‘‘प्रकृति का प्रतिशोध है या मौत की बारिश’’

hariभगवान भोले नाथ बड़े भोले हैं, लेकिन जब उनका गुस्सा फूटता है तो सर्वनाश होता है। देवभूमि उत्तराखंड में आई भयंकर प्राकृतिक आपदा को इसी गुस्से के प्रतीक रूप में देखने की जरूरत है। यह भूक्षेत्र प्राकृतिक संपदा से भरा पड़ा है। लेकिन जिस प्रकार से उत्तराखंड विकास की अग्रिमपंति में आ खड़ा हुआ था। वह विकास भीतर से कितना खोखला था, यह इस आपदा ने साबित कर दिया। बारिश, बाढ़, भूस्खलन, बर्फ की चट्टानों का टूटना और बादलों का फटना, अनायास या संयोग नहीं है, बल्कि विकास के बहाने पर्यावरण विनाश की जो पृष्ठभूमि रची गई, उसका परिणाम है। तबाही के इस कहर से यह भी साफ हो गया है कि आजादी के 65 साल बाद भी हमारा न तो प्राकृतिक आपदा प्रबंधन प्राधिकरण आपदा से निपटने में सक्षम है और न ही मौसम विभाग आपदा की सटीक भविष्यवाणी करने में समर्थ है। विज्ञान कितना बौना है, यह सबके सामने आ गया। भागीरथी, अलकनंदा और मंदाकिनी का रौद्र रूप देखकर कलेजा बैठ गया। इसका एक ही कारण है विकास की जल्दबाजी में पर्यावरण की अनदेखी करना। ऐसा लगता है उत्तराखंड को किसी की नजर लग गयी। इसकी बेशकीमती भंडार को सत्ताधारियों और उद्योगपतियों की नजर लग गई। उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश से विभाजित होकर 9 नवंबर 2000 को अस्तित्व में आया। 13 जिलों में बटे इस छोटे राज्य की जनसंख्या 1 करोड़ 11 लाख है। 80 प्रतिशत साक्षरता वाला यह प्रांत 53,566 वर्ग किलोमीटर में फैला है। यह भागीरथी, अलगनंदा, सौंग, गंगा और यमुना जैसी बड़ी और पवित्र मानी जाने वाली नदियों का उद्गम स्थल भी है। इसीलिए इसे धर्म-ग्रंथों में देवभूमि कहा गया है। इस देवभूमि पर ही ईश्वर का प्रकोप हुआ। यही तो सोचने वाली बात है। प्राकृतिक संपदाओं से भरपूर यह देवभूमि आज निर्धन हो गयी। सब कुछ तहस नहस हो गया। ऐसा लगता है जैसे देव और राक्षस के युद्ध में दानव विजयी हो गये। उत्तराखंड जब स्वतंत्र राज्य नहीं बना था, तब यहां पेड़ काटने पर प्रतिबंध था। होटलों को नदियों के तटों पर नहीं बनाए जा सकते थे। यहां तक कि निजी आवास भी बनाने पर प्रतिबंध था। लेकिन जैसे ही यह उत्तर प्रदेश से अलग हुआ, केंद्र से इसे बेहिसाब धनराशि मिलना शुरू हो गई। ठेकेदारों ने यहां काम लेना शुरू कर दिया। वे नेताओं और नौकरशाहों का एक मजबूत गठजोड़ बना लिया। इसके बाद शुरू हुआ प्राकृतिक संसाधनों के लूट। ऐसा लूटा की देवभूमि खोखली हो गई। देखते ही देखते भागीरथी और अलकनन्दा के तटों पर बहुमंजिला होटल और आवासीय इमारतों की कतार लग गई।

उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में कुदरत ने जिस तरह का कहर बरसाया है उसे देखते हुए अब उस राज्य के कुमाऊं क्षेत्र पर भी सवाल उठने लगे हैं। कुमाऊंनी शहर नैनीताल में पहाड़ियों को काट कर अंधाधुंध बहुमंजली इमारतें खड़ी की जा रही हैं और शहर के बीचोंबीच बसी नैनी झील पर खतरा मडरा रहा है। लेकिन सरकारी तंत्र लंबी चादर ताने सो रहा है। नवंबर 1841 में एक अंग्रेज पर्यटक बैरन ने नैनी झील की खोज की थी। लेकिन अब झील के जल स्तर में साल दर साल गिरावट आ रही है। इसकी वजहों का पता लगाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए हैं। ब्रिटिश सरकार ने पहाड़ियों और झील की सुरक्षा के लिए नैनीताल में नालों का जाल बिछाया था। इन नालों की लंबाई करीब 53 किलोमीटर थी। सुरक्षा के उपाय सुझाने और उन पर अमल करने के लिए 6 सितंबर 1927 को गठित हिल साइड सेफ्टी व झील विशेषज्ञ समिति की एक दशक से कोई बैठक नहीं हुई है। उल्टा यह जरूर हुआ कि यह समिति अपने बनाए नियमों की ही तोड़ती रही है। शेर का डंडा पहाड़ी में वर्ष 1880 में जबरदस्त भूस्खलन में करीब 150 लोग मारे गए थे। उसके बाद राजभवन को वहां से हटाना पड़ा था। इस पहाड़ी पर नए निर्माण पर पाबंदी होने के बावजूद समिति ने वहीं रोपवे बनाने की अनुमति दे दी। राजनीतिक दबावों की वजह से पाबंदी वाले ऐसे कई इलाकों को सुरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया गया ताकि वहां इमारतें खड़ी हो सकें। पिछले दो-तीन दशकों में इलाके में पर्यटकों की तादाद के साथ साथ होटलों की संख्या भी तेजी से बढ़ी है। 1927 में शहर में केवल 396 पक्के मकान थे। लेकिन सदी के आखिर तक यहां 8,000 से ज्यादा पक्के मकान हैं। तमाम नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए वहां विभिन्न पहाड़ियों पर धड़ल्ले से निर्माण हो रहा है। नियम के मुताबिक, नैनीताल में कहीं भी दो मंजिलों से ज्यादा और 25 फीट से ऊंची इमारत नहीं बनाई जा सकती लेकिन यह नियम फाइलों में पड़े धूल फांक रहे हैं। निर्माण कार्यों से पैदा होने वाला हजारों टन मलबा हर साल झील में समा जाता है। 1961 में नैनीताल में केवल 20 होटल थे लेकिन अब इनकी तादाद एक हजार पार कर गई है। वहां के लोगों ने पर्यटकों से होने वाली कमाई को ध्यान में रखते हुए अपने घरों में ही होटल और गेस्ट हाउस बना लिए हैं। ऐसे में होटलों का कहीं कोई हिसाब नहीं है। 25 साल पहले से नैनीताल काफी बदल गया है। अस्सी के दशक में यहां महज कुछ होटल थे। लेकिन अब इन होटलों की भीड़ की वजह से माल रोड पर पैदल चलना काफी मुश्किल हो गया है। रोजाना पहाड़ का सीना चीर कर खड़ी होने वाली इमारतों ने झील के चारों तरफ फैले पहाड़ को लगभग ढक दिया है। वहां के स्थानीय लोगों का कहना है कि नैनीताल की झील के जल स्तर में साल दर साल गिरावट आ रही है। लेकिन इसके वजहों की पड़ताल के लिए कोई कदम नहीं उठाए जा रहे हैं अगर समय रहते इस झील को बचाने की दिशा में ठोस पहल नहीं हुई तो वह दिन दूर नहीं जब पर्यटक इस ओर से मुंह मोड़ लेगें। भूवैज्ञानिकों का भी कहना है कि भूकंप का एक हल्का झटका भी इस खूबसूरत शहर, जो उत्तर प्रदेश के बटवारे तक उसकी ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करता था, के वजूद को मिटा सकता है।

देवभूमि में जो राहत कार्य चल रहा है वहां भी लोग अपना धंधा चला रहे हैं। वहां फंसे एक तीर्थयात्री ने जो बयां किया उस पर कुछ कहते नहीं बन रहा है। उन्होंने बताया कि महा-आपदा के समय प्राइवेट हैलिकॉप्टर कंपनियां धंधे पर उतर गई हैं। वह भी ठीक सरकार की नाक के नीचे। एक आदमी को हैलिकॉप्टर से बचाने का उनका रेट है दो लाख रूपये। तीर्थयात्रियों के एक समूह ने आपस में मिलकर करीब 20 लाख रूपये जुटाएं और खुद को हैलिकॉप्टर के जरिए बचा पाए।  उत्तराखंड में हुई तबाही का पूरा आकलन होना अभी बाकी है। लेकिन किसी तरह प्रकृति की कैद से आजाद होकर वापस आये लोगों का विश्वास किया जाए तो रूह कांप जाती है। भुक्तभोगियों के अनुसार उत्तराखंड में प्रलय के साथ मौत की बारिश हो रही थी। प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं कि वहां लाशों की चादर बिछ गयी है। सवाल यह उठता है कि आखिर ऐसी आपदाओं के लिये क्या प्रकृति ही जिम्मेदार है? हमें अब खुले दिल से स्वीकार करना होगा कि ऐसी आपदाओं के लिए जिम्मेंदार केवल इंसान है।

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  1. बेशक इसके लिए मानव ही जिम्मेदार है.अभी तो यह प्रकर्ति ने एक ट्रेलर मात्र दिया है,यदि हम हमारी सरकार अभी भी न सम्भले तो ऐसी और भी आप्दएं झेलनी होगी जरूरी नहीं कि अभी इस साल या एक दो साल में ही ऐसा हो,चार पांच दस साल भी लग सकते हैं.नैनीताल का आपने सही उद्धरण प्रस्तुत किया.विचारनीय है कि जब झील ही न रहेगी,उसके के सारे पानी के स्रोत बंद हो जायेंगे तब किनारे बने होटलों का क्या आकर्षण रहेगा.

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