राहुल की ताजपोशी और कांग्रेस की बेचैनी

chintan shivir of congressसुरेश हिन्दुस्थानी

देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस में इस समय बेचैनी सा छाई हुई है। इसी बेचैनी के चलते कांग्रेस का केन्द्रीय नेतृत्व अपने राजनीतिक उत्थान के लिए मंथन करता दिखाई दे रहा है। देश के प्रचार तंत्र ने यह साफ संकेत दे दिया है कि राहुल गांधी कांग्रेस प्रमुख की भूमिका में जल्दी ही आ सकते हैं। वैसे तो कांग्रेस को पिछले कई वर्षों से राहुल गांधी और उनके आसपास रहने वाले नेता ही चलाते आ रहे हैं, इसलिए यह कहना कि राहुल को जिम्मेदारी दी जा सकती है, किसी भी प्रकार से न्यायोचित नहीं कही जा सकती, उन्होंने जिम्मेदारी तो पहले ही संभाल ली है। यह बात अलग है कि उनकी सक्रियता कांग्रेस को कोई खास लाभ नहीं पहुंचा सकी। वर्तमान कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का हमेशा ही यह प्रयास रहा है कि राहुल गांधी जल्दी ही मुख्य भूमिका में आएं। इसको लेकर कांग्रेस पार्टी में अंदरुनी तौर पर जबरदस्त तूफान मचा हुआ है। कई राज्यों के वरिष्ठ नेताओं ने अब इस बात के लिए विचार मंथन प्रारंभ कर दिया है कि कांग्रेस का भविष्य क्या है ? इतना ही नहीं कई राज्यों में कांग्रेस के नेता धीरे धीरे पार्टी से ही किनारा करने की मुद्रा में आते जा रहे हैं। एक बार कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने अपना दर्द बयान करते हुए कहा था कि अब कांग्रेस में साठ साल से ऊपर के नेताओं के दिन लद चुके हैं। वास्तव में राहुल की ताजपोशी के बाद लगता है कि कांग्रेस में इसी प्रकार के हालात पैदा हो जाएंगे। एक समय कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी के नजदीक माने जाने वाले छत्तीसगढ़ राज्य में कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी नई पार्टी बनाकर कांग्रेस के बिखराब का संकेत दे दिया है। अभी तो कांग्रेस में बिखराब का खेल प्रारंभ हुआ है, भविष्य में इसकी परिणति क्या होगी। यह आने वाला समय बता देगा।

पिछले दस पन्द्रह वर्षों के कांग्रेस की राजनीति के बारे में अध्ययन किया जाए तो यह बात सही है कि कांग्रेस लगातार सिमटती जा रही है। भारत के कर्नाटक राज्य को छोड़ दिया जाए तो कांग्रेस वर्तमान में केवल छोटे राज्यों में ही सिमट कर रह गई है। देश की राजनीति के मुख्य धुरी माने जाने वाले राज्यों में कांग्रेस आज अपने दम पर खड़ा होने की भी स्थिति में नहीं है। आज हालात यह है कि लोकसभा सीटों के हिसाब से कांग्रेस कई राज्यों में शून्य बनाकर राजनीति कर रही है। इन राज्यों में कांग्रेस छोटे दलों की कृपा पाने की भरपूर चेष्टा कर रही है, लेकिन कांग्रेस की स्थिति को देखते हुए छोटे दल भी उससे किनारा करने लगे हैं। अभी कुछ दिनों पूर्व हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जो हालत हुई, उससे राजनीतिक दलों में यह संकेत गया है कि जिसने कांग्रेस का साथ दिया, वह भी डूब जाएगा। तमिलनाडु में द्रमुक नेता करुणानिधि का क्या हाल हुआ, यह हम सभी के सामने है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी के कांग्रेस प्रमुख बनने के बाद कितना राजनीतिक लाभ दे पाएंगे, यह अभी सवालों घेरे में है। क्योंकि इससे पूर्व भी राहुल गांधी कोई कमाल नहीं कर सके।

