कुतुबमीनार है प्राचीन गरुड़ध्वज या विष्णुध्वज

भारत की राजधानी दिल्ली में दिल्ली की आन , बान और शान के नाम से प्रसिद्ध कुतुबमीनार हिंदू स्थापत्य कला का एक बेजोड़ नमूना है । विश्व इतिहास में स्थापत्य कला का ऐसा कोई अन्य उदाहरण मिलना दुर्लभ है । इस स्तंभ के देखने से पता चलता है कि भारत के आर्यों की वास्तुकला , चित्र कला और स्थापत्य कला कितने उत्कृष्ट स्तर की थी ? भारतीय इतिहास का यह एक दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष है कि इस स्तम्भ को एक मुस्लिम आक्रमणकारी शाहबुद्दीन गोरी के गुलाम रहे कुतुबुद्दीन ऐबक के नाम से बनवाया हुआ लिख दिया गया है । जबकि ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि कुतुबुद्दीन ऐबक ने इस स्तम्भ का निर्माण कराया हो । कुछ मूर्खों ने बिना किसी प्रमाण के और बिना आगा पीछा सोचे यह भी लिख दिया कि कुतुबुद्दीन ऐबक ने इस मीनार का निर्माण 1192 ई0 में बनवाना आरम्भ किया था । जिस किसी ने भी ऐसा लिखा उससे यह पूछा जा सकता है कि 1192 ई0 में कुतुबुद्दीन ऐबक शहाबुद्दीन गोरी का एक गुलाम था , जो 1206 ईस्वी में शहाबुद्दीन गौरी की मृत्यु हो जाने के उपरान्त अपने आपको गुलाम से एक सुल्तान कहने की स्थिति में आया था । तब वह गुलाम रहते हुए ऐसा कैसे कर सकता था कि अपने मालिक के रहते हुए किसी मीनार को अपने नाम से बनवाना आरम्भ कर दे ? वैसे भी शहाबुद्दीन गोरी जैसे क्रूर और अत्याचारी शासक के रहते हुए यह कदापि संभव नहीं था कि उसका गुलाम इतना साहस करे कि वह हिंदुस्तान में कोई स्तम्भ अपने नाम से बनाना आरम्भ कर दे। इसके अतिरिक्त इतिहास का एक सत्य यह भी है कि 1192 ई0 में भारत के सम्राट पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु हो जाने के उपरान्त भी तुर्कों का भारत की राजधानी दिल्ली में कोई वर्चस्व स्थापित नहीं हो पाया था , यहाँ की हिन्दू शक्ति ने उनके पैर टिकने नहीं दिए थे।1206 ईस्वी में जब शाहबुद्दीन गौरी की मृत्यु हुई तो उसके पश्चात भारत के उसके विजित क्षेत्रों का शासक कुतुबुद्दीन ऐबक बना । जिसे पहले 2 वर्ष अपने विरोधियों को परास्त करने में लगे । अपने कुल 4 वर्ष के शासन के अगले 2 वर्ष भी वह शांतिपूर्वक दिल्ली में रहकर अपने विजित क्षेत्रों पर शासन नहीं कर पाया था । 1210 ईस्वी में उसका देहांत हो गया। उसके शासन के अंतिम 2 वर्ष में से उसका अधिकांश समय लाहौर में बीता था और वहीं पर वह पोलो खेलते हुए मृत्यु को प्राप्त हो गया । इन सब तथ्यों की उपेक्षा करके भी भारत के इतिहास में यह लिख दिया गया कि कुतुबुद्दीन ने क़ुतुब मीनार ,कुवैतुल इस्लाम मस्जिद और अजमेर में अढाई दिन का झोपड़ा नामक मस्जिद भी बनवाई थी I जबकि सच यह है कि उसने भारत के महान शासक चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के शासन काल में निर्मित वराह मिहिर नाम के भारत के महान गणितज्ञ , खगोलविद और नक्षत्रों के विशेष ज्ञाता की इस वेधशाला के पास स्थित 27 मंदिरों का विध्वंस कराया था । उसने अपने द्वारा ऐसी ही एक अन्य मीनार बनाने का प्रयास किया था , जिसके ध्वंसावशेष आज भी वहाँ पड़े हुए हैं।