राहुल गांधी डर रहे हैं बंद मुट्ठी खुलने से

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तेजवानी गिरधर

अब तक तो भारत के लोग और यहां का मीडिया ही समझ रहा था कि कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी असमंजस में हैं, मगर अब तो विदेशी मीडिया की राय भी यही बनती जा रही है। लंदन से छपने वाली पत्रिका पर द इकॉनमिस्ट ने एक लेख में राहुल गांधी की शख्सियत पर सवाल उठाते हुए उन्हें कन्फ्यूज्ड और नॉन सीरियस बताया है। द राहुल प्रॉब्लम आर्टिकल में लिखा गया है, राहुल गांधी क्या करने की काबिलियत रखते हैं, यह बात कोई नहीं जानता। यहां तक कि राहुल को खुद नहीं मालूम कि अगर उन्हें पावर और जिम्मेदारियां मिल जाएं, तो वह क्या करेंगे।

असल में यह स्थिति इस कारण बनी है कि वे नेहरू-गांधी परिवार के उत्तराधिकारी हैं, यह तो स्थापित तथ्य है, मगर वे खुद क्या हैं, यह आज तक न तो उजागर हुआ है और न ही खुद उन्होंने उसे उजागर होने दिया है। यानि कि बंद मुट्ठी लाख की, खुल गई तो खाक की वाली मानसिकता से गुजर रहे प्रतीत होते हैं। थोड़ी मु_ी तो उत्तरप्रदेश के चुनाव में भी खुल कर उनके व्यक्तित्व की कमजोरी को उजागर कर चुकी है। अर्थात जिस चमत्कार की उम्मीद कांग्रेसियों को है, वह भी उनमें कम ही नजर आती है। उनकी बॉडी लेंग्वज भी एक ऊर्जावान मगर आत्मविश्वासहीन व अपरिपक्त नेता की चुगली खा रही है। और यही वजह है कि नेहरू-गांधी परिवार के अन्य पूर्ववर्ती सदस्यों की तरह उनमें जादूई व्यक्तित्व नजर नहीं आ रहा। भले ही कांग्रेस के दिग्गज बार-बार राहुल का नाम रटते हों, जो कि स्वाभाविक भी है, क्योंकि कांग्रेस के पास नेहरू-गांधी परिवार का यही एक पत्ता बचा है, मगर खुद राहुल अपनी मांद से बाहर आने में घबरा अथवा झिझक रहे हैं। कांग्रेस के नेता भले ही उनमें भावी प्रधानमंत्री देखते हों, जो कि उनकी मजबूरी है, मगर खुद राहुल ने कभी इसका अहसास नहीं कराया है कि वे इस पद के योग्य भी हैं या नहीं। ज्वलंत राष्ट्रीय मुद्दों पर विरोधी दलों की ओर से उकसाने के बाद भी मुंह नहीं खोलने के कारण यह संशय बना हुआ ही है कि उनके पास खुद की कोई सोच भी है या नहीं।

कांग्रेस ही क्यों विपक्ष भी लगभग यह स्वीकार कर चुका है कि कांग्रेस के प्रधानमंत्री पद के अगले दावेदार वे ही हैं। सोशल मीडिया पर तो तुलना ही उनके व नरेन्द्र मोदी के बीच की जा रही है। अन्ना वादियों ने अब अरविंद केजरीवाल का भी नाम जोड़ दिया है। इन सब के बाद भी वे अगर महत्वपूर्ण जिम्मेदारी लेने में समय लगा रहे हैं तो यही लगता है वे निर्णय नहीं कर पा रहे। जितना उनके निर्णय में देरी हो रही है, उनके प्रति संशय और घनीभूत होता जा रहा है। उनकी चुप्पी के कारण अब न सिर्फ कांग्रेस के भीतर बल्कि देश की आम जनता के बीच राहुल की योग्यता पर सवाल उठने शुरू हो गए हैं। उनके इस रहस्यवादी रवैये के कारण अब यह सवाल भी उठ खड़ा हुआ है कि कहीं यह देरी कांग्रेस के लिए घातक साबित न हो जाए। तभी तो यूपीए के घटक समाजवादी पार्टी के उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कांग्रेस को सलाह दी है कि वह राहुल गांधी को केंद्र सरकार और पार्टी में बड़ा रोल देने में देरी न करे। कांग्रेस को इस मामले को लटकाना नहीं चाहिए। यूपी के असेंबली चुनाव में राहुल की मुहिम फीकी रही थी। क्या वह अच्छे पीएम साबित होंगे, इस सवाल पर अखिलेश ने कहा है कि उन्हें मौका मिलना चाहिए। जितनी जल्दी हो सके, वह बड़ी जिम्मेदारी लें।

बताया जाता है कि राहुल निर्णय करने में इस कारण भी देर कर रहे हैं क्योंकि अगर उन्होंने बड़ी जिम्मेदारी ली तो उन्हें आसन्न गुजरात चुनाव को भी फेस करना होगा। कांग्रेस के अंदरखाने की खबर ये है कि न तो कांग्रेस और न ही राहुल की हिम्मत है कि वे नरेन्द्र मोदी की आंधी से टक्कर लेने को उतरें। वैसे भी वे उत्तरप्रदेश की हार से नहीं उबर पाए हैं। अगर गुजरात में भी खारिज हो गए तो कहीं के नहीं रहेंगे। इस आशय के संकेत पिछले दिनों कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने यह कह कर दिए थे कि सभी राज्यों के चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं। कांग्रेस की राज्य इकाई गुजरात में चुनाव लडऩे में सक्षम है।

राजनीतिक जानकार यह भी मानते हैं कि यूपीए टू की भ्रष्टाचारी छवि कायम होने और मौजूदा यूपीए गठबंधन की हालत को देखते हुए वे हिचक रहे हैं। सत्ता से च्युत होने के कगार पर खड़ी कांग्रेस की ऐसी हालत में नेतृत्व संभालना चुनौतीपूर्ण भी है। राहुल गांधी भले ही यह कह कर कि प्रधानमंत्री बनना ही एक मात्र काम नहीं है, अहम सवाल को टाल रहे हों, मगर साथ यह भी एक खुला सच है कि कांग्रेस की ओर से चाहे- न चाहे उनके कदम धीरे-धीरे प्रधानमंत्री की कुर्सी की ओर धकेले जा रहे हैं। पीछ से पड़ रहे इस धक्के को वे अपने अनुकूल भुना पाते हैं या नहीं, यह भविष्य के गर्भ में छिपा है।

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