वर्तमान में कांग्रेस पार्टी का दुर्भाग्य यही कहा जाएगा कि लम्बे समय से राजनीति कर रही कांग्रेस के पास सोनिया और राहुल के अलावा कोई सर्वमान्य राजनेता नहीं है। सभी अपने आप में पूर्ण नेता हैं। ऐसे में कांग्रेस की एक मात्र उम्मीद के रुप में राहुल गांधी की तरफ ही देखा जा रहा है। यह भी सही है कि सोनिया और राहुल भी वर्तमान में सर्वमान्य की भूमिका में नहीं माने जा सकते, क्योंकि जैसे ही पुराने कांग्रेसी नेताओं को जैसे ही इस बात का पक्का यकीन हो गया कि अब राहुल गांधी ही कांग्रेस के सर्वेसर्वा होंगे, तब से कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं के खेमे के राजनीतिक आकाश में उदासीनता के बादल उमड़ रहे हैं। यह बादल कब अपना बगावती तेवर दिखा देंगे, कहा नहीं जा सकता। कांग्रेस में तो अब यह भी होने लगा है कि पश्चिम बंगाल में पार्टी के विधायकों से नेतृत्व के प्रति वफादारी के शपथ पत्र भी भरवाए जाने लगे हैं। इन सभी बातों से क्या यह संकेत नहीं मिलता कि कांग्रेस वर्तमान में एक डूबता जहाज बन गई है। जिसमें कांग्रेस के खुद के नेता भी सवारी करने से कतराने लगे हैं। कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की निष्ठा पर आज से पूर्व इस प्रकार का अविश्वास कभी नहीं हुआ। कहा जाता है कि कांग्रेस पार्टी में हमेशा ही लोकतंत्र का सम्मान होता है, लेकिन इस प्रकार की शपथ पत्र भरवाए जाने की कार्यशैली कांग्रेस पार्टी के लोकतांत्रिक होने पर गहरा सवाल खड़ा करती हैं।

महाराष्ट्र में कांग्रेस के हालात सामान्य नहीं लग रहे, लम्बे समय से कांग्रेस के प्रति पूरी तरह से निष्ठावान रहे कांग्रेस नेता गुरुदास कामत का राजनीतिक संन्यास के प्रति भले ही कुछ भी कहा जा रहा हो, लेकिन देश में यह संकेत जरूर गया है कि उनका कांग्रेस की वर्तमान कार्यशैली से मोहभंग हो गया है। कांग्रेस नेतृत्व ने उन्हें मनाने का प्रयास कतई नहीं किया। उलटे अपने नेताओं के पार्टी छोडऩे को लकर यही कहा गया है कि यह कदम कांग्रेस के लिए हितकारी ही है। सवाल यह आता है कि नेताओं द्वारा पार्टी छोडऩा किस तरीके से हितकारी है, यह समझ से परे है। कांग्रेस के पतन का एक कारण यह भी माना जा सकता है कि उसकी वर्तमान राजनीति पूरी तरह से तुष्टीकरण की राजनीति पर आधारित है। जिसके तहत कांग्रेस के नेताओं ने देश के बहुसंख्यक समाज का अहित ही किया है। कांग्रेस ने हमेशा ही अल्पसंख्यकों की भावनाओं का ही सम्मान किया है, इसके परिणाम में भले ही अल्पसंख्यकों का भला नहीं हुआ हो, लेकिन देश के बड़े समाज की भावनाएं जरुर आहत हुईं। जिसका खामियाजा कांग्रेस को भुगतना पड़ा। इसके बाद भी कांग्रेस ने अपनी कार्यशैली में कोई खास परिवर्तन नहीं किया। कांग्रेस की राजनीति खुद को खड़ा करने की कभी नहीं रही, इसके विपरीत केन्द्र सरकार को घेरने में अपनी पूरी ताकत लगा दी। इससे केन्द्र सरकार का प्रचार तो होता रहा, लेकिन कांग्रेस सिमटती चली गई।

उत्तरप्रदेश में कांग्रेस के रणनीतिकार के रुप में राजनीति कर रहे प्रशांत किशोर के कदमों की आहट बहुजन समाज पार्टी की तरफ जाती हुई दिखाई दे रही है। प्रशांत किशोर का यहां तक कहना है कि कांग्रेस को उत्तरप्रदेश में तभी राजनीतिक सफलता प्राप्त हो सकती है, जब वह बसपा से विधानसभा चुनावों के लिए राजनीतिक समझौता करे। इसी प्रकार समझा यह भी जा रहा है कि कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर के संकेत पर ही राहुल गांधी को कांग्रेस की कमान सौंपने की पूरी योजना बन चुकी है। उत्तरप्रदेश में कांग्रेस के समक्ष सबसे ज्यादा राजनीतिक संकट यह है कि वह लम्बे समय से राजनीतिक वनवास की मुद्रा में है। वह इस वनवास की दशा से बाहर आने के लिए छटपटा रही है। अंदर की खबर यह भी है कि कांग्रेस इस सत्य को स्वीकार कर चुकी है कि वह अकेले दम पर राजनीतिक सफलता प्राप्त नहीं कर सकती, लेकिन अगर बसपा से समझौता हो जाए तो कांग्रेस को संजीवनी मिल सकती है।

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