अक्षय दुबे ‘साथी’
कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है,साहित्य कालचक्र का साक्षी होता है.समाज में अच्छाइयों की रचना और बुराइयों की भर्त्सना करते हुए एक लोकतांत्रिक समाज को रचता है यही कारण है कि साहित्य अर्थात ‘सबका हित’ की परंपरा के निर्वहन करने वालों अर्थात साहित्यकारों को समाज बड़े सम्मान की दृष्टि से देखता है. भारतीय संस्कृति में साहित्यकारों को ‘ऋषि’ ‘सरस्वतीपुत्र’ जैसे उपमाओं,पदवियों से अलंकृत करते हुए लोग उनकी शुचिता को प्रणाम करते हैं और उनकी बातों,विचारों को आत्मसात करते हैं.
वाल्मीकि,कालिदास मीरा,सूर,तुलसी,रहीम,रसखान की पावन परंपरा और बाबा कबीर के प्रतिरोधों के पद स्वतन्त्र अभिव्यक्ति की भारतीय रिवायत है जिसे आमजनता आज भी सम्मान की दृष्टि से देखती है.क्या कबीर से बढ़कर कोई मुखर साहित्यकार हुआ है जिन्होंने कुरीतियों के खिलाफ मारक शब्दों से खुलकर प्रतिरोध किया हो?और बाबा कबीर के दोहे आज भी जनता को मुह्ज़बानी है क्योंकि उनके प्रतिकार की नियत साफ़ थी कोई सलेक्टिविजम उनके नियत में नहीं था ये उनके विचारों की बानगी में खुलकर सामने आती है. लेकिन वर्त्तमान स्थिति बिल्कुल इसके उलट दिखाई पड़ती है जहाँ सुविधानुसार ‘साहित्य’ को ‘स्वहित’ का जरिया बनाकर ‘रचनाधर्म” नहीं बल्कि ‘विनासकर्म’ किया जा रहा है.
आजकल बौखलाए,घिघियाए,छाती पीटते, सर ठोकते,मातम मनाते हुए कुछ ख़ास वर्ग के ख़ास लोगों को एक नयी बीमारी ने अपने गिरफ्त में ले लिया है….बीमारी है पुरस्कार वापसी का. नयी सरकार के आने के बाद इनकी बीमारी में बढ़ोत्तरी तो लाजिमी थी लेकिन गाहे-ब-गाहे हर कमियों का ठीकरा वर्त्तमान सरकार पर मढ़ने की प्रवृत्ति केवल और केवल बेजा विरोध की नियत को दिखाती है.
‘आ नो भद्रा क्रतवो यन्तु विश्वतः’(विश्व के कोने-कोने से उत्तम विचार हमारी ओर आते रहे) की वैदिक परिपाटी में चलने वाले हम लोगों को विसम्मति का आदर करना भलीभांति आता है, लेकिन निर्माण के बजाय केवल विध्वंस में विश्वास रखने वाले इन खास बुद्धिजीवियों के द्वारा विरोध के दोहरे मापदंड रखने,और विरोध की ज़द में केवल वर्तमान सरकार को घेरने का प्रायोजन साहित्यिक नहीं बल्कि सस्ती लोकप्रियता और अपनी कथित विचारधारा भक्ति समर्पण का कारनामा लगता है जो कांग्रेस सरकार या राष्ट्रवादी विरोधी सरकारों के सौ-सौ खून माफ़ कर उनको पाकसाफ होने का क्लीनचिट देती रही है.और प्रतिरोध के नाम पर पुरस्कार लौटाना तो दूर इसके उलट इस पुरस्कार वापसी की शुरुवात करने वाली लेखिका नैनतारा सहगल 1984 में सिख दंगों के बाद जिन्होंने पुरस्कार लेने में कोई कोताही नहीं बरती.वही आज एक दो घटना (जबकि यह दुखद घटना कांग्रेस और समाजवादी पार्टी शासित राज्यों में हुई है ) के बाद इतनी व्यथित हुईं कि विरोध स्वरूप पुरस्कार लौटाने के लिए बाध्य हो गई.धन्य है इनकी राजनीति जो केवल खास वर्ग की पीड़ा को पीड़ा मानती है और किसी पार्टी विशेष की सरकार को दुश्मन..शायद यही वज़ह है कि भारतीय जनता की सहिष्णुता अब आक्रोश में परिणित हो रही है.
