राजनीति का भूत

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शर्मा जी की इच्छा थी कि मोहल्ले में उनका कद कुछ बढ़े। उनके भाव भी थोड़े ऊंचे हों। असल में नगर पंचायत के चुनाव पास आ रहे थे। उनका मन था कि इस बार वे भी किस्मत आजमाएं। यद्यपि इससे पहले उनका कोई राजनीतिक कैरियर नहीं था। 40 साल सरकारी दफ्तर में पैर पीटने के बाद वे सेवा निवृत्त हुए थे। बिना लिये-दिये कुछ काम करने में उनका विश्वास नहीं था। इससे उन्होंने अच्छा मकान और अच्छी गाड़ी जुटा ली। बच्चों को महंगे स्कूलों में पढ़ाया। उनकी शादियां भी खूब शानदार तरीके से कीं। मोहल्ले के मंदिरों और मस्जिद में वे खूब दान देते थे। इसलिए हर जाति, बिरादरी और धर्म वालों में उनकी प्रतिष्ठा थी।

 

पर अब उनकी इच्छा राजनेता बनने की थी। इसका एक ही तरीका था कि वे चुनाव लड़ें। बस इसी की उधेड़बुन में वे लगे थे। उनकी पहली इच्छा तो यह थी कि जिस पार्टी की डुगडुगी सब तरफ बज रही है, वही उसे टिकट दे दे; पर दर्जनों दावेदारों के कारण वहां बहुत मारामारी थी। इसके बाद उस पार्टी का नंबर था, जो कभी बहुत बुलंदी पर थी। यद्यपि अब उसे पूछने वाले लगातार घट रहे थे। फिर भी लोग वहां कोशिश कर रहे थे। तीसरा रास्ता निर्दलीय लड़ने का था।

 

शर्मा जी ने मुझसे पूछा, तो मैंने उन्हें इस पचड़े में न पड़ने की सलाह दी। इससे वे नाराज हो गये। उन्हें लगा कि मैं उन्हें आगे बढ़ते हुए नहीं देखना चाहता। इसलिए वे गुप्ता जी से मिले। गुप्ता जी को लगा कि शर्मा जी की जेब से नोट निकलेंगे, तो कुछ उनके पल्ले भी पड़ेंगे। इसलिए उन्होंने शर्मा जी का खुला समर्थन किया। सिन्हा जी ने कहा कि बड़ी पार्टी और नेता आपको महत्व तब देंगे, जब उन्हें लगे कि आपके पास दो-चार हजार वोट हैं। इसलिए किसी कार्यक्रम के बहाने शक्ति प्रदर्शन करो। इससे नेता और पार्टियां खुद ही आपके पास आएंगे।

 

शर्मा जी के भेजे में ये बात बैठ गयी। अगले महीने होली थी। यों तो मोहल्ले में हर बार होली मिलन होता था; पर शर्मा जी ने इस बार भव्य समारोह करने का बीड़ा उठाया। उन्होंने नगर से लेकर राज्य स्तर के आठ-दस नेताओं से संपर्क किया। उनमें से अधिकांश ने अपने क्षेत्र में व्यस्तता की बात कही; पर शर्मा जी उनके पीछे पड़ गये, तो सबने कोशिश करने की बात कहकर उन्हें टरका दिया।

 

शर्मा जी ने जमकर तैयारी की। कई हजार बढ़िया कार्ड, भव्य पंडाल, अच्छे सांस्कृतिक कार्यक्रम और चटपटी चाट। इस सबमें उनके दो लाख रु. से अधिक ही खर्च हो गये; पर उन्होंने चिंता नहीं की। वे जानते थे कि एक बार चुनाव जीते, तो फिर दो के 20 लाख होते देर नहीं लगेगी।

 

आखिर होली आ ही गयी। दिन में रंग हुआ और शाम को रंगारंग कार्यक्रम। शर्मा जी कभी मंच पर तो कभी गेट पर दिखायी देते थे। उनके कान नेताओं की गाड़ियों के हूटर की आवाज सुनने को बेताब थे। इस चक्कर में कार्यक्रम एक घंटा देरी से शुरू हुआ; पर किसी नेता ने न आना था और न कोई आया। इस कारण दर्शक भी नहीं आये। जैसे-तैसे कार्यक्रम समाप्त हुआ।

 

अगले तीन दिन शर्मा जी हिसाब निबटाने और थकान उतारने में लगे रहे। चौथे दिन मैं उनके घर गया। उनके चेहरे से उदासी साफ झलक रही थी। मैंने थोड़ी सांत्वना दी, ‘‘कोई बात नहीं शर्मा जी, ऐसा तो होता ही रहता है। वैसे आपने जिन नेताओं के नाम कार्ड में छापे थे, उनमें से एक भी आ जाता, तो रौनक बढ़ जाती।’’

 

– हां, लेकिन सबने फोन कर मुझसे माफी मांगी है और अगली बार आने की पक्की बात कही है।

 

– वैसे कुल कितने लोग आये होंगे कार्यक्रम में ?

 

– मैं संख्या नहीं गिनता वर्मा जी। कार्यक्रम खूब भव्य हुआ। आगे के अधिकांश सोफे भरे हुए थे। पीछे वाली कुर्सियां मैं देख नहीं पाया; लेकिन चाट-पकौड़ी की लोगों ने खूब तारीफ की। टैंट वालों और आसपास के मजदूरों ने भी इसका खूब आनंद लिया। कई लोग अपने घर भी ले गये। आयोजन खूब सफल रहा।

 

मैं समझ नहीं पाया कि हजार कुर्सियों पर 250 लोगों के आयोजन को सफल कैसे कहें ? पर शर्मा जी इस सबसे परे बैसाखी के सांस्कृतिक आयोजन में जुट गये हैं। नेताओं ने उन्हें आश्वासन की चटनी चटा ही दी है। मैं समझ गया कि उन पर राजनीति का भूत सवार हो गया है, जो चुनाव से पहले नहीं उतरेगा। भगवान उनका भला करे।

– विजय कुमार, विश्व संवाद केन्द्र, देहरादून

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