राममंदिर पर मुसलमानों की रहस्यमयी चुप्पी

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-अनिल सौमित्र

रामजन्मभूमि बनाम बाबरी मस्जिद पर फैसला आने ही वाला है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने बहुप्रतीक्षित रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के मुकदमे में सुनवाई पूरी कर फैसला सुरक्षित कर लिया है। उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ के न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस.यू. खान, न्यायमूर्ति डी.वी. शर्मा एवं न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल हैं। चूंकि न्यायमूर्ति डी.वी. शर्मा सितंबर के अंत में सेवानिवृत्त होने वाले हैं। इसलिए माना जा रहा है कि रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के बारे में फैसला सितंबर महीने के पूर्व कभी भी आ सकता है। लेकिन इस मसले पर आम मुसलमान और मुस्लिम संगठनों की चुप्पी रहस्यमय दिखती है। क्या यह तूफान के पहले की शांति है! उर्दू मीडिया ने पहले से ही कहना शुरु कर दिया है कि न्यायालय का निर्णय हिन्दुओं के पक्ष में आ सकता है। इस मामले में मुस्लिम संगठनों के दोनों हाथों में लड्डू दिखता है। अगर निर्णय उनके पक्ष में आया तो वे नष्ट हो चुके जर्जर बाबरी मस्जिद ढांचे के स्थान पर भव्य मस्जिद की मांग सरकार के सामने रखेंगे। अगर हाईकोर्ट का निर्णय सुन्नी वक्फ बोर्ड के खिलाफ और हिन्दू पक्षकारों के पक्ष में हुआ तो क्या होगा? न्यायालय के निर्णय के संदर्भ में सबसे अहम बात तो यह है कि जिन संगठनों या व्यक्तियों की ओर से न्यायालय में पक्ष रखा जा रहा है क्या उन्हें अपने कौम का समर्थन और सहमति प्राप्त है? संभव है न्यायालय के निर्णय के बाद हिन्दुओं या मुसलमानों का कोई संगठन यह कह दे कि हमें निर्णय मंजूर नहीं, क्योंकि यह हमारे श्रद्धा-आस्था या अक़ीदत का मामला है। ये अलग बात है कि मुस्लिम संगठनों ने इसे अपनी इज्जत का मामला बना रखा है।

उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के तीन न्यायाधीशों की पूर्ण पीठ वर्ष 1996 से इस विवाद की सुनवाई कर रही थी। मुकदमे में चार पक्षकार हैं। हिंदुओं की ओर से तीन पक्षकार हैं जिसमें एक प्रमुख पक्षकार विवादित परिसर में विराजमान रामलला स्वयं हैं। दूसरे श्री गोपाल सिंह विशारद और तीसरा निर्मोही अखाड़ा हैं, जबकि मुस्लिम पक्ष की ओर से सुन्नी मुस्लिम वक्फ बोर्ड पक्षकार है। गोपाल सिंह विशारद ने रामलला के एक भक्त के रूप में निर्बाध दर्शन-पूजन की अनुमति के लिए जनवरी,1950 ईस्वी में अपना मुकदमा फैजाबाद जिला अदालत में दायर किया था। वर्ष 1959 में निर्मोही अखाड़े ने अपना मुकदमा जिला अदालत में दायर कर अदालत से मांग की थी कि सरकारी रिसीवर हटाकर जन्मभूमि मंदिर की संपूर्ण व्यवस्था का अधिकार अखाड़े को सौंपा जाय। दिसंबर, 1961 में सुन्नी वक्फ बोर्ड अदालत में गया। बोर्ड ने अदालत से मांग की कि विवादित ढांचे को मस्जिद घोषित किया जाए, वहां से रामलला की मूर्ति और अन्य पूजा सामग्री हटाई जाएं तथा परिसर का कब्जा सुन्नी वक्फ बोर्ड को सौंपा जाए। जुलाई, 1989 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश श्री देवकीनंदन अग्रवाल ने एक भक्त के रूप में खुद को रामलला का अभिन्न मित्र घोषित करते हुए न्यायालय के समक्ष रामलला की ओर से वाद दाखिल किया। 40 साल तक मुकदमा फैजाबाद जिला अदालत में लंबित पड़ा रहा। शीघ्र सुनवाई के लिए उच्च न्यायालय के आदेश से सभी मुकदमे सामुहिक सुनवाई के लिए उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ को सौंपे गए। गौरतलब है कि राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय से वर्ष 1993 में एक प्रश्न पूछा गया था कि क्या विवादित स्थल पर 1528 ईस्वी के पहले कभी कोई हिंदू मंदिर था अथवा नहीं? इसी प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए उच्च न्यायालय ने विवादित परिसर की राडार तरंगों से फोटोग्राफी और पुरातात्विक खुदाई भी करवाई। जजों के सेवानिवृत्त होते रहने के कारण उच्च न्यायालय की विशेष पीठ का लगभग 13 बार पुनर्गठन हो चुका है। अंतिम पुनर्गठन 11 जनवरी, 2010 को हुआ।

