वर्षा सिंचित खेती की क्षमताओं का इस्तेमाल करना

-संत बहादुर

भारत में खेती के कुल 1403.00 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में से सिर्फ 608.60 लाख हेक्टेयर क्षेत्र ही सिंचित है तथा शेष 794.40 लाख हेक्टेयर वर्षा सिंचित है। खाद्य उत्पादन का करीब 55 प्रतिशत सिंचित भूमि में होता है. जबकि वर्षा सिंचित भूमि का योगदान करीब 45 प्रतिशत ही है। वर्षा सिंचित खेती में जोखिम की आशंका रहती है। निम्न उत्पादकता और कम आदान इस तरह की खेती की विशेषताएं हैं लेकिन यदि समुचित प्रबंधन किया जाए तो वर्षा सिंचित क्षेत्र में भी कृषि उत्पादन में व्यापक योगदान करने की क्षमता है।

वर्षा सिंचित कृषि की उच्च क्षमता के मद्देनज़र केंद्र सरकार ने वर्षा सिंचित क्षेत्रों के साकल्यवादी और टिकाऊ विकास को उच्च प्राथमिकता दी है। वर्षा सिंचित शुष्क भूमि खेती को प्रोत्साहन देने के लिए, कृषि और ग्रामीण विकास मंत्रालय एकीकृत जलसंभर प्रबंधन दृष्टिकोण के जरिए जलसंभर कार्यक्रम कार्यान्वित कर रहे हैं। कृषि मंत्रालय के सभी अन्य प्रमुख कार्यक्रमों में भी वर्षा सिंचित बारानी क्षेत्रों पर पर्याप्त ध्यान दिया जा रहा है। राज्यों द्वारा प्रस्तावित वार्षिक कार्य योजना के अनुसार जलसंभर दृष्टिकोण पर आधारित वर्षा सिंचित और अवक्रम्य क्षेत्रों के विकास के लिए प्राकृतिक प्रबंधन के कार्यक्रमों के वास्ते कृषि के बृहत प्रबंधन की स्कीम के तहत हर साल 500 करोड़ रूपए आवंटित किए जाते हैं। भू संसाधन विभाग ने जलसंभर प्रबंधन के लिए 11 वीं योजना के वास्ते 15,359 करोड़ रूपए का प्रावधान किया है।

संसाधनों का संरक्षण और सर्वश्रेष्ठ इस्तेमाल

वर्षा जल का संरक्षण और मिट्टी एवं जल संसाधनों का टिकाउ एवं मितव्ययी ढंग से सर्वश्रेष्ठ इस्तेमाल एकीकृत जलसंभर प्रबंधन दृष्टिकोण की महत्त्त्वपूर्ण बाते हैं। वर्षा सिंचित क्षेत्रों के लिए राष्ट्रीय जलसंभर विकास परियोजना 1990-91 में शुरू की गइ थी। इसे 2000-01 से कार्य योजनाओं के जरिए राज्यों के प्रयासों के कृषि अनुपूरणपूरण के बृहत प्रबंधन के साथ शामिल कर ली गई है। इसका विशेष ध्यान प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण, विकास और टिकाउ प्रबंधन, कृषि उत्पादन एवं उत्पादकता में टिकाउ ढंग से वृध्दि, इन क्षेत्रों को हरित बनाने के जरिए अवक्रमित एवं भंगुर वर्षा सिंचित क्षेत्रों में पारितंत्र संतुलन को बहाल करना, सिंचित एवं वर्षा सिंचित क्षेत्रों के बीच क्षेत्रीय विषमता में कमी तथा ग्रामीण आबादी के लिए रोजगार के टिकाऊ अवसरों का सृजन करने पर है।

राष्ट्रीय वर्षा सिंचित क्षेत्र प्राधिकरण देश की बारानी भूमि एवं वर्षा सिंचित कृषि के क्रमबध्द उन्नयन एवं प्रबंधन संबधी अति आवश्यक ज्ञान आदान उपलब्ध कराता है। प्राधिकरण देश के वर्षा सिंचित क्षेत्रों में लागू किए जा रहे कृषि एवं परती भूमि विकास कार्यक्रमों में समन्वय एवं उन्हें आपस में मिलाने का कार्य करता है। इस उद्देश्य के लिए 11 वीं पंच वर्षीय योजना के लिए 123 करोड़ रूपए चिह्नित किए गए हैं।

