राहुल गांधीः तेरी रहबरी का सवाल है

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अपने विवादित बयानों से अलोकप्रिय हो रहे हैं युवराज

-संजय द्विवेदी

अपने बेहद निष्पाप चेहरे और अपने पिता की भुवनमोहिनी छवि के अलावा राहुल गांधी कांग्रेस की एक ऐसी संभावना का नाम है जिसने बहुत कम समय में अपने प्रयासों से देश का ध्यान अपनी ओर खींचा है। अपने बेहद संकोची स्वभाव और सत्ता के प्रति आसक्ति न दिखाकर उन्होंने यह साबित किया कि वे एक अलग माटी के बने हैं। देश को जानने की उनकी ललक, प्रश्नाकुलता, कांग्रेस जैसे जड़ संगठन में युवा कांग्रेस और एनएसयूआई के चुनाव कराने की शुरूआत कर उन्होंने जताया कि उनमें श्रम, रचनाशीलता और इंतजार तीनों है। देश की इसी संभावना के परखच्चे विकिलीक्स उड़ा रहा है। विकिलीक्स की खबरों पर कितना और कैसा भरोसा किया जाए, इस प्रश्न के बावजूद भी राहुल गांधी ने हिंदू आतंकवाद के बारे में जो कुछ कहा है, उससे उनकी बचकानी समझ का पता चलता है। लश्करे तैयबा जैसे संगठनों से हिंदु संगठनों की तुलना एक ऐसा अपराध है, जिसका पता शायद राहुल गांधी को भी न हो। हालांकि वे सिमी और आरएसएस की तुलना भी करते रहे हैं। जाहिर तौर पर राहुल इस तरह के बयानों से अपनी बेहतर संभावनाओं के दरवाजे स्वयं बंद कर रहे हैं।

