राजा भैया तो मात्र लक्षण है , रोग है राजनीति का अपराधीकरण ?

raja bhaiyaइक़बाल हिंदुस्तानी

सत्ता के लिये हमारे नेता आज ’’कुछ भी’’ कर सकते हैं !

यूपी के प्रतापगढ़ में जिस तरह से एक बहादुर और ईमानदार पुलिस क्षेत्राधिकारी ज़ियाउल हक़ की हत्या कराने का आरोप सपा सरकार के मंत्री रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया पर लगा है वह ना पहली बार है और ना ही आखि़री बार। आज राजनीति में ऐसे कई राजा भैया मौजूद हैं। सच तो यह है कि राजा भैया तो मात्र लक्षण है रोग तो सभी दलों द्वारा किया गया राजनीति का अपराधीकरण है। इससे पहले भी राजा सहित अनेक मंत्रियांे, विधायकांे और सांसदों पर ऐसे आरोप लगते रहे हैं लेकिन बात केवल उतनी ही नहीं है जितनी बाहर से दिखाई दे रही है।

सपा हो बसपा, कांग्रेस हो या भाजपा लगभग सभी राजनीतिक दल चुनाव जीतने को पहले बाहुबलियोें का सहारा लिया करते थे लेकिन धीरे धीरे माफियाओं ने सोचा कि अगर उनके डराने धमकाने से किसी भी नेता को वोट मिल सकते हैं और वह चुनाव जीतकर सत्ता का सुख ले सकता है तो क्यों ना वे खुद ही चुनाव लड़कर इस सत्तासुख को हासिल करें। अब चूंकि इस दौर में किसी नेता या पार्टी का कोई धर्म ईमान तो बचा नहीं है जिससे वे बाहुबलियों की इस मांग पर आराम से राज़ी हो गयीं। उनका तो एक सूत्री प्रोग्राम था कि किसी भी तरह साम दाम दंड भेद से सीट जीतनी है। वह तो भला हो सुप्रीम कोर्ट का जिसने सरकार को इस बात के लिये मजबूर किया कि वह जनप्रतिनिधित्व कानून में यह संशोधन करे कि प्रत्येक प्रत्याशी अपने नामांकन में यह घोषणा करे कि उस पर कितने और कौन से अपराधिक मुकदमे चल रहे हैं, उसकी शैक्षिक योग्यता क्या है और उसकी सम्पत्ति कितनी है?

यह नियम लागू होने के बाद जनता को यह पता चलने लगा कि अमुक प्रत्याशी अपराधी प्रवृत्ति का है या नहीं लेकिन यहां तो सियासी दलों में यह होड़ लग गयी कि कौन कितने माफियाओं को टिकट देकर लोकसभा या विधानसभा में जिताकर भेजता है? जब इसकी आलोचना हुई तो सफाई यह दी गयी कि जब तक आरोपी सुप्रीम कोर्ट तक से दोषी साबित ना हो जाये ंतब तक उनको कसूरवार नहीं माना जा सकता। अब समस्या यह है कि एक तो केस सर्वोच्च न्यायालय तक से तय होने तक दसियों साल लग जाते हैं दूसरे इन माफियाओं के खिलाफ आतंक की वजह से कोई गवाह नहीं मिलता अगर मिल जाये तो ये उसको ठिकाने लगवा देते हैं। खुद सत्ताधारी दल से जुड़े होने की वजह से इनके केस या तो लंबे समय तक दबाये रखे जाते हैं या जांच इनके हिसाब से कराकर मामला रफा दफा कर दिया जाता है।

कुंडा में मारे गये सीओ ज़ियाउल हक़ पर भी राजा भैया का ऐसा ही दबाव दंगे में नामज़द उनके 122 लोगों को बचाने का था जिसके लिये वह किसी कीमत पर तैयार नहीं थे। सियासी अपराधीकरण का नतीजा यह हुआ कि जाति और धर्म की राजनीति की बदौलत अपराधी को भी उस कौम या बिरादरी का ‘हीरो’ बना दिया गया जिसकी जगह जेल में होनी चाहिये थी। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि माफिया जेल में बंद रहकर भी चुनाव जीतने लगे। एक सवाल और जो नेता दंगा, फसाद और लाशों की राजनीति करके भी चुनाव जीतने में बुराई ना समझते हों उनसे यह आशा करना कि वे अपराधियों को टिकट नहीं देंगे बेमानी ही है। असली सवाल तो यह है कि जनता खुद साम्प्रदायिकता, जातिवाद और संकीर्ण स्वार्थो में बंटी है जिससे वह ऐसे अपराधिक प्रवृत्ति के लोगों को चुनाव जिताकर भेजने में बुराई नहीं समझती है।