प्राधिकरण ने संबंधित मंत्रालयोंविभागों और योजना आयोग के सहयोग से अगली पीढी क़े जलसंभर कार्यक्रमों के लिए नया ढांचा तैयार करने के साथ जलसंभर विकास परियोजनाओं के लिए आम दिशा-निर्देश प्रकाशित किए हैं। पहली अप्रैल 2008 से प्रभावी इन दिशा-निर्देर्शों के अनुसार नई जलसंभर परियोजनाएं तैयार की जा रही हैं। प्राधिकरण ने नूतन नीतियों, ज्ञान, प्रौद्योगिकियों और वर्षा सिंचित क्षेत्रों के साकल्यवादी एवं टिकाऊ विकास के अवसरों की संभावना तलाशने के लिए दूरदृष्टि दस्तावेज़ भी तैयार किया है। प्राधिकरण ने वर्षा सिंचित क्षेत्रों के विकास के लिए यथार्थ योजनाएं तैयार करने में राज्यों की मदद करने के लिए विस्तृत प्रारूप भी तैयार किया है। इसने दिशा निर्देशों और यथार्थ योजनाओं की तैयारी को आत्मसात करने के लिए कार्यशालाएं भी आयोजित की हैं। प्राधिकरण ने उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश के बुन्देलखंड क्षेत्र के लिए राहत रणनीति के बारे में व्यापक रिपोर्ट भी तैयार की है।

कृषि मंत्रालय की देखरेख में उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और असम में विश्व बैंक की सहायता से समन्वित जलसंभर प्रबंधन की तीन परियोजनाएं चलाई जा रही हैं। विश्व बैंक इन परियोजनाओं के लिए राज्य सरकारों को सीधे पर धन देता है। उत्तराखंड में 11 जिलों के 468 पंचायतों में 2.34 लाख हेक्टेयर भूमि को इसके दायरे में लिया गया है। फिलहाल 467 चुनिंदा ग्राम पंचायतों में 258.93 करोड़ रुपये के निवेश के साथ कार्य प्रगति पर है। हिमाचल प्रदेश में इस परियोजना में 10 जिले के 602 ग्राम पंचायत शामिल हैं। सभी चुनिंदा जिले में कार्य प्रगति पर है। परियोजना के अधीन असम में 36.129 नलकूप और 11,674 लिफ्ट पंप सेट स्थापित करने के साथ ही 1077 पावर टिलर की आपूर्ति की गई और 700 ट्रेक्टरों का प्रावधान किया गया है। इसके साथ ही 15,908 हेक्टेयर क्षेत्र में जल निकासी की व्यवस्था की गई है।

कर्नाटक, राजस्थान और उत्तराखंड में शीर्ष आधार पर विकेन्द्रित जलसंभर विकास के लिए परियोजना जर्मन टेक्नोलॉजी कोऑपरेशन (जीटीजेड) की सहायता से क्रियान्वित की जा रही है। इसका लक्ष्य क्षेत्रीय और राज्य स्तर पर जलसंभर प्रबंधन के लिए एक क्षमता विकास प्रणाली तेयार करना है। इस परियोजना के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कृषि मंत्रालय, जीटीजेड, आईसीआरआईएसएटी और राष्ट्रीय कृषि विस्तार प्रबंधन संस्थान को मिलाकर एक रा¬ष्ट्रीय संघ गठित किया गया है।

नाबार्ड के जलसंभर विकास को¬ष डब्ल्यूडीएफ) का इस्तेमाल सरकारी, अर्ध्द-सरकारी और गैर-सरकारी संगठन से जुड़े क्षेत्रों में विभिन्न कार्यक्रमों के अधीन एक भिन्न किन्तु सफलतापूर्ण प्रयासों के लिए आवश्यक कार्यक्रम तैयार करने में किया जाता है। प्रारंभ में इस परियोजना के लिए 18 राज्यों का चयन किया गया किन्तु अंतत: केवल 13 राज्य इसके लिए आगे आए व¬र्ष 2006 में आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और महारा¬ट्र के 31 व्यथित जिले को प्रधानमंत्री के पुनर्वास पैकेज के बाद इन सभी जिले में डब्ल्यूडीएफ के माध्यम से भागीदारी आधारित जलसंभर विकास कार्यक्रम लागू करने का निर्णय लिया गया था। फिलहाल, प्रधानमंत्री के पैकेज के अधीन 1196 जलसंभरों का चयन किया गया है, जिनमें से 416 जलसंभर 13 राज्यों के गैर-व्यथित जिले में और 780 जलसंभर 31 व्यथित जिले में हैं।