वर्ष 1974 में ‘वराह मिहिर स्मृति ग्रंथ’ के संपादक श्री केदारनाथ प्रभाकर ने इस स्तम्भ के बारे में विशेष तथ्यों की जानकारी दी। उन्होंने बताया कि इस स्तम्भ का निर्माण मेरु पर्वत की आकृति के आधार पर किया गया है। जिस प्रकार मेरु पर्वत का स्वरूप ऊपर की तरफ पतला होता गया है , उसी प्रकार इस स्तम्भ का भी स्वरूप ऊपर जाकर पतला होता जाता है। उन्होंने बताया कि मेरु पर्वत का व्यास 16000 योजन है तो इस वेधशाला के निर्माण करने वाले ने इसको 16 गज व्यास के आधार पर निर्माण कराया अर्थात एक हजार योजन बराबर 1 गज माना गया। सम्राट चंद्रगुप्त के नौ रत्नों में से एक थे महान गणितज्ञ वराह मिहिर । जिनकी यह अनुपम कृति उनकी यशोगाथा को बताने के लिए पर्याप्त है।अब से लगभग 5 वर्ष पूर्व लेखक और अखिल भारत हिंदू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष पंडित बाबा नंद किशोर मिश्र भारतवर्ष के एक महान इतिहासकार प्रोफेसर राजेंद्र सिंह से उनके निवास स्थान फरीदाबाद (हरियाणा ) में मिलने गए थे। तब उनसे हमारी इस मीनार के बारे में विशेष बातचीत हुई थी। तब उन्होंने इस बात की पुष्टि की थी कि वास्तव में इस मीनार का निर्माण चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के शासनकाल में वराह मिहिर नाम के गणितज्ञ द्वारा किया गया था । उन्होंने बताया था कि यह 27 नक्षत्रों के आधार पर बनाई गई वेधशाला थी । जिसका विशेष महत्व था । भारत में मानसून कैसा रहेगा और फसल कैसी हो सकती है ? इत्यादि महत्वपूर्ण तथ्यों की जानकारी हमारा वह गणितज्ञ और खगोलविद इस वेधशाला में बैठकर अपने प्रयोगों व परीक्षणों के माध्यम से किया करता था । उनका यह भी कहना था कि यहीं पर मिहिरावली नाम का शहर उसी वराह मिहिर के नाम से बसाया गया था जो आज मेहरौली के नाम से पुकारा जाता है । प्रोफेसर सिंह ने हमें यह भी बताया था कि वराह मिहिर कश्मीर के बारामूला के रहने वाले थे । बारामूला अर्थात वराह मूल उन्हीं के नाम से विख्यात था।27 नक्षत्रों का ज्ञान संसार को केवल भारत ने ही दिया है । उस समय तक संसार के अधिकांश देशों के लोग यह नहीं जानते थे कि 27 नक्षत्रों का रहस्य क्या है और भारत के ज्योतिष के आधार पर इन 27 नक्षत्रों की उपयोगिता क्या है ? भारत ने अपने ज्ञान विज्ञान के आधार पर कृषि के लिए मानसून की गति जानने और अपने किसानों को समय पर मानसून की सही सूचना देने के लिए इस स्तम्भ का निर्माण चंद्रगुप्त विक्रमादित्य जैसे जनहितैषी शासक के शासनकाल में कराया।इसके उपरांत भी कुछ मूर्खों ने इस वेधशाला के निर्माण का श्रेय कुतुबुद्दीन ऐबक को दे दिया है। जिसने इस मीनार का केवल नामकरण अपने नाम से करा दिया था । क्योंकि कुतुब उसकी भाषा में वेधशाला को ही कहते हैं और मीनार स्तम्भ का पर्यायवाची है । इस प्रकार उसने भारत के इस वेधशाला सम्बन्धी स्तम्भ को कुतुबमीनार के नाम से अपने नाम करके ही अपनी कमर स्वयं थपथपा ली थी।हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इस स्तम्भ के पास बने 27 मंदिर 27 नक्षत्रों से संबंधित थे। उनका विशेष महत्व था । जिनमें अलग-अलग नक्षत्रों के नाम से निर्मित मंदिर में बैठकर वराह मिहिर अपने शोध कार्य को पूर्ण करते थे । कहने का अभिप्राय है कि जिस दिन जिस नक्षत्र की स्थिति होती थी उस दिन उसी नक्षत्र के नाम से बने मंदिर में बैठकर वराह मिहिर अपने वैज्ञानिक निष्कर्ष निकाला करते थे। उनके निष्कर्षों से सम्राट को अवगत कराकर जनहित में उनकी सूचना लोगों तक पहुंचाई जाती थी। प्रचलित इतिहास में कहीं-कहीं यह तथ्य भी आता है कि कुतुबुद्दीन ने उन 27 मंदिरों को गिराकर उनके मलबे से यह मीनार बनवाई थी । जबकि यह तथ्य निरी मूर्खता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है , क्योंकि किसी भी मंदिर या भवन के मलबे से भराव तो हो सकता है लेकिन उससे कोई नई इमारत या भवन तैयार हो जाए यह संभव नहीं है।हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इस वेधशाला की कुल सात मंजिलें थीं । हम सभी यह जानते हैं कि सात भुवनों , सात लोकों , सात द्वीपों , सात पर्वतों , सात ऋषियों , सात नदियों अर्थात सप्तसैंधव आदि की परम्परा केवल भारत में ही है । जिनका अपने-अपने स्थान पर विशेष महत्व है। अतः स्पष्ट हो जाता है कि इससे स्तंभ की 7 मंजिलों के बनाने का भी विशेष रहस्य था। जिसकी सातवीं मंजिल पर विष्णु जी की प्रतिमा लगाई गई थी , जो इस बात का प्रतीक थी कि इस चराचर जगत की संचालक व नियामक शक्ति सबसे अलग , सबसे ऊपर रहकर भी सबमें व्याप्त है। वहीं इसका प्राण है और अपनी प्राण शक्ति से इसका संचालन करने में समर्थ है। सातवें आसमान के ऊपर खुदा को बैठाने की इस्लाम की परम्परा भारत के इसी चिंतन की नकल है । क्योंकि वह 7 लोकों के रहस्य को समझ नहीं पाया। वास्तव में यह सात मंजिलें हमारे शरीर में स्थित सात चक्रों का भी प्रतीक हैं । हमारा ईश्वर एक देशीय नहीं है , वह तो सर्वनियंता , सर्वव्यापक, सर्वांतर्यामी और सर्वाधार है। वह दूर रहकर भी निकट है और इस समस्त चराचर जगत की प्राण शक्ति के रूप में कार्य कर रहा है।वर्तमान में जो कुतुबमीनार में दिखाई देती है उसमें विज्ञान के शोध करने के लिए बनाए गए वे सारे 27 मंदिर इस समय जीर्ण शीर्ण अवस्था में पड़े हुए हैं , जिन्हें पहचाना भी नहीं जा सकता । इसके अतिरिक्त कोई भी ऐसी व्यवस्था वहां पर नहीं है जिससे इस वेधशाला का उपयोग वर्तमान समय में विज्ञान की खोजों के लिए किया जा सके। जबकि होना यही चाहिए था कि वर्तमान में भी सरकार वेधशाला की उपयोगिता को सिद्ध करने के लिए यहां पर वे सभी सुविधाएं उपलब्ध कराती जैसे कृषि संबंधी विज्ञान की खोजों को अनवरत किया जा सकता। लेकिन सरकार की ऐसी सोच को इतिहास की और वर्तमान राजनीति की धर्मनिरपेक्षता की सोच खा गई। कितना दुर्भाग्य है इस देश का कि विज्ञान को भी धर्मनिरपेक्षता लील रही है और हम शांत बैठे देख रहे हैं , कुछ भी कर नहीं पा रहे हैं।