रामायण काल में विज्ञान (भाग -२)

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प्रमोद भार्गव

रामायण काल में वैमानिकी प्रौद्योगिकी विकास के चरम पर थी, यह इन तथ्यों से प्रमाणित होता है कि वैमानिक शास्त्र में विमान चालक को किन गुणों में पारंगत होना चाहिए। यह भी उल्लेख इस शास्त्र में है। इसमें प्रशिक्षित चालक (पायलट) को 32 गुणों में निपुण होना जरूरी बताया गया है। इन गुणों में कौशल चालक ही ‘रहस्यग्नोधिकारी’ अथवा ‘व्योमयाधिकारी’ कहला सकता है। चालक को विमान-चालन के समय कैसी पोशाक पहननी चाहिए, यह ‘वस्त्राधिकरण’ और इस दौरान किस प्रकार का आहार ग्रहण करना चाहिए, यह ‘आहाराधिकरण’ अध्यायों में किए गए उल्लेख से स्पष्ट है।

राम-रावण युद्ध केवल धनुष-बाण और गदा-भाला जैसे अस्त्रों तक सीमित नहीं था। मदनमोहन शर्मा ‘शाही’ के तीन खण्डों में छपे बृहद उपन्यास ‘लंकेश्वर’ में दिए उल्लेखों से यह साफ हो जाता है कि रामायण काल में वैज्ञानिक अविष्कार चरमोत्कर्ष पर था। राम और रावण दोनों के सेनानायकों ने भयंकर आयुधों का खुलकर प्रयोग भी किया था। लंकेश्वर उपन्यास को ही प्रमुख आधार बनाकर “रावण” धारावाहिक का प्रसारण जीटीवी पर किया गया था, जिसमें राम और रावण के चरित्र को सामान्य मनुष्य की तरह विकसित होते दिखाया गया था।

लंका उस युग में सबसे संपन्न देश था। लंकाधीश रावण ने नाना प्रकार की विधाओं के पल्लवन के लिए यथोचित धन व सुविधाएं भी उपलब्ध कराईं थीं। रावण के पास लड़ाकू वायुयानों और समुद्री जलपोतों के बेड़े थे। प्रक्षेपास्त्र औरका अटूट भण्डार व इनके निर्माण में लगी अनेक वेधशालाएं थीं। दूर संचार यंत्र भी लंका में उपलब्ध थे।

इस अत्यंत रोचक और अद्भुत रहस्यों से भरे उपन्यास ‘लंकेश्वर’ को पढ़ने से एकाएक विश्वास नहीं होता कि राम-रावण युद्ध के दौरान विज्ञान चरमोत्कर्ष पर था लेकिन लेखक ने पुराण कालीन ग्रंथों और विभिन्न रामायणों व अनेक विद्धानों की खोजों का जो फुटनोटों में ब्यौरा दिया है, उससे यह विश्वास करना ही पड़ता है कि उस युग में विज्ञान चरमोत्कर्ष पर था। राम-रावण युद्ध दो संस्कृतियों के अस्तित्व की कायमी के लिए लड़ा गया भीषण आणविक युद्ध था, जिसमें विश्व की समस्त शक्तियों ने भागीदारी की थी।

यह सभी रामायणें निर्विवाद रूप से स्वीकारती हैं कि रावण के पास पुष्पक विमान था और रावण सीता को इसी विमान में बिठाकर अपहरण कर ले गया था। ‘लंकेश्वर’ में वायुयानों का उस युग में उपलब्ध होने का विस्तृत ब्यौरा है- गंधमादन पर्वत, गृध्रों की नगरी थी। यहां के ग्रध्रराज भूमि,समुद्री व आकाशीय मार्ग पर भी अधिकार रखते थे। यह नगरी सम्राट संपाती के पुत्र सुपार्श्व की थी। संपाती राजा दशरथ के सखा थे। संपाती वैज्ञानिक था। उसने छोटे-बड़े वायुयानों और अंतरिक्ष यात्री की वेषभूषा का निर्माण किया था। सुपार्श्व ने ही हनुमान को लघुयान में बिठाकर समुद्र लंघन कराकर त्रिकुट पर्वत पर विमान उतारा था। त्रिकुट पर्वत लंका की सीमा परिधि में था। सुपार्श्व के पास आग्नेयास्त्र भी थे,जिनसे प्रहार कर हनुमान ने नागमाता सुरसा को परास्त किया था। इस अस्त्र के प्रयोग से समुद्र में आग लगी और नाग जाति जलकर नष्ट हो गई। त्रिकुट पर्वत के पहले मैनाक पर्वत था,जिसमें रत्नों की खानें थीं। रावण इन रत्नों का विदेश व्यापार करता था। लंका की संपन्नता का कारण भी यही खानें थीं। सुपार्श्व ने राम-रावण युद्ध में राम का साथ दिया था।