अनुसंधान और प्रशिक्षण कार्यक्रम

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने भी केन्द्रीय शु¬क भूमि कृषि अनुसंधान संस्थान (सीआरआईडीए) और अखिल भारतीय समन्वित शु¬क भूमि कृषि अनुसंधान परियोजना (एआईसीआरपीडीए) के लिए ग्यारहवीं योजनावधि में 75 करोड़ रुपये आबंटित किए थे। इसने विभिन्न कृ31षि जलवायु क्षेत्रों के लिए शु¬क भूमि में खेती के लिए प्रौद्योगिकी आधारित तौर-तरीके विकसित किए हैं। देश के विभिन्न कृषि-पारिस्थितिकीय क्षेत्रों को शामिल करते हुए 18 प्रारूप जलसंभर परियोजनाएं केन्द्रीय मृदा और जल संरक्षण अनुसंधान और प्रशिक्षण संस्थान (सीएसडब्ल्यूसीआरटीआई) और आईसीआरआईएसएटी को सौंपी गई हैं, ताकि विशेष प्रकार की कृषि-जलवायु संबंधी परिस्थितियों में जैव-भौतिक तथा सामाजिक-आर्थिक आयामों का हल निकल सके और जलसंभर कार्यक्रमों के अधीन विकास प्रक्रिया को अधिकतम स्तर पर लाने के लिए समुचित प्रौद्योगिकी विकसित हो सके। ये परियोजनाएं एनडब्ल्यूडीपीआरए और अन्य रा¬ष्ट्रीय तथा राज्यस्तरीय परियोजनाओं के माध्यम से विस्तृत प्रसार के लिए सफल प्रौद्योगिकियों के प्रत्युत्तर हेतु नमूना परियोजनाओं के रूप में काम करेंगी ।

केवीवाई, एनएफएसएम, रा¬ट्रीय बागवानी मिशन और कृषि का वृहद प्रबंधन जैसी अधिकांश योजनाओं के अधीन इन प्रौद्योगिकियों को अपनाने के लिए किसानों को सहायता दी जाती है। इसके अलावा आईसीएआर के 25 शु¬क भूमि केन्द्रों ने बहुत से किसानों को खेती के प्रयोगों अथवा संसाधनों के रूप मे प्रत्यक्ष तौर पर तथा प्रशिक्षण कार्यक्रमों के माध्यम से अप्रत्यक्ष तौर पर लाभान्वित किया है। शु¬क भूमि से जुड़े किसानों सहित देश के सभी किसान भारतीय रिजर्व बैंक तथा नाबार्ड की नीतियों के अनुसार बैंकों से ऋण प्राप्त करने के लिए पात्र हैं। जलसंभर कार्यक्रमों में प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन सेसंबंधित गतिविधियों के लिए सहायता दी जाती है। इसके अलावा अन्य अधिकांश कृषि विकास कार्यक्रमों में वभिन्न कृषिगत संसाधनोंसंचालनों के लिए राज सहायता के रूप में किसानों को प्रोत्साहन दिया जाता है।

सतही तौर पर कराए गए प्रभाव मूल्यांकन अध्ययनों और दूरसंवेदी प्रौद्योगिकियों ने इस बात का खुलासा किया है कि जलसंभर-आधारित कार्यक्रमों के कारण भूजल संभरण से कुओं और जल निकायों में जलस्तर बढा है तथा फसल की सघनता में वृध्दि हुई है। इसके कारण फसल प्रणाली मे बदलाव होने के चलते अधिक पैदावार तथा मृदा क्षरण में कमी आई है। ग्यारहवीं योजनावधि में लगभग 3,878 लघु जलसंभरों को शामिल करते हुए लगभग 23.4 लाख हेक्टेयर मि को विकसित करने का प्रस्ताव किया गया है। इसमें से दिसम्बर, 2009 तक 638.40 करोड़ रुपये की लागत से 7.96 लाख हेक्टेयर भूमि विकसित की गई है। (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

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