रेल किराया वृद्धि पर होती राजनीति?

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निर्मल रानी

संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने वर्ष 2012-13 का रेल बजट पेश कर दिया है। चूंकि केंद्र सरकार गठबंधन दलों की सरकार है तथा रेल मंत्रालय सरकार के एक प्रमुख घटक तृणमूल कांग्रेस के हिस्से में है। और ममता बैनर्जी के पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद उन्हीं की पार्टी के सांसद दिनेश त्रिवेदी को ममता की सलाह पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने रेल मंत्रालय का कार्यभार सौंप रखा है। यूपीए प्रथम में लालू प्रसाद यादव राष्ट्रीय जनता दल के नेता के रूप में बहुचर्चित रेल मंत्री सिर्फ इसलिए साबित हुए थे क्योंकि उन्होंने अपने पूरे कार्यकाल के दौरान एक बार भी रेल किराए में वृद्धि नहीं की। इसके अतिरिक्त उन्होंने रेलवे के अन्य संसाधनों से आय जुटाने का प्रयास किया था। यूपीए 2 में ममता बैनर्जी ने लालू यादव का स्थान लिया। उन्होंने भी लालू यादव की उसी लोकलुभावनी नीति का अनुसरण किया अर्थात रेल भाड़े में कोई वृद्धि नहीं की। परंतु तृणमूल कांगे्रस से ही संबद्ध दिनेश त्रिवेदी ने स्वयं को एक लोकलुभावन नेता के रूप में स्थापित करने के बजाए भारतीय रेल तथा भारतीय रेल व्यवस्था की सेहत का ध्यान रखने को अपना प्रथम कर्तव्य महसूस किया। निश्चित रूप से 9 वर्षों के बाद रेल किराए में हुई मामूली वृद्धि से रेल यात्रियों को अपनी जेबें ज़रूर कुछ हल्की करनी पड़ेंगी। खासतौर पर बेतहाशा मंहगाई के इस दौर में रेल भाड़े में भी वृद्धि हो जाना रेल यात्रियों के लिए और भी तकलीफदेह साबित होगा। परंतु भारतीय रेल व्यवस्था के किसी भी शुभचिंतक को वर्षों के बाद रेल यात्री किराए में हुई वर्तमान वृद्धि पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

हालांकि रेलमंत्री ने रेल किराया वृद्धि में भी रेलयात्रियों को श्रेणी में विभाजित करने की कोशिश की है। जैसे कि निम्र श्रेणी के यात्रियों के लिए 2 पैसे किलोमीटर तक किराए की वृद्धि की गई तो वातानुकूलित डिब्बों के किरायों में दस पैसे प्रति किलोमीटर से लेकर श्रेणी अनुसार 30 पैसे प्रति किलो मीटर तक किराया बढ़ाया गया। रेलवे स्टेशनों पर अपने मित्रों व परिजनों को स्टेशन पर विदा करने के लिए आने वाली फालतू भीड़ को नियंत्रित करने हेतु प्लेटफार्म टिकट का मूल्य भी पांच रूपये कर दिया गया है। इसके अतिरिक्त रेलमंत्री ने देश में 75 नई एक्सप्रेस गाडिय़ों व 21यात्री रेलगाडिय़ों के शुरू किए जाने की घोषणा भी की । 2012-13 में एक लाख नई भर्तियां किए जाने का भी प्रावधान इस बजट में रखा गया है। भारतीय रेल पहली बार अपने पड़ोसी देश नेपाल से भी रेल मार्ग के माध्यम से जुडऩे जा रही है। रेल आधुनिकीकरण के क्षेत्र में देश के तमाम रेलवे स्टेशन को हवाई अड्डे की तर्ज़ पर बनाने,प्रतीक्षा सूची के यात्रियों हेतु वैकल्पिक रेलगाड़ी उपलब्ध कराने,सिग्नल प्रणाली का आधुनिकीकरण करने, यात्री सुरक्षा हेतु नई हेल्पलाइन चलाने,एस एम एस पर आरक्षित टिकट को वैद्य टिकट के बराबर स्वीकार करने,प्रत्येक एक्सप्रेस रेलगाड़ी में विकलांगों हेतु अलग डिब्बा लगाए जाने तथा प्रत्येक वर्ष 10 खिलाडिय़ों को खेल रत्न से सम्मानित किए जाने जैसे और भी कई प्रस्ताव ऐसे हैं जो रेलयात्रियों की सुविधा के लिए तो ज़रूरी हैं ही साथ-साथ विभाग भी इन उपायों से स्वयं को विश्वस्तरीय रेल विभाग के रूप में स्थापित कर सकेगा।