इसी बीच 6 दिसंबर, 1992 को विवादित ढांचा हिन्दुओं ने जमींदोज कर दिया। अक्तूबर, 1994 में सर्वोच्च न्यायालय ने विवाद के मामले में अंतिम निर्णय की सारी जिम्मेदारी उच्च न्यायालय के हवाले कर दी। तब से उच्च न्यायालय इस मामले की निरंतर सुनवाई कर रहा है। उच्च न्यायालय ने मामले की सुनवाई के लिए विशेष अदालत का गठन कर संपूर्ण मामला दो हिंदू और एक मुस्लिम जज की पूर्ण पीठ के हवाले कर दिया। शायद इसके पीछे यह सोच रही हो कि मुसलमानों के साथ कोई अन्याय न हो जाये। इसीलिए एक मुसलमान जज भी पीठ में रखा गया।

हालांकि न्यायालय में सुन्नी वक्फ बोर्ड और निर्मोही अखाडा आमने-सामने है, लेकिन अदालत के बाहर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी और विश्व हिन्दू परिषद् है। इनके अलावा भी हिन्दुओं और मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाले संगठन हैं। आम हिन्दुओं को डर सता रहा है कि अदालत का फैसला खिलाफ आने पर आम मुसलमान किसकी सुनेगा, किसकी नहीं सुनेगा? मुस्लिम जनता हमेशा अपने कट्टर नेतृत्व का कहा ही मानती आई है। देश विभाजन के समय से लेकर शाहबानों, तस्लीमा, घुसपैठ, आतंकवाद समेत ऐसे अनेक मामले हैं जिन पर उदार मुस्लिम नेतृत्व को मुंह की खानी पड़ी है। आम मुसलमान कट्टर और रूढ़िवादी नेतृत्व की ही सुनता आया है। बंगलादेशी घुसपैठियों का मामला हो या आतंकी और आतंकी संगठनों को पनाह देने का मामला, आम मुसलमानों का सहयोग हमेशा इन्हें ही मिलता आया है। आज भले ही बाबरी एक्शन कमेटी के संयोजक और अदालत में मुसलमानों की तरफ से पैरवी कर रहे जफरयाब जिलानी और बाबरी एक्शन कमेटी के संस्थापक रह चुके जावेद हबीब न्यायालय का फैसला मानने और किसी आंदोलन के इरादे को नकार रहे हों, लेकिन क्या पता कल ‘हिन्दुओ के खिलाफ डायरेक्ट एक्शन’’ का फतवा या आह्वान आ जाये। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी की हालत भले ही खराब हो चुकी हो, लेकिन इतनी भी खराब नहीं कि देश का मुसलमान उनकी बातों की अनदेखी कर दे। मुसलमानों के लिए देश के भीतर और बाहर संघर्ष करने वालों की कमी नहीं है। कांग्रेस समेत देश की सभी राजनैतिक पार्टियां, सरकारें, न्यायालय, मीडिया और अ-हिन्दू भारतीय सब मुसलमानों के प्रति जरूरत से ज्यादा संवेदनशील हैं। मुसलमान अपनी मर्जी से न्यायालय का और न्यायाधीश का चयन कर सकता है। उसके लिए गुजरात का मामला दिल्ली में और मध्यप्रदेश का मामला मुम्बई में ले जाया जा सकता है। जो काम हिन्दुओं के लिए पूरा संघ परिवार नहीं कर सकता वह अकेले जफरयाब जिलानी कर सकते हैं, बखूबी कर रहे हैं। अगर मामला मुसलमानों से जुड़ा हो तो न्यायालय की सुनता कौन है? शाहबानों और अफजल का उदाहरण सबके सामने है। एक में कांग्रेस ने कानून बना कर सर्वोच्च न्यायालय को आइना दिखाया तो दूसरे में सजा का क्रियान्वयन ही रोक दिया। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर-फारुख अब्दुल्ला ने खुलेआम कहा कि अफजल को फांसी देने से कश्मीर के हालात बिगड़ सकते हैं।