खगोलशास्त्री वराह मिहिर के द्वारा जिन 27 नक्षत्रों के लिए कलापूर्ण परिपथ का निर्माण करवाया गया था और जिन मंदिरों को उसके द्वारा विशेष रूप से स्थापित कराया गया था उन्हें उनके वास्तविक स्वरूप में ना सही लेकिन दर्शकों को बताने व समझाने के दृष्टिकोण से तो उनकी सही स्थिति इस समय स्थापित की ही जानी चाहिए । जिससे हमारे इतिहास के गौरवपूर्ण पक्ष को वर्तमान युवा पीढ़ी ढंग से समझ सके ।इस स्तंभ की दीवारों पर जिन देवी देवताओं की मूर्तियां स्थापित की गई थीं या चित्रकारी के माध्यम से वेदों की ऋचाओं का उत्कीर्णन किया गया था , उन सब पर भी इस समय विशेष अनुसंधान व शोध करने की आवश्यकता है।वराह मिहिर के द्वारा इस स्तम्भ का नाम विष्णु ध्वज /विष्णु स्तम्भ या ध्रुव स्तम्भ दिया गया था ।कुतुब मीनार के स्थान पर आज फिर इसका नाम विष्णु ध्वज के नाम से ही रखा जाए । इसी स्तम्भ के परिसर में खड़ा लौह स्तम्भ हमें आज भी इस स्तम्भ के बारे में कुछ महत्वपूर्ण जानकारी देता है , जिस पर ब्रह्मी भाषा का लेख लिखा हुआ है। जिसमें इस स्तम्भ को गरुड़ध्वज कहा गया है । यह लौह स्तम्भ अब से 1600 वर्ष पूर्व लगवाया गया था , परंतु इस पर आज तक जंग नहीं लगी है , जिससे हमारे आर्य राजाओं की वैज्ञानिक सोच का पता चलता है।अब से लगभग10 वर्ष पूर्व लेखक अपने परिजनों के साथ इस ऐतिहासिक स्थल को देखने के लिए गया था । तब लेखक अपने ज्येष्ठ भ्राता श्री श्रद्धेय देवेंद्र सिंह आर्य जी के साथ विध्वंसित मंदिरों के अवशेषों का बारीकी से निरीक्षण कर रहा था । एक स्थल पर हम दोनों भाई आश्चर्यचकित रह गए जहाँ एक थमला पर हनुमान जी का वह चित्र लगा हुआ था, जिसमें वह संजीवनी बूटी लेकर उड़े चले जा रहे थे। हम दोनों भाइयों को यह निश्चय हो गया था कि कुतुबुद्दीन के द्वारा यदि इस स्तंभ का निर्माण कराया जाता तो यहाँ पर हिन्दू महापुरुषों के इस प्रकार के चित्रों की चित्रकारी नहीं कराई जाती । इसी प्रकार के कई अन्य चित्र भी हमने वहाँ पर देखे थे , जिनसे यह स्पष्ट होता था कि यह सारे चित्र हिन्दू देवी देवताओं या महापुरुषों के हैं।अब हम ‘राष्ट्रीय इतिहास पुनर्लेखन समिति’ की ओर से भारत सरकार से यह मांग करते हैं कि इस ऐतिहासिक स्थल का नाम जहाँ विष्णु ध्वज रखा जाए वहीं यहाँ पर वराह मिहिर की आदमकद प्रतिमा भी स्थापित कराई जाए और उसके द्वारा स्थापित किए गए 27 नक्षत्रों को दिखाने वाले मंदिरों का भी उद्धार कराकर इसके पुराने वैभव को लौटाने की दिशा में भी ठोस कदम उठाया जाए । इसके अतिरिक्त हम भारत सरकार से यह भी मांग करते हैं कि यहां पर सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के द्वारा स्थापित किए गए अपने विशाल साम्राज्य का एक मानचित्र भी स्थापित कराया जाए जिसके नीचे उसका संक्षिप्त इतिहास भी दिया जाए । विष्णु ध्वज की स्थापना का काल , उद्देश्य और महत्व पर भी प्रकाश डालने वाला लेखन यहाँ पर किया जाना अपेक्षित है । जिससे कि हम अपने गौरवमयी इतिहास को समझ सकें।
डॉ राकेश कुमार आर्य

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