगी जमात, इंडियन मुजाहिदीन, जमाते इस्लामी या लश्करे तोयबा, सिमी आदि से नहीं। यदि अभी वाले सम्मेलन में भी वही सूफी हों, तो हैरत नहीं होनी चाहिए। अधिकांश सूफी पूरे राजनीतिबाज हैं! दुर्भाग्य से हिन्दू पक्ष के राजनेता भी राजनीति में कच्चे मिलते हैं।.

बहरहाल, अभी सम्मेलन ‘ऑल इंडिया उलेमा और मशाइख बोर्ड’ द्वारा आयोजित किया गया। इस संस्था का जन्म हुए साल भर भी नहीं हुए। इस की वेबसाइट पर सारी गतिविधि, सामग्री राजनीति केंद्रित है। इस के स्मरणीय, मार्गदर्शक सूफियों के नाम से यह जिहादी परंपरा वाला ही साबित होता है! जैसे, जुनैद बगदादी और मोइनुद्दीन चिश्ती का नाम उस में दर्ज है।

यह बातें जरा समझने की है। आखिर क्या कारण कि ऐसा सूफी सम्मेलन किसी मुस्लिम देश में नहीं होता? क्योंकि वहाँ इस्लाम के प्रसार का काम नहीं बचा है! अतः केवल भारत में ही ऐसी गतिविधियाँ चर्च-मिशनरियों की तरह काफिरों को इस्लाम के प्रति आदर पैदा करने, इस्लामी कारनामों के कुरूप इतिहास-वर्तमान पर पर्दा डालने और हो सके तो इस्लाम के काले झंडे तले खींचने का मिशन ही है।

यह कोई नई बात नहीं। सूफियों का पूरा इतिहास मुख्यतः राजनीति से ही जुड़ा रहा है। सूफी सक्रियता इस्लाम के प्रभुत्व की सीमाओं पर ही होती थी। अर्थात्, जहाँ अभी तक इस्लामी राज कायम नहीं हुआ, वहाँ भी इस्लाम फैले, इस के लिए अनेक सूफियों ने खूनी लड़ाइयाँ भी लड़ी। कर्नाटक और महाराष्ट्र मे ऐसे अनेक सूफियों की दास्तानें सर्वविदित हैं। मुहम्मद इब्राहीम जुबैरी द्वारा संकलित सूफियों की जीवनी (तजकिरा-ए-औलिया) में ऐसे सूफियों का विवरण पढ़ लें।

अधिकांश सूफी इस्लामी विस्तारवाद के सचेत अंग रहे हैं। यहाँ सूफी अरब या मध्य एसिया से आते थे। प्रायः वे किसी नए इलाके पर कब्जे को जाने वाली इस्लामी सेनाओं के साथ जाते थे और लड़ाइयाँ लड़ते थे। जैसे, पीर मबारी खंदायत। वे दिल्ली से अल्लाउद्दीन खिलजी की सेनाओं के साथ दक्षिण गए थे और बीजापुर पर नियंत्रण करने में बड़ी भूमिका निभाई थी। दक्षिण-पश्चिमी भारत में मशहूर शेख सूफी सरमस्त की ख्याति अपने चुने हुए लड़ाकों के साथ सैनिक अभियान चलाकर हिन्दू राजाओं के खात्मे की ही है। सूफी सरमस्त अरब से आए थे। शेख अली पहलवान, शेख शाहिद, पीर जुमना आदि जैसे इस तरह के कई अन्य सूफी थे। इसीलिए, अनातोलिया से अफगानिस्तान तक, कई सूफी एक साथ गाजी (जिहाद लड़ने वाले) और औलिया दोनों कहलाते थे। ‘गाजी-बाबा’ शब्द का चलन उसी से हुआ जो आज भी तालिबानों के बीच चलता है।

रिचर्ड ईटन की प्रसिद्ध पुस्तक सूफीज ऑफ बीजापुर (प्रिंसटन, 1978) में यहाँ सूफी इतिहास की चार शताब्दी का विस्तृत वर्णन है। इस में ‘योद्घा सूफियों’ पर एक पूरा अध्याय है। ईटन के अनुसार सूफियों के बारे में शान्ति-प्रेमी ईश्वरभक्त होने की सामान्य धारणा गलत है। दक्षिण भारत की ओर जाने वाले पहले सूफी जिहादी लड़ाके ही थे। तब उत्तर भारत में जहाँ सल्तनत थी, उन की भूमिका समझी जा सकती है।

ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती भी बारहवीं सदी में मध्य एसिया से शहाबुद्दीन घूरी के सैन्य आक्रमण के साथ ही अजमेर आए थे। उन के बीच सहयोग पूर्ण संबंध थे। चिश्ती की मदद से ही शहाबुद्दीन घूरी ने पृथ्वीराज चौहान को अंततः हराया और मार डाला था। खुद मोइनुद्दीन चिश्ती के शब्दों में, “हम ने पिथौरा (पृथ्वीराज चौहान) को जीवित पकड़ा और उसे इस्लामी सेना के सुपुर्द कर दिया।” (एस. ए. ए. रिजवी, ए हिस्ट्री ऑफ सूफीज्म इन इंडिया)

यही मोइनुद्दीन चिश्ती इस ‘ऑल इंडिया उलेमा और मशाइख बोर्ड’ के मार्गदर्शक हैं, जिस ने विश्व सूफी सम्मेलन आयोजित किया! अतः इन की सूफी-सूची में राबिया, बुल्लेशाह या गालिब का नाम न होना अर्थपूर्ण है। यदि चिश्ती वाला इतिहास दुहराया जा सके, तो वर्तमान सूफी साहबान नरेंद्र मोदी को इस्लामी स्टेट के हवाले कर फख्र महसूस करेंगे। यदि हमारी बात विचित्र लगे, तो कारण यही है कि उच्च-वर्गीय हिन्दुओं को सूफीवाद के बारे में नशा पिला के रखा गया है। ऐसा कि वे खुली आँख सामने रखी किताब या अपने कान सूफी व्याख्यान सुन कर भी नहीं समझ पाते कि जनाब का इरादा क्या है!

जबकि सरलता से देखा सकता है कि आज या पहले, ऐसे सूफियों में किसी आध्यात्मिक सुगंध का लेश भी नहीं मिलता। यह संयोग नहीं कि इस सम्मेलन में या इन आयोजकों की पिछली गतिविधियों में केवल राजनीतिक वक्तव्य और हरकतें मिलती हैं। किसी ‘हिन्दू-मुस्लिम दार्शनिक समन्वय’ जैसी बात की झलक दूर से भी नहीं मिलती। यही पहले भी था। मोईनुद्दीन चिश्ती या निजामुद्दीन औलिया, सूफियों की तमाम शोहरत ‘काफिरों को इस्लाम तले लाने’ में सफलता की ही नोट की गई है। चाहे वह जैसे हो। यह संयोग नहीं कि आज भी चिश्ती या औलिया जैसों के प्रति हिन्दू जनता के आदर को ‘इस्लाम की श्रेष्ठता’ के प्रमाण के रूप में लहराया जाता है, किसी मिली-जुली संस्कृति के रूप में कदापि नहीं।

इसीलिए, मोईनुद्दीन की दरगाह पर हिन्दुओं का चाहे स्वागत हो; किंतु किसी हिन्दू स्थल, हिन्दू संत के पास पर मुस्लिमों का जाना उन्हें सख्त नागवार लगता है। इसे सख्ती से रोका जाता है, जैसे हाल में स्वामी रामदेव के योग शिविरों में जाने से मुस्लिमों को रोका गया। ‘मिली-जुली संस्कृति’ के गल्प में इस सचाई पर ध्यान दे – कि इसे हमेशा एक-तरफा रखा गया है। हिन्दू मुस्लिम स्थानों पर आएं, पर मुस्लिम हिन्दू स्थानों पर न जाएं। सदियों से यह प्रवृ्ति यथावत रही है और ऐसा सचेत रूप में किया गया है।

सूफियों की राजनीतिक भूमिका मुख्यतः इस्लाम का प्रभुत्व फैलाने की, तकरीरों, तफसिरों में हिन्दू धर्म पर कीचड़ उछालने की, यानी दारुल-हरब को दारुल-इस्लाम में बदलने की रही है। यह इस से भी स्पष्ट होगा कि जहाँ इस्लामी राज पूरी तरह जम चुका हो, वहाँ से वे चले भी जाते थे। रिचर्ड ईटन के शब्दों में, “जिस क्षेत्र में इस्लाम का राजनीतिक दबदबा पूरी तरह कायम हो चुका, वहाँ उन की जरूरत नहीं रह जाती थी।” ठीक चर्च-मिशनरियों की तरह, जो एसिया, अफ्रीका में जमे रहते हैं, यूरोप, अमेरिका में नहीं।

निस्संदेह, ऐसे सूफी भी हुए, जो कुरान के बंधनों को नहीं मानते थे। मगर रहस्यवाद, प्रेम की बात करने और राजनीति से निरपेक्ष रहने वाले ऐसे सूफी बहुत कम हुए। जो बिना किसी मध्यस्थ, यानी पैगम्बर, के ईश्वर की लौ लगाते थे। जैसे, राबिया, बुल्लेशाह, गालिब या अंतिम मुगल बादशाह जफर।

