जाति तोड़कर फंस गया रे भाया…!

-तारकेश कुमार ओझा-    caste-system-01

कोई यकीन करे या न करे, लेकिन यह सच है कि जाति तोड़ने का दुस्साहस कर मैं विकट दुष्चक्र में फंस चुका हूं। जिससे निकलने का कोई रास्ता मुझे फिलहाल नहीं सूझ रहा। पता नहीं क्यों मुझे यह डर लगातार सता रहा है कि मेरे इस दुस्साहस का बोझ मेरी आने वाली पीढ़ियों को भी ढोने को अभिशप्त होना पड़ सकता है। दरअसल, स्कूली जीवन में जाति तोड़ो आंदोलन की मैंने काफी चर्चा सुनी थी। जयप्रकाश नारायण और चंद्रशेखर जैसे कुछ बगैर जाति सूचक उपनाम वाले नाम मुझे हैरानी में डाल देते थे, क्योंकि उस दौर में उपनाम हीं नहीं बल्कि नाम व उपनाम के आगे जाति का उल्लेख भी धड़ल्ले से होता था। जैसे पंडित फलां शास्त्री या ठाकुर विक्रम सिंह। उस दौर में कुमार नामधारी हस्तियों का जलवा भी अपनी जगह था ही। जैसे दिलीप कुमार, किशोर कुमार व मनोज कुमार आदि। बस इसी से प्रभावित होकर मैने अपने नाम से जातिसूचक उपनाम हटा लिया। लिहाजा शैक्षणिक प्रमाण पत्रों में मेरा नाम उपनाम के बगैर रहा। लेकिन युवावस्था में कदम रखते ही मतदाता सूची में नाम दर्ज कराने के साथ ही परिचय पत्र बनाने की नौबत आई, तो उसमें नाम से पहले उपनाम लिखना जरूरी था। इससे  मेरे नाम के साथ उपनाम अपने-आप जुड़ गया। अपने दायरे में लोग मुझे पूरे नाम से जानते ही थे। लिहाजा मैं एक ऐसे दुष्चक्र में उलझता गया कि नौबत अपने आप से पूछने की आ गई कि मैं आखिर हूं कौन ? चूंकि मेरे नाम के साथ उपनाम नहीं था, लिहाजा अपने बेटे का नामकरण भी मैने बगैर उपनाम के ही करने का फैसला किया। लेकिन  समय के साथ लेन – देन में कठिनाई बढ़ने लगी। कुछ प्रपत्रों में बगैर उपनाम के औऱ कहीं पूरे नाम के साथ नजर आते ही अपने क्षेत्र में सुपरिचित होते हुए भी मैं संदिग्ध होता चला गया। संबंधित अधिकारी मुझे संदेह की नजरों से देखते हुए दो नाम के लिए कुछ इस अंदाज में पूछताछ करने लगते, मानो मैं कोई अपराधी हूं। और अपने नाम के साथ जातिसूचक उपनाम न जोड़ कर मैन कोई बहुत बड़ा गुनाह कर दिया। कई दफ्तरों में मुझसे पूछा गया, आपनार नामेर सोंगे टाइटल नेई केनो, टाइटल छाड़ा आबार नाम होए ना कि ( आपके  नाम के साथ टाइटल क्यों नहीं है, बगैर टाइटल के भी कहीं नाम होता है क्या) शपथ पत्र देते – देते हुए मैं टूट गया, और इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि जाति तोड़ने की कोशिश कर  मैं बुरी तरह से फंस चुका हूं। जल्द ही गलती नहीं सुधारी, तो मेरी बेवकूफी की सजा आने वाली पीढ़ियों को भुगतना पड़ेगा। इसलिए मैंने अपने और बेटे के नाम के साथ उपनाम जोड़ने के लिए दफ्तरों के  चक्कर काटना शुरू किया। यहां तक कि प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट के समक्ष कटघरे में खड़ा हुआ कि नाम के साथ उपनाम न जोड़ कर मुझसे बड़ी गलती हो गई, अब मैं इसे सुधारना चाहता हूं। अदालती मुहर के बावजूद इसके लिए मैं पिछले दो साल से दफ्तरों के चक्कर काट रहा हूं। अपने राज्य के  शिक्षा मंत्री से लेकर  मुख्यमंत्री तक गुहार लगा कर थक गया।  लेकिन आज तक मेरे औऱ बेटे के नाम के साथ पुछल्ला जातिसूचक  उपनाम जोड़ने में सफल नहीं हो पाया हूं। एक बड़े अधिकारी से दोस्ती गांठ कर इतना जान पाया हूं, कि यह कार्य इतना आसान नहीं। बकौल अधिकारी हर महकमा इस बात की जांच करेगा कि आखिर क्यों इतने साल तक बगैर उपनाम के रहने के बाद यह शख्स अब  अपने नाम के साथ इसे जोड़ना चाहता हैं। कहीं इसके पीछे कोई गलत मकसद तो नहीं… बहरहाल अपनी ऐतिहासिक गलती पर सिर धुनते हुए मन बार – बार एक ही बात कहता है… जाति तोड़ कर फंस गया रे भाया… नाम के पीछे से जातिसूचक उपनाम न रखकर मैन अपनों पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं मारी, बल्कि कुल्हाड़ी पर पैर दे मारा था..
Previous articleआखिर क्या है बिहार सरकार की नक्सल-नीति ?
Next articleरोल मॉडल
तारकेश कुमार ओझा
पश्चिम बंगाल के वरिष्ठ हिंदी पत्रकारों में तारकेश कुमार ओझा का जन्म 25.09.1968 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में हुआ था। हालांकि पहले नाना और बाद में पिता की रेलवे की नौकरी के सिलसिले में शुरू से वे पश्चिम बंगाल के खड़गपुर शहर मे स्थायी रूप से बसे रहे। साप्ताहिक संडे मेल समेत अन्य समाचार पत्रों में शौकिया लेखन के बाद 1995 में उन्होंने दैनिक विश्वमित्र से पेशेवर पत्रकारिता की शुरूआत की। कोलकाता से प्रकाशित सांध्य हिंदी दैनिक महानगर तथा जमशदेपुर से प्रकाशित चमकता अाईना व प्रभात खबर को अपनी सेवाएं देने के बाद ओझा पिछले 9 सालों से दैनिक जागरण में उप संपादक के तौर पर कार्य कर रहे हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here