अखिलेश यूपी की अपने बल पर पहली बहुमत प्राप्त सपा सरकार के सबसे युवा मुख्यमंत्री हैं। वे यूपी को पिछड़ेपन से निकालकर प्रगति और विकास के रास्ते पर ले जाना चाहते हैं लेकिन सरकार बने एक साल होने को आया भ्रष्टाचार और कानून व्यवस्था के मोर्चे पर वे असफल होते नज़र आने लगे हैं। उनके जनता दरबार में फरियादियों की जो भीड़ उमड़ रही है उससे साफ हो जाता है कि स्थानीय थाना और तहसीलों में कुछ भी नहीं बदला है। उन्होंने अधिकारियों को कई बार यह जताया भी कि अगर स्थानीय स्तर पर लोगों की सुनवाई हो रही होती तो वे अपना दुखड़ा लेकर राजधानी नहीं आते लेकिन अधिकारियों और पुलिस के कान पर जूं रंेगती दिखाई नहीं दे रही है।

अखिलेश ने यह भी कहा था कि अभी वे कुछ महीने भ्रष्ट और नाकारा प्रशासन को सुधरने के लिये दे रहे हैं उसके बाद वे स्वयं मौके पर जायेंगे और दोषी पुलिस प्रशासन के खिलाफ सख़्त कार्यवाही करेंगे लेकिन उनकी इस चेतावनी का कोई असर सरकारी मशीनरी पर हुआ हो ऐसा नहीं लगता। हालत इतनी ख़राब है कि सपा सरकार का एक साल भी पूरा नहीं हुआ था और प्रदेश में मथुरा के कोसीकलां, प्रतापगढ़ के अस्थान, गाज़ियाबाद के मसूरी सहित मुज़फ्फरनगर, मेरठ, बरेली, लखनऊ और इलाहाबाद के विभिन्न स्थानों पर आठ दंगे हो चुके हैं। यूपी में एक साल में पांच हज़ार हत्यायें और तीन हज़ार बलात्कार होने का विपक्ष का दावा अगर सही है तो इससे हालात की भयावहता का अंदाज़ लगाया जा सकता है।

अखिलेश यादव की सरकार दंगों का कारण कुछ तत्वों द्वारा राजनीतिक कारणों से छोटी छोटी घटनाओं को तूल देना बता रही है लेकिन यह स्वीकार नहीं कर रही कि ऐसा उनकी प्रशासनिक असफलता का प्रतीक है। उनकी खुफिया एजंसी क्या कर रही है। स्थानीय पुलिस और प्रशासन कई जगह साम्प्रदायिक और संवेदनशील घटनाएं होने के बाद जब घंटों तक भी मौका ए वारदात पर नहीं पहुंचा तो भीड़ नियंत्रण से बाहर हो गयी और उसने निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा भड़काने से कानून हाथ में ले लिया। इसके बाद सभी जिलाधिकारियों और पुलिस अधीक्षकों को यह चेतावनी जारी करनी पड़ी कि वे अगर ऐसी घटनाओं के बाद तत्काल घटनास्थल पर नहीं पहुंचे तो उनको बख़्शा नहीं जायेगा। इसका नतीजा यह हुआ कि जहां जहां दंगा हुआ वहां के वरिष्ठ अधिकारियों को हटाया गया जिससे अब जाकर अफसर कुछ जागे हैं और इस तरह की घटनायें तूल कम पकड़ रही हैं।