पर इस्लामी इतिहास में उन की कोई कद्र नहीं है। शायर इकबाल ने तो ऐसे सूफियों को ‘इस्लाम के पतन के दौर की उपज’ बताया था। इस से भी समझें कि दूसरे प्रकार के, यानी जिहादी सूफी क्या होते थे! सूफियों के उलेमा से जो वैचारिक मतभेद रहे हों, शरीयत को सर्वोच्च मानने और हिन्दुओं को नीच समझने में वे प्रायः एक रहे हैं।

आखिर क्या कारण है कि किसी सूफी ने हिन्दुओं पर जजिया-टैक्स लगाने का विरोध नहीं किया था? किसी सूफी ने सल्तनत के सुलतानों और मुगल बादशाहों को हिन्दू मंदिर तोड़ने से मना नहीं किया था। महमूद गजनवी से लेकर औरंगजेब तक, सदियों में, किसी सूफी का जिक्र नहीं मिलता जिस ने हिन्दुओं पर उन की क्रूरता का विरोध किया हो। उलटे, कई सूफियों ने विदेशी मुस्लिमों को भारत पर हमले का न्योता दिया। यह सूफी शाह वलीउल्ला ही थे जिन्होंने अफगानिस्तान के अहमद शाह अब्दाली को मराठाओं पर हमला करने के लिए बुलाया था, ताकि यहाँ फिर इस्लामी राज स्थापित हो! यही पानीपत की तीसरी लड़ाई थी।

इस्लामी आक्रांताओं को न्योतने की सूफी परंपरा यहाँ बीसवीं सदी तक चलती रही है। उन्हीं वलीउल्ला के पोते शाह इस्माइल और उन के संगी सैयद अहमद बरेलवी ने सिखों के खिलाफ जिहाद करने के लिए पख्तून सरदार अखुंद गफूर और दोस्त मुहम्मद खान को बुलाया था। गफूर खुद सूफी माना जाता था। बीसवीं सदी में भी कुछ सूफियों ने अफगानों को भारत पर हमले के लिए बुलाया था, जिस की एनी बेसेंट, रवीन्द्रनाथ टैगोर, आदि ने भर्त्सना की थी।

क्या सूफी राजनीति की वह अदाएं आज खत्म हो गई है, या उस ने केवल भेष बदला है? ‘वर्ल्ड सूफी फोरम’ के आयोजकों से और उन पर मेहरबान नेताओं से यह प्रश्न जरूर पूछा जाना चाहिए था। यदि नहीं पूछा गया, तो कम से कम अब आँख खुलनी चाहिए, जब उनकी माँगें सामने आ गई हैं। उस में कहीं आतंकवादी मानसिकता, उस की मानसिकता से लड़ने की बात नहीं है। उन की सारी माँग वही है, जो सारे मुसलमान नेता करते रहते हैं। कि मुसलमानों को और सरकारी पद, कुर्सियाँ, धन और जमीनें, किले दो। ताकि उस के बल पर वे इस्लामी दबदबा और बढ़ा सकें, हिन्दू नेताओं, दलों को कोस सकें, उन्हें धमका कर जब-तब कुछ न कुछ और हासिल करें। और फिर वही करते रहें। इस तरह हिन्दू या सेक्यूलर भारत के अंदर अधिक से अधिक इस्लामी इलाके, संस्थान बनाते रहें। जितने संभव हों, उतने beachhead। मगर किस हिन्दू नेता को यह जानने, समझने की फिक्र है? सभी ‘विकास’ मंत्र रट रहे हैं। उसी नाम पर हरेक को संसद, विधान सभा या नगर निगम में सीट चाहिए। उस के बाद मंत्री पद। नहीं तो वे रुठे, बैठे रहेंगे। इस बीत असहिष्णुता, जेएनयू, सूफी लामबंदी, आदि चलती रहेगी…

 

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  1. विद्वान लेखक द्वारा जो बिंदु उठाये गए हैं वो सारवान हैं! लेकिन एक राजनितिक पहलु भी है! भारत में मुस्लमान आज दिग्भ्रमित हैं! चारों और मुस्लिम जगत में हिंसा और मारकाट को देखकर यहाँ का मुस्लमान भी सोच रहा है कि किधर जाये!मुस्लिम वोट बैंक के ठेकेदार धीरे धीरे ख़त्म हो रहे हैं! लेकिन अभी भी मुस्लमान का मानस भाजपा के पक्ष में नहीं बन रहा है! ऐसे में भाजपा नेतृत्व के लिए सबसे अहम यह है कि मुस्लिम समाज के एक धड़े को किसी भी प्रयास से अपने साथ लाये! यह सूफी सम्मलेन भी उसी दिशा में एक प्रयास कहा जा सकता है! जो विशुद्ध रूप से राजनितिक कदम था! बस! और कुछ नहीं! अधिक अर्थ न तलाशें!

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