इन सबके अतिरिक्त सबसे बड़ी बात तो यह है कि रेलमंत्री ने रेल व रेल यात्रियों की सुरक्षा हेतु काफी गंभीर व कारगर उपायों की भी घोषणा की है। इस सिलसिले में एक उच्चस्तरीय रेल सेफ्टी अथॉरिटी बनाने का सुझाव दिया गया है। जबकि पांच वर्षो के भीतर बिना फाटक वाली देश की सभी रेलवे क्रासिंग को समाप्त कर रेल फाटक की व्यवस्था किए जाने का प्रस्ताव है। अकेले इन सुरक्षा सुविधाओं पर 1102 करोड़ रुपये ख़र्च किया जाना प्रस्तावित है। प्रश्र यह है कि आखिर आधुनिकीकरण,सुविधा या सुरक्षा तथा तीव्र गति आदि सुनिश्चित करने का दबाव सहन करने वाला रेल विभाग बिना किराया वृद्धि के किस प्रकार और कब तक राष्ट्र के जीवनरेखा रूपी देश के इस सबसे विशाल तंत्र को संचालित करता रह सकता है़? यहां यह याद दिलाने की ज़रूरत नहीं है कि गत् आठ वर्षों में डीज़ल के मूल्य किस कद्र बढ़ गए हैं? कोयला जोकि अभी भी हमारे देश के विद्युत उत्पादन का प्रमुख स्त्रोत है कितना मंहगा हो चुका है? लोहे का मूल्य गत् आठ वर्षों में किस कद्र बढ़ गया है। और तो और रेल कर्मचारियों की अपनी तनख्वाहें भी इन आठ वर्षों में कहां पहुंच चुकी हैं? परंतु अब तक देश में यदि कुछ मंहगा नहीं हुआ था तो वह था मात्र रेल किराया। और इस किराया न बढ़ाए जाने जैसी लोकलुभावनी रणनीति के जनक बने थे लालू प्रसाद यादव।

सवाल यह है कि क्या देश, देश की सरकार तथा देश के रेलवे जैसे जि़म्मेदार विभागों को केवल लोकलुभवनी रणनीति के द्वारा ही संचालित किया जा सकता है या फिर जनता को ईमानदारी के साथ वस्तु स्थिति से अवगत कराने की कभी ज़रूरत भी महसूस की जाएगी। रेल किराए में हुई मामूली वृद्धि को लेकर हो रही राजनीति की सारी हदें तो उस समय पार हो गर्इं जबकि स्वयं ममता बैनर्जी ने ही अपनी पार्टी के सदस्य दिनेश त्रिवेदी को रेल मंत्रालय छोडऩे का निर्देश जारी कर दिया। तथा उनके स्थान पर मुकुल राय को नया रेलमंत्री बनाए जाने का सुझाव प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को दे डाला। गोया रेल मंत्री को रेल विभाग के वास्तविक हालात से निपटने की सज़ा के रूप में उन्हें मंत्रीपद त्यागना पड़ा। ममता बैनर्जी अपने इस निर्देश से आम लोगों में निश्चित रूप से यही संदेश भेजना भी चाहती हैं कि वे आम जनता की वास्तविक हितैषी हैं। क्योंकि उनकी नज़रें अब 2014 के लोकसभा चुनावों पर लगी हुई हैं। लिहाज़ा पूरे देश के रेल यात्रियों की उनके प्रति हमदर्दी ज़्यादा ज़रूरी है न कि रेल व्यवस्था में सुधार या रेलवे की सेहत का ध्यान रखना। यही हाल रेल बजट के उन सभी आलोचकों विशेषकर विपक्षी दलों का भी है जोकि रेल बजट पर विशेषकर किराया वृद्धि पर शोर-शराबा कर रहे हैं तथा उसे गैरज़रूरी बता रहे हैं। बजट की आड़ में राजनीति करने वालों यहां तक कि स्वयं तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बैनर्जी को भी यह महसूस करना चाहिए कि रेल बजट हो अथवा आम बजट यह सब केंद्र सरकार की ओर से पेश किए जाते हैं। तथा केंद्र सरकार की भावी योजनाओं का एक अहम हिस्सा होते हैं। आम आदमी के हितों से लेकर देश के विकास तक की तमाम बातें इस बजट से जुड़ी होती हैं। ऐसे में पार्टी के चश्मे से रेल बजट को देखना या रेलमंत्री से त्यागपत्र लेकर दूसरा मंत्री नियुक्त करना आदि कतई मुनासिब नहीं है।