पुराने अनुभव तो यही बताते हैं कि आम मुसलमान अपने कट्टरपंथी नेतृत्व के साथ पहले न्यायालय पर दबाव बनायेंगे, फैसला अनुकूल आया तो ठीक वर्ना कह देंगे- फैसला कूड़ेदान के लायक है। केन्द्र सरकार समेत अनेक आयोग उस कचरे को सुरक्षित करने के लिए कूड़ेदान की तलाश में लग जायेंगे। न्यायालय का फैसला न मानने के लिए ‘वोट की राजनीति’ का दबाव तो मुसलमानों के लिए हमेशा से उपलब्ध है ही। देश के प्रधानमंत्री भी ‘देश के संसाधनों’ पर मुसलमानों का पहला हक देकर उनके वोट पर अपना पहला और आखिरी हक अख्तियार करना चाहते हैं। उन्हें अपराध या आतंक के लिए आरोपी मत बनाइये, क्योंकि वे मुसलमान हैं। उन्हें न्यायालय में अपराधी या आतंकी सिद्ध करने का प्रयास मत कीजिये क्योंकि वे ‘‘बेचारे मुसलमान’‘ हैं। सजा सुनाये जाने के बाद भी उसे लागू मत कीजिये क्योंकि उससे अल्पसंख्यकों में तनाव पैदा होने, मानवाधिकार को चोट पहुंचने का खतरा है। अब हिन्दू बेचारा क्या करे। कब तक वह तथाकथित सेक्यूलर संविधान और न्याय व्यवस्था पर भरोसा करे। शायद इसीलिए विहिप ‘जनता के न्यायालय’ में जाने को विवश हुई हो। विहिप या संघ परिवार का प्रयास देश की जनता-जर्नादन को जागृत करने का है। ताकि इससे देश की राजनैतिक व्यवस्था पर कोई प्रभाव पड़े। संभव है ‘‘बहुसंख्यक दबाव की राजनीति’’ का कुछ असर हो जाये और राम मंदिर विवाद का समाधान जनता के सदन ‘संसद’ में हो जाये।

सच बात तो यह है कि न तो हिन्दुओं को चिढ़ाने या अनावश्यक जिद्द करने से मामला सुलझने वाला है और न ही मुसलमानों के तुष्टीकरण से। विभिन्न राजनैतिक दल अगर ईमानदार प्रयास करें तो अयोध्या विवाद का राजनैतिक हल निकल सकता है। इस मामले में मुसलमानों के उदार नेतृत्व को आगे आना ही होगा। पहल उन्हें ही करनी है। समस्या निराकरण नुख्सा उन्ही के पास है। अमन पसंद और विकास की चाहत रखने वाले राजनैतिक दल आगे आएं तो समस्या का निराकरण और भ्री आसान हो जायेगा। सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार कर कांग्रेस और उनके नेताओं न एक नजीर पेश की है। अयोध्या समझदारी का दूसरा उदाहरण हो सकता है। कांग्रेस पहल करे, भाजपा और अन्य दल मदद करें- राम मंदिर की भव्यता का प्रश्न संसद से हल करें। यह शांति और भाइचारे का तकाजा भी है।

16 COMMENTS

  1. यदि जबाब जरुरी लगता है ,तो ऐसा मानले की हिन्दुस्तानी मुसलमान समझदार हैं नाहक फटे में टांग अडाना उचित नहीं समझते .

