डॉ. मधुसूदन
प्रवेश:
२०१७ की वेदान्त कॉंग्रेस Vedanta Congress of 2017 -August 10 to 13
२०१७ की वेदान्त कॉंग्रेस (अगस्त १० से १३ ) मॅसॅच्युसेट्ट्स विश्वविद्यालय डार्टमथ में सम्पन्न हुयी।
लेखक ने *राष्ट्रीय एकता में संस्कृत पारिभाषिक शब्दावली का योगदान* इस विषय पर प्रस्तुति की थी। पर अलग अलग वैयक्तिक वार्तालाप में अनेक हिन्दी से सम्बधित प्रश्न भी पूछे गए थे।
अनेक विषय अंग्रेज़ी में हुए। पर कुछ प्रस्तुतियाँ संस्कृत और हिन्दी में भी हुई।
कुछ प्रश्नों के उत्तरों में आपको पुनरावृत्ति अनुभव हो सकती है। यह प्रश्नोत्तरी की विधा के कारण होता है।
(एक) प्रवेश:
लेखक ने आलेख प्रश्नोत्तरी के रूप में प्रस्तुत किया है। काफी प्रश्न अनुभवी प्रतिनिधियों के थे। कुछ प्रश्न युवाओं की ओरसे पूछे गए थे। एक दिल्ली विश्वविद्यालयीन छात्रा ने, संक्षिप्त साक्षात्कार भी मुद्रित किया। जिसमें कुछ नवीन शब्द रचना के उदाहरण दिए हैं। कुछ युवा दिल्ली विश्वविद्यालय से आए थे, और कुछ जे एन यु से भी आए थे। कुछ प्रश्न श्रोताओं के भी हैं। अलग अलग अभ्यागतों के प्रश्न, एक ही आलेख में प्रस्तुत किए हैं। कुछ काल्पनिक प्रश्न समीचीन प्रस्तुति के लिए लेखक ने डाले हैं।
एक संध्या पर अल्पाहार के लिए घर आए हुए युवाओं की ओर से मुझ गुजराती की हिन्दी पर और विशेष मुझे अंतर -राष्ट्रीय हिन्दी समिति का *हिन्दी रत्न * सम्मान मिलने पर बडा आदर व्यक्त किया गया। अलग अलग प्रसंगोपर पूछे गए प्रश्नों को किस अनुक्रम से प्रस्तुत करें? मुझे जैसे तर्कसंगत लगा वैसे प्रस्तुति की है।
अंग्रेज़ी में प्रस्तुति का अनुरोध:
प्रश्न(१): आप अपना विषय अंग्रेज़ी में क्यों नहीं रखते?
उत्तर(१):
संस्कृत की अतुल्य शब्द रचना सामर्थ्य को अंग्रेज़ी में समझाने का अनुरोध बार बार हुआ करता है।
अनुरोधकों की शुभेच्छा होती है। वे चाहते हैं, कि, हमारी इस विश्वश्रेष्ठ धरोहर का ज्ञान अंग्रेज़ी जाननेवालों को भी पहुँचाया जाए।
कठिनाई यह है; कि संस्कृत शब्दों का सौंदर्य अंग्रेज़ी में समझाना, बगुले को थाली में खीर खिलाने जैसा है। अंग्रेज़ी की उथली थाली में , बगुलेकी की चोंच भी पूरी डूब नहीं पाती ; और फिर उस चोंच में खीर कितनी समाएगी?
दूसरा, अंग्रेज़ी में प्रस्तुति करनेवाले पर्याप्त लेखक हैं। पर मैं मानता हूँ कि, अंग्रेज़ी की मर्यादा है; और उस मर्यादा में संस्कृत का पूरा आयाम प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। पर कुछ लेखक ऐसी मर्यादा में भी, अच्छा काम कर रहे हैं। मैं उसी काम को कर के कोई स्वतंत्र विशेष योगदान नहीं कर सकता।
वैसे उनका पाठक वर्ग भी अलग हैं; जो संस्कृत को अलग स्तरपर जानता हैं।
इस लिए इस लेखक ने हिन्दी में लिखने का निर्णय जान -बूझकर लिया है।
हिन्दी में लिखनेवाले भी कुछ हैं; पर अंग्रेज़ी माध्यम में अमरिका की एक प्रतिष्ठित युनिवर्सीटी में, अभियांन्त्रिकी पढाकर *संस्कृत शब्द रचना * के अध्ययन का विषय प्रस्तुत करनेवाला एकमेव अभियन्ता ऐसा मेरा परिचय अनेक प्रस्तुतियों के अवसर पर दिया जाता है। मुझे हर्ष है, कि, मैं कुछ मात्रा में देववाणी का तुच्छ सेवक बननेकी चेष्टा कर सकता हूँ।
और इस लिए मुझे लगता है; कि, मैं हिन्दी में ही प्रस्तुति करता रहूँ; इसी से देववाणी का यह सेवक अपने आप को कृतकृत्य अनुभव कर सकता है।
प्रश्न (२)आपने अंग्रेज़ी माध्यम में अमरिका के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में अभियान्त्रिकी पढाई, आपकी मातृभाषा गुजराती है; तोआप हिन्दी का पुरस्कार भी करते हैं? क्यों?
