राम और रामराज्य

(रामनवमीं पर विशेष)
वीरेन्द्र सिंह परिहार
प्रभु जानीं कैकेयी लजानी।
प्रथम तासु गृह गये भवानी।।
गांधीजी कहते थे- ‘‘अपराधी से नहीं अपराध से घृणा होनी चाहिये।’’ कितना भी बड़ा अपराध क्यों न हो, उसे एहसास करनें वाला, लज्जित होने वाला अपराध का परिमार्जन कर देता है। निश्चित रूप से अपराधबोध से ग्रस्तव्यक्ति का व्यक्तित्व भी विभाजित होगा और ऐसे व्यक्ति एक आदर्श समाज बनाने मे सहायक नहीं हो सकते। श्री राम को यह बात अच्छी तरह पता है। यद्यपि सत्ता के लिये निकटतम सम्बंधियों की हत्याओं से इतिहास भरा पड़ा है। मुस्लिमों की परम्पराओं पर इस सम्बंध में अलग से कुछ कहने  की जरूरत नहीं है। वहीं सिंहासन की जगह वनवास दिलाने वाली कैकेयी को श्री राम लज्जित समझकर सबसे पहले उसी से मिलकर उसे अपराध बोध से मुक्त कराते हैं। इस तरह से श्रीराम जैसे उदात्त दृष्टि वाले शासक अथवा अग्रणी व्यक्ति होंगे, तभी इस धरती पर रामराज्य संभव है।
श्रीराम का युवराज पद पर अभिषेक होने वाला है, लेकिन इससे श्रीराम को काई प्रसन्नता नहीं है। तुरन्त ही उन्हें राजगद्दी के बजाय 14 साल के लिये वन जाने का आदेश होता है। इस पर उन्हें कोई सन्ताप या पीड़ा भी नहीं होती। दोनों ही स्थितियों को वह सहज भाव से लेते हैं। यह इस बात का प्रतीक है कि जहां जीवन में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा महत्वपूर्ण न होकर समाज कल्याण ही एक मात्र साक्ष्य है, वहां किसी भी परिस्थिति में व्यक्ति अपना सन्तुलन नहीं खोता, वह धीर भाव से अपने कर्त्तव्य पथ पर अगसर रहता है। कितनी भी विपरीत परिस्थिति आये, वह दैन्य अथवा पलायन के रास्ते पर नहीं जाता। कहने का आषययह है कि जहां ऐसे शासक और नागरिक होंगे, वहीं रामराज्य की सम्भावनायें हो सकती हैं। वैसे भी इतिहास इस बात का गवाह है कि जो समाज या राष्ट्र भयावह विपरीत परिस्थितियों में विचलित नहीं हुये और  वही आदर्श परिवार बन सकता है।
राक्षसों की धारा भययुक्त समाज बनाने की धारा है, श्रीराम उससे कहीं भी समझौता न कर उससे पूरी तरह संघर्ष करते हैं और राजगद्दी पर बैठने पर भयमुक्त समाज के पक्षधर होने के कारण श्रीराम घोषणा करते हैं।
जो अनीति कुछ भाखौ भाई।
तो माहि बरजहुं भय बिसराई।।
क्योंकि श्रीराम को पता है कि निर्भीक जन ही एक आदर्श समाज बनासकते हैं। इसलिये तो गांधीजी कहते थे – ‘‘निर्भीक जनता ही जनतंत्र की मेरूदण्ड है’’।
श्रीराम लंका में राक्षसों का विनास कर अयोध्या आये हैं। बन्दरों और भालुओं को गरू वशिष्ठ से परिचय कराते हुये श्रीराम कहते हैं कि गुरू वशिष्ठ हमारे कुल पूज्य हैं, इन्ही की कृपा से दनुजों को रणभूमि में मार गिराया है। इन्हें! प्रणाम करो। दूसरी तरफ बन्दरों और भालुओं का परिचय गुरू वशिष्ठ से कराते हुये कहते हैं-ये मेरे लिये समररूपी सागर में बेड़े बन गये, मेरे लिये इन्होंने प्राण न्यौछावर कर दिये, इसलिये मुझे ये परम प्रिय भाई भरत से भी अधिक प्रिय हैं। वस्तुतः रामराज्य के लिये मैं कि नहीं, ‘हम’ की दृष्टि महत्वपूर्ण है। किसी कृतित्व का मात्र स्वतः ही श्रेय लेने के बजायआदरणीयों और सहयोगियों को श्रेय तथा महत्व देने की उदार दृष्टि श्रीराम जैसी विकसित हो, तभीराम राज्य आ सकता है। जहां तक गुरू वशिष्ठ की कृपा से राक्षसों के विनाश का प्रश्न है यह कोरा शिष्टाचार नहीं, बल्कि श्रीराम के निर्माण में गुरू वशिष्ठ का जो योगदान है, उसकी स्वीकारोक्ति है।