“लंकेश्वर”के अनुसार लंका में ऐसे वायुयान भी थे,जो आकाश में खडे़ हो जाते थे और आलोप हो जाते थे। इनमें चालक नहीं होता था। ये स्वचालित थे। उस समय आठ प्रकार के विमान थे जो सौर्य ऊर्जा से संचालित होते थे। रावण पुत्र मेघनाद की निकुम्भिला वेधशाला थी। जिसमें प्रतिदिन एक दिव्य रथ अर्थात एक लड़ाकू विमान का निरंतर निर्माण होता रहता था। मेघनाद के पास ऐसे विचित्र विमान भी थे जो आंख से ओझल हो जाते थे और फिर धुआं छोड़ते थे। जिससे दिन में भी अंधकार हो जाता था। यह धुआं विषाक्त गैस अथवा अश्रु गैस होती थी। ये विमान नीचे आकर बम बारी भी करते थे।

मेघनाद की वेधशाला में ‘शस्त्रयुक्त”स्यंदन”(राकेट) का भी निर्माण होता था। मेघनाद ने युद्ध में जब इस स्यंदन को छोड़ा तो यह अंतरिक्ष की ओर बहुत ही तेज गति से बढ़ा। इन्द्र और वरूण स्यंदन शक्ति से परिचित थे। उन्होंने मतालि को संकेत कर दूसरा शक्तिशाली स्यंदन छुड़ाया और मेघनाद के स्यंदन को आकाश में ही नष्ट कर दिया और इसके अवशेष को समुद्र में गिरा दिया।

लंका में यानों की व्यवस्था प्रहस्त के सुपुर्द थी। यानों में ईंधन की व्यवस्था प्रहस्त ही देखता था। लंका में सूरजमुखी पौधे के फूलों से तेल (पेट्रोल) निकाला जाता था (अमेरिका में वर्तमान में जेट्रोफा पौधे से पेट्रोल निकाला जाता है।) अब भारत में भी रतनजोत के पौधे से तेल बनाए जाने की प्रक्रिया में तेजी आई है। लंकावासी तेल शोधन में निरंतर लगे रहते थे। लड़ाकू विमानों को नष्ट करने के लिए रावण के पास भस्मलोचन जैसा वैज्ञानिक था जिसने एक विशाल”दर्पण यंत्र”का निर्माण किया था। इससे प्रकाशपुंज वायुयान पर छोड़ने से यान आकाश में ही नष्ट हो जाते थे। लंका से निष्कासित किये जाते वक्त विभीषण भी अपने साथ कुछ दर्पण यंत्र ले आया था। इन्हीं “दर्पण यंत्रों”में सुधार कर अग्निवेश ने इन यंत्रो को चौखटों पर कसा और इन यंत्रों से लंका के यानों की ओर प्रकाश पुंज फेंका जिससे लंका की यान शक्ति नष्ट होती चली गई। बाद में रावण ने अग्निवेश की इस शक्ति से निपटने के लिए सद्धासुर वैज्ञानिक को नियुक्त किया।

श्री शाही का कहना है कि कथित बुद्धिजीवियो और पाखण्डी पूजा-पाठियों द्वारा रामायणकाल की इन अद्भुत शक्तियों को अलौकिल व ऐन्द्रिक कहकर इनका महत्व ही समाप्त करने का षड्यंत्र किया जा रहा है। जबकि ये शक्तियां ज्ञान का वैज्ञानिक बल थीं। जिसमें मेघनाद ब्रह्म विद्या का विशारद था। उसका पांडित्य रावण से भी कहीं बढ़कर था। विस्फोटक व विंध्वसक अस्त्रो का तो इस युद्ध में खुलकर प्रयोग हुआ जिसमें ब्रह्मास्त्र सबसे खतरनाक था। इन्द्र ने शंकर से राम के लिए दिव्यास्त्र और पशुपतास्त्र मांगे थे। इन अस्त्रों को देते हुए शंकर ने अगस्त्य को चेतावनी देते हुए कहा,‘अगस्त्य तुम ब्रह्मास्त्र के ज्ञाता हो और रावण भी। कहीं अणुयुद्ध हुआ तो वर्षों तक प्रदूषण रहेगा। जहां भी विस्फोट होगा,वह स्थान वर्षों तक निवास के लायक नहीं रहेगा। इसलिए पहले युद्ध को मानव कल्याण के लिए टालना ,लेकिन अपने-अपने अहं के कारण युद्ध टला नहीं। ब्रह्माशास्त्र के प्रस्तुत परिणामों से स्पष्ट हो जाता है कि ब्रह्मास्त्र परमाणु बम ही था।