उत्तर (२) :
मैं मानता हूँ; कि, राष्ट्रीय समस्याएँ राष्ट्रीय वृत्तिसे सुलझानी चाहिए। प्रादेशिक निष्ठावालें लोग इस में सहायक नहीं होंगे। उन्हों ने ऐसे आयोगों से दूर रहना चाहिए। जब प्रादेशिक निष्ठावाले लोग राष्ट्रीय समस्या सुलझाते हैं, तो समस्या का समाधान नहीं निकलता। समस्या के हल की जिस बालटी को उठाना होता है; प्रादेशिक निष्ठावाले लोग उस बालटी में पैर गाडकर बैठ जाते हैं। बालटी भारी हो जाती है; और समस्या हल नहीं होती।
या, समस्या के, जिस गोवर्धन पर्बत को उठाना होता है; उसे उठाने में अंगुलि भले लगें, पर पर्बत पर चढकर बैठने से समस्या का भार बढ जाएगा और समस्या नहीं सुलझेगी। ऐसे प्रादेशिक निष्ठा वाले लोग राजनीति से प्रेरित होते हैं। और देश की उन्नति में रोडा अटकाते हैं।
प्रश्न (३) तो हल कैसे निकाला जाए?
उत्तर(३)
जिन लोगों को दिनरात दृष्टि के सामने केवल भारत ही दिखता हो; भारत का हित ही सोचने का अभ्यास हो, राष्ट्रीय निष्ठा हो, ऐसे विद्वानों का आयोग ही वास्तविक हल निकाल सकता है। हमने भाषा के आधार पर निष्ठाएँ जगाई और उसे अधोरेखित कर प्रदेशों की सीमाएँ सुनिश्चित की, परिणाम हमारे सामने हैं।
प्रश्न (४) आपकी मातृभाषा गुजराती है; अंग्रेज़ी माध्यम में पढे और पढाया है; और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का पुरस्कार करते हैं। ऐसा संयोजन कुछ आश्चर्य जगाता है। यह कैसे सम्भव हुआ?
उत्तर (४)मेरा परिवर्तन:
२० वर्ष पहले जो नहीं मानता था, आज मानता हूँ।
भारत की उन्नति के लिए, मैं भी, अंग्रेज़ी को अनिवार्य मानता था, गत १५ -२० वर्षों में धीरे धीरे बदला हूँ।
जैसे जैसे अध्ययन करता रहा; साथ भारत की उन्नति का चिन्तन भी होता ही रहा; और विषय अधिकाधिक उजागर होता गया । हिन्दी से ही भारत शीघ्र उन्नति कर पाएगा। प्रादेशिक भाषाएँ भी होनी चाहिए। अगले प्रश्नों में इस विषय का विस्तार होता रहेगा। हमारे शिक्षा के वर्ष बचते हैं। जापान की भाँति हम भी आगे बढ पाएंगे। क्रान्तिकारी उन्नति होगी। अगले आलेखों की राह देखें।
प्रश्न (५) : गुजराती का पुरसकार क्यों नहीं?
गुजराती का अपना स्थान है; और रहेगा। परिवार में गुजराती ही चलती है। गुजराती में भी कुछ काम किया है। पर भारत की बहुसंख्य प्रजा हिन्दी ही समझती है। राष्ट्रीय वृत्ति के पिता की दूरदर्शिता और समर्पित शिक्षकों की शिक्षा एवं व्यवहार भी इस का प्रबल कारण मानता हूँ। फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का संस्कार भी इसमें जोड दें। मैं बचपन से शाखा में जाने लगा था।
इस लिए मैं जन्म से गुजराती अवश्य हूँ; पर मेरी शालेय पढाई मराठी में हुई ।
आदरणीय मधुसूदन भाई,
सादर प्रणाम । आपकी प्रश्नोत्तरी तथ्यपूर्ण एवं प्रभावी है । सरल भाषा में अत्यन्त सहजता से आपने श्रोताओं और पाठकों द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्नों का उत्तर दिया है । ये उत्तर जन सामान्य की शंकाओं का निवारण करते हैं । साथ ही देववाणी की वैज्ञानिकता के महत्त्व को उजागर करते हुए संस्कृत और हिन्दी के घनिष्ठ
सम्बन्ध पर भी प्रकाश डालते हैं। अंग्रेज़ी में स्पष्टीकरण की वैसी सुविधा संभव नहीं है ।
मैंने आलेख पहले पढ़ लिया था किन्तु कारणवश उत्तर नहीं दे सकी थी । आज पुन: पढ़कर भी प्रसन्नता हुई और अब अपनी प्रतिक्रिया लिख रही हूँ । आपके आगामी आलेखों / प्रश्नोत्तरी की प्रतीक्षा रहेगी । आपकी संस्कृत-साधना
और तज्जन्य वैदुष्य पाठकों और श्रोताओं के लिये अत्यन्त ज्ञानवर्धक तथा उपयोगी सिद्ध हो रहा है और भविष्य में भी
सहायक सिद्ध होता रहेगा – ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है ।
कृपया विलम्ब के लिये क्षमा करें ।
सादर एवं साभार ,
शकुन बहन
प्रश्नोत्तरी के रूप में आलेख वार्तालाप जैसा हो जाता है | विषय को समझने मे आसानी भी होती है और याद भी रहता है | संक्षिप्त प्रश्नो का संक्षिप्त या विस्तार का उत्तर विषय की विविधता को विस्तार दे देता है , वैसे भी यह आलेख विद्यार्थियों के प्रश्न से ही शुरू हुआ है | यह संवाद चलते रहना चाहिए | लेख का आधार सहजता से कठिनाइयों को समझना अति उत्तम है यह अनुभवी आधार पर ही निर्भर है |