यह भी आरोप लगाया गया कि माहौल ख़राब करने की नापाक हरकतें विरोधी दलों द्वारा की जा रही हैं। हद तो यह हो गयी कि खुद मुख्यमंत्री ने यह भी कहा कि कुछ अधिकारी जानबूझकर फिज़ा ख़राब होने दे रहे हैं और उनकी जांच कराकर सज़ा दी जायेगी। कमाल है जिस सरकार में अधिकारी इतने ढीट और दुस्साहसी हों कि उनको इस बात की भी चिंता ना हो कि अगर उनकी काली करतूत शासन को पता लग गयी तो उनका क्या हश्र होगा उस सरकार का भगवान ही मालिक है। उधर मुलायम सिंह के सखा और सुपर चीफ मिनिस्टर समझे जाने वाले आज़म खां खुलेआम कहते हैं कि सपा नेता अधिकारियों से डंडा हाथ में लेकर बात करें। इसका क्या मतलब है?

अखिलेश यादव को प्रदेश में ऐसा कुछ करना चाहिये जिससे व्यवस्था में सुधार आये। मिसाल के तौर पर वे बिना प्रोग्राम दिये अगर अचानक दौरे पर आते हैं तो उनको हकीकत का पता कुछ हद तक लग सकता है लेकिन बेहतर होता कि वह पूर्व मुख्यमंत्री और किसान नेता चौ0 चरण सिंह की तरह भेस बदलकर थाने और तहसील में जाकर आम आदमी के साथ होने वाले अभद्र और भ्रष्ट व्यवहार के बारे में सीध्ेा जानने का प्रयास करते और मौके पर ही कार्यवाही करके पूरी सरकारी मशीनरी को यह संदेश देते कि महाभारत के एक प्रसंग की तरह एक को मारे दो मर जाये तीसरा दहशत से मर जाये।

अंत में इतना ही कहा जा सकता है जिस तरह से अखिलेश सपा सरकार के सीएम बन गये उनको वहां तक पहुंचने में जिन जातिवादी, अपराधिक और साम्प्रदायिक तौर तरीकों का सहारा लिया गया वे एक तरह से बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से आये वाली कहावत को चरितार्थ करता है। आज उनकी ‘अंकल कैबिनेट’ में जहां मनमानी करने को आज़म खां और शिवपाल यादव आज़ाद हैं वहीं खुद उनके पिता आय से अधिक मामले में सीबीआई से बचने को जिस तरह से अब तक की सबसे भ्रष्ट और विवादों में घिरी यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन देकर बचा रहे हैं उसके छींटे यूपी में अखिलेश के दामन पर आये बिना रह नहीं सकते और इसका एक और नमूना उनकी सरकार ने गोंडा के एसपी को एक बाहुबली सपा नेता के पशु तस्करी के मामले के स्टिंग ऑप्रेशन की सज़ा देकर किया है।।

मस्लहत आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम,

तू नहीं समझेगा सियासत तू अभी नादान है।

 

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इक़बाल हिंदुस्तानी
लेखक 13 वर्षों से हिंदी पाक्षिक पब्लिक ऑब्ज़र्वर का संपादन और प्रकाशन कर रहे हैं। दैनिक बिजनौर टाइम्स ग्रुप में तीन साल संपादन कर चुके हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अब तक 1000 से अधिक रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है। आकाशवाणी नजीबाबाद पर एक दशक से अधिक अस्थायी कम्पेयर और एनाउंसर रह चुके हैं। रेडियो जर्मनी की हिंदी सेवा में इराक युद्ध पर भारत के युवा पत्रकार के रूप में 15 मिनट के विशेष कार्यक्रम में शामिल हो चुके हैं। प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ लेखक के रूप में जानेमाने हिंदी साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार जी द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। हिंदी ग़ज़लकार के रूप में दुष्यंत त्यागी एवार्ड से सम्मानित किये जा चुके हैं। स्थानीय नगरपालिका और विधानसभा चुनाव में 1991 से मतगणना पूर्व चुनावी सर्वे और संभावित परिणाम सटीक साबित होते रहे हैं। साम्प्रदायिक सद्भाव और एकता के लिये होली मिलन और ईद मिलन का 1992 से संयोजन और सफल संचालन कर रहे हैं। मोबाइल न. 09412117990

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