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श्रीराम तिवारी की कविता : हारे को हरिनाम है … - प्रवक्‍ता.कॉम - Pravakta.Com
अब न देश-विदेश है, वैश्वीकरण ही शेष है। नियति नहीं निर्देश है, वैचारिक अतिशेष है।। जाति-धरम-समाज की जड़ें अभी भी शेष हैं। महाकाल के आँगन में, सामंती अवशेष है।। नए दौर की मांग पर, तंत्र व्यवस्था नीतियाँ। सभ्यताएं जूझती, मिटती नहीं कुरीतियाँ।। कहने को तो चाहत है, धर्म-अर्थ या काम…