जिस दौर में विकास की राजनीति और गर्वेंनेस के सवाल सबसे प्रमुख राजनीतिक एजेंडा बन चुके हों, उस समय में एक बार फिर सांप्रदायिक राजनीति की शुरूआत उचित नहीं कही जा सकती। कांग्रेस का सांप्रदायिकता को लेकर ट्रेक बहुत बेहतर नहीं रहा है किंतु राहुल गांधी जैसे नई और ताजी सोच के नेता भी उन्हीं कटघरों में कैद होकर रह जाएं तो यह बात चिंता में डालने वाली है। जिन नरेंद्र मोदी से राहुल गांधी को बहुत परेशानी है वे भी विकास के एजेंडें के सबसे बड़े झंडाबरदार हैं। आतंकवाद एक वैश्विक प्रश्न है और इसके कुप्रभावों को पूरी दुनिया भुगत रही है। जेहादी आतंकवाद का एक वीभत्स चेहरा है जिसे खारिज करने की जरूरत है किंतु क्या राहुल का बयान इसमें हमारी मदद करता है। यह सोचने की जरूरत है। आतंकवाद को आस्था के आधार पर बांटने की कोई भी कोशिश हमें कमजोर ही करेगी, क्योंकि हम आतंकवाद के सबसे बड़े शिकार देश हैं। आतंकवाद की विश्वस्वीकृत परिभाषाओं और उसके पीछे छिपे विचारों को राहुल को पढ़ना चाहिए। आतंकवाद को किस तरह से विचारधाराओं और पंथों का आवरण पहनाकर उसे जस्टीफाई किया जा रहा है उसे भी जानने की जरूरत है। किंतु क्या राहुल के पास इतना इंतजार है कि वे बोलने के पहले संदर्भों को जान भी लें। भारत की राजसत्ता पर राज कर रहे, देश के सबसे बड़े राजनीतिक दल के एक प्रभावी नेता होने के नाते उनके कथनों का अपना महत्व है। जबकि वे भारत के प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल हैं तो उन्हें तो अपने वचनों को लेकर और भी गंभीर रूख अख्तियार करना चाहिए। क्योंकि दिग्विजय सिंह और पी. चिदंबरम के बयानों से तो कांग्रेस अपने को अलग कर सकती है किंतु राहुल गांधी के बयानों से वह खुद को अलग कैसे कर सकती है। राहुल को जानना होगा कि आतंकवाद और सांप्रदायिकता क्या एक ही चीजें हैं। क्या आतंकवाद और सांप्रदायिकता को एक मानकर की गयी किसी टिप्पणी का कोई मायने है। हिंदुत्व के विचार को आतंकी ठहराने की होड़ दरअसल कांग्रेस की उसी वोट बैंक की भूखी मानसिकता की उपज है जिसका वो सालों साल से इस्तेमाल करती आयी है। राहुल अगर देश में नई राजनीति के प्रारंभकर्ता बनना चाहते हैं तो उन्हें इससे बचना होगा। अन्यथा वो भी उन्हीं सामान्य नेताओं की तरह सुर्खियां तो बटोर सकते हैं किंतु उनके पास लंबा रास्ता न होगा। देश के भावी शासक होने के नाते राहुल गांधी को देश के इतिहास, संस्कृति और राजनय की गंभीर समझ विकसित करनी होगी। वरना ये स्थितियां उन्हें उपहास का पात्र ही बनाएंगीं। अगर उनकी यही समझ है कि जेहादी आतंकवादियों से ज्यादा खतरनाक हिंदू संगठन हैं तो इस बात पर कोई भी मुस्कराएगा। जाहिर तौर पर उनका यह बयान उनकी बेहद सामान्य समझ को प्रकट करता है। यह बेहतर है कि वे लिखा हुआ वक्तव्य ही दें। वैसे भी देश के अहम सवालों पर राहुल की प्रतिभा अभी प्रकट नहीं हुयी है।हम देखें तो राहुल गांधी की छवि बनाई ज्यादा जा रही है, उसमें स्वाभाविकता कम है। मनमोहन सिंह जहां भारत में विदेशी निवेश और उदारीकरण के सबसे बड़े झंडाबरदार हैं वहीं राहुल गांधी की छवि ऐसी बनाई जा रही है जैसे उदारीकरण की इस आंधी में वे आदिवासियों और किसानों के सबसे बड़े खैरख्वाह हैं। कांग्रेस में ऐसे विचारधारात्मक द्वंद नयी बात नहीं हैं किंतु यह मामला नीतिगत कम, रणनीतिगत ज्यादा है। आखिर क्या कारण है कि जिस मनमोहन सिंह की अमीर-कारपोरेट-बाजार और अमरीका समर्थक नीतियां जगजाहिर हैं वे ही आलाकमान के पसंदीदा प्रधानमंत्री हैं। और इसके उलट उन्हीं नीतियों और कार्यक्रमों के खिलाफ काम कर राहुल गांधी अपनी छवि चमका रहे हैं। क्या कारण है जब परमाणु करार और परमाणु संयंत्र कंपनियों को राहत देने की बात होती है तो मनमोहन सिंह अपनी जनविरोधी छवि बनने के बावजूद ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे उन्हें फ्री-हैंड दे दिया गया है। ऐसे विवादित विमर्शों से राहुल जी दूर ही रहते हैं। किंतु जब आदिवासियों और किसानों को राहत देने की बात आती है तो सरकार कोई भी धोषणा तब करती है जब राहुल जी प्रधानमंत्री के पास जाकर अपनी मांग प्रस्तुत करते हैं। क्या कांग्रेस की सरकार में गरीबों और आदिवासियों के लिए सिर्फ राहुल जी सोचते हैं ? क्या पूरी सरकार आदिवासियों और दलितों की विरोधी है कि जब तक उसे राहुल जी याद नहीं दिलाते उसे अपने कर्तव्य की याद भी नहीं आती ? ऐसे में यह कहना बहुत मौजूं है कि राहुल गांधी ने अपनी सुविधा के प्रश्न चुने हैं और वे उसी पर बात करते हैं। असुविधा के सारे सवाल सरकार के हिस्से हैं और उसका अपयश भी सरकार के हिस्से। राहुल स्पेक्ट्रम घोटाले, बढ़ती महंगाई, पेट्रोल-डीजल की कीमतों पर कोई बात नहीं करते, वे भोपाल त्रासदी पर कुछ नहीं कहते, वे काश्मीर के सवाल पर खामोश रहते हैं, वे मणिपुर पर खामोश रहे, वे परमाणु करार पर खामोश रहे,वे अपनी सरकार के मंत्रियों के भ्रष्टाचार और राष्ट्रमंडल खेलों में मचे धमाल पर चुप रहते हैं, वे आतंकवाद और नक्सलवाद के सवालों पर अपनी सरकार के नेताओं के द्वंद पर भी खामोशी रखते हैं, यानि यह उनकी सुविधा है कि देश के किस प्रश्न पर अपनी राय रखें। इस सबके बावजूद वे अगर देश के सामने मौजूद कठिन सवालों से बचकर चल रहे हैं तो भी देर सबेर तो इन मुद्दों से उन्हें मुठभेड़ करनी ही होगी। कांग्रेस की सरकार और उसके प्रधानमंत्री आज कई कारणों से अलोकप्रिय हो रहे हैं। कांग्रेस जैसी पार्टी में राहुल गांधी यह कहकर नहीं बच सकते कि ये तो मनमोहन सिंह के कार्यकाल का मामला है। क्योंकि देश के लोग मनमोहन सिंह के नाम पर नहीं गांधी परिवार के उत्तराधिकारियों के नाम पर वोट डालते हैं। ऐसे में सरकार के कामकाज का असर कांग्रेस पर नहीं पड़ेगा, सोचना बेमानी है। किंतु राहुल गांधी ने इन दिनों जैसा रवैया अख्तियार किया है उससे उनके प्रति सहानुभूति और संवेदना रखने वालों की संख्या में कमी आ रही है। क्योंकि कहीं भी वे देश के सवालों पर जन के साथ नहीं दिखते और सांप्रदायिक सवालों को उठाकर अपनी लाइन बड़ी करना चाहते हैं। ऐसे में उस परंपरागत छवि को चोट पहुंच रही है, जिसमें वे बेहद मर्यादित और संयत दिखते हैं। इस प्रसंग पर राहुल गांधी पर यह शेर मौंजू है-

तू इधर-उधर की न बात कर, ये बता कि कारवां क्यों लुटा

मुझे रहबरों से गिला नहीं, तेरी रहबरी का सवाल है।

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  1. इसी कारण से बिहार भी उनके हाँथ से निकल गया और बंगाल का सपना अभी दूर है ……. संजय जी बहुत अच्छा लिखा है आपने

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