एक ओर तो कुछ राजनैतिक दल विशेषकर विपक्षी पार्टियां जहां रेल किराए में बढ़ोतरी की आलोचना कर रही हैं वहीं कुछ रेल विशेषज्ञ ऐसे भी हैं जो रेल किराए में हुई वर्तमान वृद्धि को बहुत कम बता रहे हैं। यह विशेषज्ञ 9 वर्ष पूर्व के बसों के किराए की तुलना मौजूदा किराए से करते हुए यह सवाल उन लोकलुभावनी राजनीति करने के माहिर नेताओं से पूछ रहे हैं कि आखिर राज्य सरकारें या राज्य के विपक्षी दल बस भाड़े में समय-समय पर होने वाली मूल्य वुद्धि को लेकर हाय-वावेला क्यों नहीं करते? कुछ विशेषज्ञ ऐसे भी हैं जोकि किराए भाड़े में हुई वृद्धि का विरोध करने वालों को भारतीय रेल व्यवस्था का विरोधी तथा गैर जि़म्मेदार नेता बता रहे हैं। इन विशेषज्ञों का कहना है कि जब रेलयात्री रेल विभाग से आधुनिकीकरण, सुरक्षा, तीव्रगति,दोहरे व तिहरे रेल ट्रैक, गाडिय़ों की और अधिक संख्या तथा सुरक्षित व आरामदेह सफर जैसी तमाम उम्मीदें रखता है और दूसरी ओर रेल विभाग भी अपनी सामथर््य के अनुसार समय-समय पर इन सभी ज़रूरतों में सुधार व परिवर्तन करता भी रहता है फिर आखिर उसी रेल यात्री को ही यह भी सोचना चाहिए कि इन उपायों के लिए धनराशि कैसे जुटाई जाए? ज़ाहिर है रेल का एकमात्र आय का साधन रेल यात्री किराये तथा मालभाड़ा किराये ही मुख्य हैं।

कुल मिलाकर रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी ने गत् 9 वर्षों से रेल मंत्रियों द्वारा यात्री किराया न बढ़ाए जाने जैसी लोकलुभावनी परंपरा को तोडक़र भारतीय रेल के स्वास्थय के लिए निश्चित रूप से अच्छा कदम ही उठाया है। साथ-साथ उन्होंने जनता से झूठी वाहवाही लूटने की लालू यादव व ममता बैनर्जी जैसे नेताओं की कोशिशों का अनुसरण न करते हुए रेल मंत्री पद की अपनी जि़म्मेदारी का पूरा निर्वहन किया है। और उनकी योग्यता व जि़म्मेदारी की झलक स्वयं उनके रेल बजट भाषण में भी दिखाई देती है जिसमें उन्होंने साफतौर पर यह कहा-‘मैं वही करता रहूंगा जो भारतीय रेल के लिए ज़रूरी है और मैंने वही किया जो कोई भी भारतीय नागरिक रेलमंत्री की हैसियत से करता। मेरे लिए किसी भी चीज़ से पहले देश आता है। पार्टी से भी पहले देश है, परिवार से भी पहले देश आता है। भगतसिंह ने तो देश के लिए अपनी जान तक दे दी थी मेरे सामने तो केवल मंत्री पद ही है।’ और आखिरकार अपने इस भावुक भाषण के साथ-साथ उन्होंने भारतीय रेल की सेहत सुधारने के लिए विपक्षी दलों से भी सहयोग करने की गुज़ारिश की। परंतु विपक्षी दलों के सहयोग की बात ही क्या कहनी यहां तो स्वयं रेलमंत्री की नेता ममता बैनर्जी ही रेल व्यवस्था को सुधारने से अधिक गंभीर इस बात को लेकर दिखाई दे रही हैं कि देश में उन्हें जनता का समर्थन अधिक से अधिक कैसे हासिल हो तथा वे राष्ट्रीय स्तर पर स्वयं को लोकहितकारी नेताओं की श्रेणी में किस प्रकार स्थापित कर सकें। कुल मिलाकर रेल किराया वृद्धि को लेकर संप्रग तथा विपक्षी दलों के भीतर होरही राजनीति भारतीय रेल के विकास के लिए कतई उचित नहीं है।

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