आशुतोष माधव
भीग-भीग कर सड़ता
एक पीला
उदास स्टेशन.
जर्जर सराय सा,
हाँफ-हाँफकर पहुँचते
जाने कितने कलावंत
गर्जन तर्जन लोहित देह;
कुछ श्रीमंत
केवल छूकर कर जाते छि:,
चलन ऐसा
मानो मैनाक को
धन्य कर रहे हों हनुमान.
यह प्रौढ़ा चिर-सधवा
पीली देह उदास
तार तार
उतारती रहती पार-पार
नाविक तरणी पतवार मँझधार
शहरी गँवार कलाकार बाजार
स्वयंसिद्धा.
ओ लाख लाख चौरासी
मैं यूँ तो आश्रित अनाथ
फिर भी लाया गंगाजल
सावन की चषकों में
भर भर कर.
इस उनींदी रात में
झूले काजल मेंहदी पायल
वह साँय साँय वह रुनक झनक
वह जगमग करती जगमग जग
छकछक कर.
दिख रहा अब तारा
भोर का
ओ नवयुग की वासवदत्ते
कोई संन्यासी उपगुप्त नहीं
क्षमायोग्य मैं,
जाना होगा वहाँ
जहाँ मेरी अपनी खोज है.
धन्यवाद मेरे शरण्य
स्टेशन पीले!