  2. सही कहा आपने। निम्न उदाहरण पर सोचनेके लिए बिनती।
    अमरिकामें जब कोई नागरिकता लेने जाता है। तो अमरिका की मिट्टीमें जन्मे वॉशिंग्टन, लिंकन, हॅमिल्टन,–इत्यादि नेताओंको राष्ट्र पुरूष के नाते स्वीकारते हुए उनका, गौरव करना पडता है।छोटीसी परीक्षा देनी पडती है; लेखित और वाचिक दोनो। साथमे oath (राष्ट्र निष्ठा की शपथ) भी, लेनी पडती है।कोई ऐसा कह नहीं सकता, कि लिंकन या वाशिंग्टन ये तो, मुसलमान या हिंदू नहीं थे, इसलिए मैं उन्हे स्वीकार नहीं करूंगा, उनका आदर नहीं करूंगा।
    ठीक वैसे ही–
    ===>मुसलमान और दूसरे नास्तिक — राम और कृष्ण को राष्ट्र पुरूष माने–**भगवान मानने की आवश्यकता उनके लिए ना रखें**<==
    वैसे मूल संविधानमें (स्मरण? है) राम, बुद्ध, कृष्ण इत्यादि महान विभूतियोंकी छवियां (याने चित्र) थी, ही।संविधान भी इसे पुष्ट तो करता ही है। फिर, राम और कृष्ण भारतकी मिट्टीमें ही तो जन्मे थे।(ये मायथॅलॉजिकल गॉड्स नहीं है।) सच्चाई तो यह है, कि वे हम सभीके(मुसलमानों के भी) पूजनीय पूर्वज तो है ही।आपने कहा ही है कि,
    ==="इस मामले में मुसलमानों के उदार नेतृत्व को आगे आना ही होगा।"===
    ऊपरी तर्क के आधारपर वें आगे आ सकते हैं।
    अब श्री रामके मंदिरको वे "राष्ट्र पुरूष" के मंदिर के नाते देखें।जैसे गांधी, तिलक, सरदार, इत्यादि के समाधियों को या घाटोंको देखते हैं। वास्तव में इस्लामी बंधुओंका सूडो-सेक्युलिरिस्टोने अपने फायदे के लिए काफी इस्तेमाल किया है, वोट बॅंक बना लिया है।इनके चंगुलसे होशियारी बरतते बाहर निकले। अपना भला करें।

    • Sir mujhe nahi lagta. Ram – krishn ki tulna american president se ki jaye, wo unke rashtr nirmata he. Hamare rashtr nirmata alag he. Nam likh ke vivad nahi karna chahti. Mujhe ummed he aap is par bhi dhyan denge

      • किन शब्दोंके कारण, आपको दीपा जी यह तुलना लगती हैं, बताने की कृपा करेंगी? आप मेरी जानकारीके अनुसार एक अधिवक्ता (अधिवक्त्रि) की परीक्षा देने जा रही है। आप की सफलता की कामना करता हूं। संवाद (वाद या विवाद नहीं) तो चलता रहेगा।

  3. – क्या आप दूसरों के आचरण को अपने निंतरण में ला सकते हैं ? उत्तर बिलकुल नहीं.
    – अब आप को हर हालत में क्या करना है – इसकी सोच समझ कर पूरी तैयारी करने की आवश्कता है.
    – अदालत का निर्णय कुछ भी हो, आपको एक ही कार्य करना है कि किस प्रकार से भव्य मंदिर बने.
    – इसके लिए दूसरे पक्ष की सहमति लेनी है. इसके लिए आप क्या प्रस्ताव दे रहे हैं?
    – सारी द्कक्ष्ता इसी में है.
    – क्या करें? गायत्री का पाठ अभी से ही प्रrरंभ करें.
    – तथास्तु !

  4. pankaj jha ke drushtikon men hi desh ki or hindu -muslim dono ki bhalaai hai .adhikans hinduon or adhikans muslimon ko vaise hi apne hi khatkarmon se fursat nahin .ye to do chaar hiduwadi or do char muslimwadi khurapaatyon ke dharmaandhta men lipt hone se baar-baar dange hote rahte hain .udarwadi musalmaan or udarwadi hidu bhut hain we hi ant men kaam aate hain .

  5. पंकज झा जी की बात पर बस एक बात..
    लेख मे मैने ये भी कहा है कि ऎसे मामलो मे न्यायालय की भूमिका बहुत सीमित है. मन्दिर-मस्जिद से जुडे संगठनो के अलावा भी आम मुसलमानो को आगे आकर समस्या के निराकरण की बात करनी चाहिये. ये जिम्मेदारी कोई नही ले सकता कि न्यायालय के निर्णय को हिन्दू या मुसलमान मान ही लेगा. क्योंकि ये दोनो ही पक्ष देश जी जनता या अपनी कौम का सम्पूर्ण प्रतिनिधित्व नही करती. दोनो मे से कोई भी पक्ष बडे न्यायालय का दामन थामेगा. बात टलती रहेगी, चलती रहेगा. तो क्यो न जनता के न्यायालय का भी सहारा लिया जाये.