बहुत से लोग यहां तक कि प्रगतिशील कहे जाने वाले भी अक्सर कह देते हैं कि एक धोबी के कहने से राम ने सीता का त्याग कर दिया, इस सन्दर्भ में महात्मा गांधी का उल्लेख करना आवश्यक होगा। वह कहा करते थे कि छोटे से छोटे, कमजोर से कमजोरव्यक्ति को भी यह अहसास होना चाहिये कि इस देश को बनानें में उसका भी सहयोग है, उसकी भी भागीदारी है, तभी हम कह सकते हैं कि देश में सच्चा लोकतन्त्र है। वस्तुतः उक्त धोबी को गांधी के इस देश में समाज का सबसे छोटा, एकात्म मानववाद के प्रणेता पं. दीनदयाल के शब्दों में समाज के सबसे अन्तिम छोर पर खड़ा व्यक्ति कहा जा सकता है, जिसके उत्थान की चिन्ता सबसे पहले करनी है। निश्चित रूप से श्रीराम जैसे जनतांत्रिक मूल्यों से भरपूर शासक के लिये समाज के इन सबसे छोटे तबके के लोगों की आवाज अथवा यह कहिये कि उनकी भावनाओं के प्रति कितना आदर था । इसे आज के जनतंत्र का ढ़ोल पीटकर अपना उल्लू सीधा करनें वाले नेता देखसकते हैं। तभी तो श्रीराम नें अपनी प्राणप्रिया एक मात्र पत्नीं सीता का त्याग कर दिया। यह सबको पता है कि उस बहुपत्नींत्व के दौर में श्रीराम के जीवन में दूसरी स्त्री नहीं आई, यहां तक कि पंण्डितों द्वारा यह कहने पर कि बिना पत्नीं के यज्ञ का फल नहीं मिलेगा, श्रीराम कहते हैं कि
स्रेह दया च सैख्यम च यदि व जानकीउपि।
आराधनाय लोकस्य मुच्यते नास्ति में ब्यथा।।
ऐसी लोक आराधना की प्रवृत्ति यदि शासक में हो तो यह जनतंत्र की वास्तविक कसौटी है। यज्ञ की औपचारिकता पूरी करने के लिये सोने की सीता बनाई गई। कहने का तात्पर्य यह है कि यह घटना सिद्ध करती है कि राम के मन में कितना प्रेम और आदर सीता के प्रति था। पर सामाजिक मूल्य दिग्भ्रमित न हो, सामान्यजन शासक के कारण गलत आचरण की ओर प्रवृत न हो, जनतंत्र पुष्ट और समुन्नत हो। इसलिये श्रीराम अपनी सहधर्मिणी का त्याग कर एकाकीपन की नियति को स्वीकार करते हैं। रामराज्य के सन्दर्भ में यह कहा गया है कि
नहिं दरिद्र कोउ दुःखी न दीना।
नहिं कोउ अबुध न लच्छनहीना।।
वहां कोई गरीब नहीं है, दीन नहीं है, यानी सब स्वाभिमानी जीवन जीते हैं। दुखी नहीं है, यानी सब अपने अन्तःस्वरूप कों अपने – आपको जानते हैं। वस्तुतः दार्शनिक अर्थों में व्यक्ति के दुख का मूल कारण अपने – आपको जानना है। कोई बुद्धिहीन नहीं है और सब में अपनी-अपनी विषिष्टता है। कुल मिलाकर रामराज्य मे सिर्फ पश्चात्य राष्ट्र की तरह भौतिक प्रगति ही नहीं सांस्कृतिक और आध्यात्मिक प्रगति भी चरम पर दिखती है। तभी तो महात्मा गांधी, जिनके बारे मे महान वैज्ञानिक आईन्सटाइन ने कहा था कि ‘‘आने वाली पीढ़ी में ऐसा नहीं है कि राम राज्य कतई असंभव नहीं, बशर्ते राम जैसे शासक हो।

 

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