सत्ता के विरुद्ध साहित्य के ज़रिये बिगुल फुकने की संस्कृति बेशक लोकतंत्र में सरकार को बेलगाम होने से रोकती है लेकिन बिलावज़ह विरोध करना देश की प्रगति में बाधक बनती है ऐसे में वे विसम्मति के झंडाबरदार नहीं बल्कि देश के लिए अहितकारी बन जाते हैं.
खैर यह मनोदशा पाठकों से कोशो दूर पूर्ववर्ती सरकारों के आयोजनों में मदिरा के साथ ज़ेहन के भीतर उतरती रही है जो अब नई सरकार के आने के बाद दिवास्वप्न भंग होने से खिसियाहट और झल्लाहट की तरह प्रकट हो रही है….ऐसे बहुतेरे प्रश्न उठ रहे हैं जो इनकी चाल को समझने के लिए काफी हैं..
यह आरोप मैं किसी व्यक्ति विशेष पर नहीं थोप रहा हूँ बल्कि यह आरोप उन मनोदशा वाले विचार समूहों के ऊपर है जिन्हें शाहबानों प्रकरण पर सरकार का कट्टरपंथी ताकतों के आगे समर्पण नहीं दिखाई देता,सिख दंगों के समय की सरकार में जिन्हें सहिष्णुता दिखाई देती है,कश्मीरी पंडितों पर बात भी करना जिन्हें अछूत विषय लगता है,तसलीमा नसरीन को मिलने वाली धमकी के खिलाफ जो कभी इतनी तत्परता नहीं दिखाते उन्हें एकाएक ऐसी कौन सी बीमारी लग जाती है कि सांस लेने में भी तकलीफ होने लगती है जबकि वे जिन घटनाओं का हवाला दे रहे हैं उन राज्यों की सरकार के खिलाफ भी वे कुछ नहीं बोलते,सारा का सारा प्रायोजित दोष प्रधानमंत्री और राष्ट्रवादी विचारधारा वर्ग पर मढ़ने लगते हैं.
सोचने की बात है इतनी संकीर्ण सोच साहित्यकारों की कैसे हो सकती है? इनके क्रियाकलापों से तो यही लगता है कि इनके पास तयशुदा एकसूत्रीय कार्यक्रम है जिसमें सिर्फ और सिर्फ राष्ट्रवादी विचारधारा की बदनामी करना है.
बेशक लोकतंत्र में असहमति,प्रतिरोध के लिए एक बड़ा स्थान होना चाहिए और भारतीय गणतंत्र में यह है भी लेकिन कथित साहित्यकारों का एक झुण्ड पुरस्कार वापसी का स्वांग पेश कर क्यों प्रतिरोध की पवित्रता को कमज़ोर करने में लगा हुआ है?क्यों स्वहित (पुरस्कार वापस कर सस्ती लोकप्रियता) में साहित्य पर सवालिया निशान लगाने पर आमादा हैं?क्या इनके इन कृत्यों की वज़ह से साहित्यकारों की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगेगा? हो सकता है कि इनकी राजनीति तो सध जाए लेकिन देश की राजनीति की बुनियाद को मज़बूत करने की बजाय गफलत फैलाने में लगे हुए इन साहित्यकारों को समयचक्र का साहित्य ज़रूर नकारेगा, न जाने ये सृजनकर्ता कैसा देश बनाना चाहते हैं?
जब ये तमाम सवाल मेरे इर्द-गिर्द कोहराम मचाते हैं तब मुझे यही लगता है कि ये विरोधी सरकार के नहीं हैं…जनता के भी ये विरोधी नहीं हैं बल्कि ये विरोधी हमारी भारतीय सनातन संस्कृति के हैं और सरकार का विरोध इसलिए क्योंकि वह भारतीय संस्कृति की संरक्षक है. और केवल इस वज़ह से उनका निषेध,प्रतिकार के लिए प्रोपेगेंडा करना प्रतिरोध नहीं गद्दारी कहलाएगी..
अन्तोगत्वा आजकल सोशल मीडिया में एक वाक्य ट्रेंड कर रहा है कि ‘काले धन के साथ-साथ काले पुरस्कार भी वापस आ रहे हैं…
अक्षय जी,
आप का आलेख पढ़कर तो लगा कि आप कुशाग्र बुद्धि वाले तो हो किंतु रोग ग्रस्त. आपको लोगों की जानें जाने की ुरवाह नहीं है किंतु पुरस्कार लौटाए जाने का दुख है. सरकार के साथ अंधे दौड़ में आप भी शामिल हो गए. आपका लेख तो पूरी तरह पक्षपाती लगा. कृपया पुनर्विचार करें.
सादर,
अयंगर.