    • अनिल जी सही कहा आपने। निम्न उदाहरण पर सोचनेके लिए बिनती।
      अमरिकामें जब कोई नागरिकता लेने जाता है। तो अमरिका की मिट्टीमें जन्मे वॉशिंग्टन, लिंकन, हॅमिल्टन,–इत्यादि नेताओंको राष्ट्र पुरूष के नाते स्वीकारते हुए उनका, गौरव करना पडता है।छोटीसी परीक्षा देनी पडती है; लेखित और वाचिक दोनो। साथमे oath (राष्ट्र निष्ठा की शपथ) भी, लेनी पडती है।कोई ऐसा कह नहीं सकता, कि लिंकन या वाशिंग्टन ये तो, मुसलमान या हिंदू नहीं थे, इसलिए मैं उन्हे स्वीकार नहीं करूंगा, उनका आदर नहीं करूंगा।
      ठीक वैसे ही–
      ===>मुसलमान और दूसरे नास्तिक — राम और कृष्ण को राष्ट्र पुरूष माने–**भगवान मानने की आवश्यकता उनके लिए ना रखें**<==
      वैसे मूल संविधानमें (स्मरण? है) राम, बुद्ध, कृष्ण इत्यादि महान विभूतियोंकी छवियां (याने चित्र) थी, ही।संविधान भी इसे पुष्ट तो करता ही है। फिर, राम और कृष्ण भारतकी मिट्टीमें ही तो जन्मे थे।(ये मायथॅलॉजिकल गॉड्स नहीं है।) सच्चाई तो यह है, कि वे हम सभीके(मुसलमानों के भी) पूजनीय पूर्वज तो है ही।आपने कहा ही है कि,
      ==="इस मामले में मुसलमानों के उदार नेतृत्व को आगे आना ही होगा।"===
      ऊपरी तर्क के आधारपर वें आगे आ सकते हैं।
      अब श्री रामके मंदिरको वे "राष्ट्र पुरूष" के मंदिर के नाते देखें।जैसे गांधी, तिलक, सरदार, इत्यादि के समाधियों को या घाटोंको देखते हैं। वास्तव में इस्लामी बंधुओंका सूडो-सेक्युलिरिस्टोने अपने फायदे के लिए काफी इस्तेमाल किया है, वोट बॅंक बना लिया है।इनके चंगुलसे होशियारी बरतते बाहर निकले। अपना भला करे।
      आप इस बिंदूको आपको स्वीकृत हो, तो आपके अगले, लेखोंमे भी सम्मिलित करें।

  6. अनिल जी…आपने तथ्यों के साथ अपनी बात काफी अच्छी तरह से रखी है….लेकिन एक बात समझ में नहीं आयी की मुस्लिम संगठनों पर चुप्पी का आरोप आप किस बिना पर लगा रहे हैं? अव्वल तो यह की कोर्ट का फैसला आने से पहले किसी भी तरह के बयानबाजी का अर्थ नहीं है..ज़ाहिर है चुप ही रहना बेहतर है…और दूसरी यह की शायद आपको मालूम होगा की एक सम्बंधित बड़े मुस्लिम संगठन ने बयान जारी कर यह कहा है की अगर फैसला उनके खिलाफ भी आया तो मुसलमान इसको मानेंगे…इस तरह तो गेंद अब हिन्दुओं के पाले में है.उन्हें अपना रुख स्पष्ट करना होगा.
    यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा की अपन भी उन करोड़ों आस्थावान भारतीयों में शामिल हैं जो यह चाहते हैं कि अयोध्या में रामलला का भव्य मंदिर बने लेकिन यह भी अपनी अभिलाषा है कि इस नाम पर अब ना कोई राजनीति की जाय और ना ही कोई खून खराबा हो…आगे भगवान मालिक.

  7. Anil Je Namskar,
    Ye Tustikarn ki neeti hi ek bar phir Hame Gulam Banane par Majboor Kar degi, Isliye Hamre beech Koi aisa Paida Ho jo Ramblash Khan,Sonia Khan aur Lalu Khan Jaise Netao ko Sabak sikha Sakta hai.

  8. यदि न्यायालय का निर्णय अन्यायी आता है, तो भारत में ७०,०००(हां जी, सत्तर हज़ार) पूजा स्थल (कुछ इतिहासकारों द्वारा अनुमानित–संदर्भ: एलियट एंड जॉन्सन) ऐसे हैं, जहांपर, पहले बने हुए स्थलोंको तोडा गया था, और अन्य धर्मियों ने उन्ही स्थलों पर अपने प्रार्थना स्थल खडे किए थे। उसमें से बहुत सारे तो ऐसे हैं, जहां किसी विशेषज्ञ के बिना भी, केवल निरिक्षण करने से यह प्रमाणित किया जा सकता है।
    उनको केंद्रमें रखकर न्यायालय से मांग की जाए।

  9. अनिल जी, एक बात बताइए – आज तक इन लोगों नें नयायालय का कौन सा फैसला माना है. भाई मेरा एक मत है : आज की तारीख में अपना हक लड़ कर ही लिया जा सकता है. मांग कर कोई नहीं देता.

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