राम द्वारा सेना के साथ लंका प्रयाण के समय द्रुमकुल्य देश के सम्राट समुद्र ने रावण से मैत्री होने के कारण राम को अपने देश से मार्ग नहीं दिया तो राम ने अगस्त्य के अमोध अस्त्र (ब्रह्मास्त्र) को छोड़ दिया। जिससे पूरा द्रुमकुल्य (मरूकान्तार) देश ही नष्ट हो गया। यह अमोध अस्त्र हाइड्रोजन बम अथवा एटम बम ही था। मेघनाद की वेधशाला में शीशे (लेड) की भट्टियां थीं। जिनमें कोयला और विद्युत धारा प्रवाहित की जाती थी। इन्हीं भट्टियों में परमाणु अस्त्र बनते थे और नाभिकीय विखण्डन की प्रक्रिया की जाती थी।

युद्ध के दौरान राम सेना पर सद्धासुर ने ऐसा विकट अस्त्र छोड़ा जो संभवतः ब्रह्मास्त्र से भी ज्यादा शक्तिशाली था,जो सुवेल पर्वत की चोटी को सागर में गिराता हुआ सीधे दक्षिण भारत के गिरी को समुद्र में गिरा दिया। सद्धासुर का अंत करने के लिए अगस्त्य ने सद्धासुर के ऊपर ब्रह्मास्त्र छुड़वाया। जिससे सद्धासुर और अनेक सैनिक तो मारे ही गए लंका के शिव मंदिर भी विस्फोट के साथ ढहकर समुद्र में गिर गए। दोनों ओर प्रयोग की गई ये भयंकर परमाणु शक्तियां थीं। इस सिलसिले में डॉ. चांसरकर ने ताजा जानकारी देते हुए अपने लेख में लिखा है, पांडुनीडि का भाग या इससे भी अधिक दक्षिण भारत का भाग इस परमाणु शक्ति के प्रयोग से सागर में समा गया था और राम द्वारा”करूणागल” के स्वर्ण और रत्नों से भरे शिव मंदिर, स्वर्ण अट्टालिकाएं भीषण विस्फोटों से सागर में गिर गईं। इन विस्फोटों से लंका का ही नहीं अपितु भारत का भी यथेष्ठ भाग सागर में समा गया था और लंका से भारत,की दूरी,उस भू-भाग के नष्ट होने से बढ़ गई थी। नल-सेतु (जल डमरूमध्य) का भाग भी रक्ष रणनीतिज्ञों ने नष्ट कर दिया होगा। यही कारण है कि त्रिकुट पर्वत की चोटियां भी तिरूकोणमल के भाग के साथ लंका के सागर में समा गईं होंगी और समुद्र भी गहरा हो गया होगा। इसका कारण यह भी हो सकता है कि युद्ध के बाद अवशेष बम आदि सामग्री को नष्ट करने के लिए अगस्त्य ने समुद्र में ही विस्फोट कराकर लंका से विदा ली हो,जिससे सागर गहरा हो गया। क्योंकि बाल्मीकि रामायण में उथले उदधि और यहां नावें नहीं चल सकती का उल्लेख हनुमान करते हैं। अब गहरे पानी पैठकर पनडुब्बियों से तिरूकोणमलै के रामायणकलीन शिव मंदिरों के कई अवशेष खोज निकाले हैं। डिस्कवरी चैनल द्वारा इन अवशेषों का बड़ा सुंदर प्रस्तुतिकरण किया गया है। अब तो अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा”ने त्रेतायुगीन इस ऐतिहासिक पुल को खोज निकाल कर इसके चित्र भी दुनिया के सामने प्रस्तुत कर दिए हैं। शेधों से पता चला है कि पत्थरों से बना यह पुल मानव निर्मित है। इस पुल की लंबाई लगभग तीस किलोमीटर बताई गई है। यह पुल लगभग 17 लाख 50 हजार साल पुराना आधुनिक वैज्ञानिक तकनीक के आधार से आंका गया है। नवीनतम दूरसंवेदन तकनीक से इस सेतु के चित्र लिए गए हैं। अब यह सेतु राम-रावण युद्ध के प्रमाण का साक्षात उदाहरण बन गया है,जिसे झुटलाया नहीं जा सकता।

जब रावण अपने अंत समय से पहले वेधशाला में दिव्य-रथ के निर्माण में लीन था तब अग्निवेश ने अग्निगोले छोड़कर वेधशाला और उसके पूरे क्षेत्र को नष्ट करने की कोशिश की। श्री शाही के अनुसार ये अग्निगोले थर्माइट बम थे,जिसके प्रहारे से इस्पात की मोटी चादर तक क्षण मात्र में पिघल जाती थी। लंका के हेम मंदिर,हेमभूषित इन्हीं अग्निगोलों से पिघली थी। रावण के प्राणों का अंत जब अगस्त्य का ब्रह्मास्त्र नहीं कर सका तो राम ने रावण पर ब्रह्मा द्वारा आविष्कृत ब्रह्मास्त्र छोड़ा जो बहुत ही ज्यादा शक्तिशाली था। इससे रावण के शरीर के अनेक टुकड़े हो गए और वह मृत्यु का प्राप्त हो गया।

इस विश्व युद्ध में छोटे-मोटे अस्त्रों की तो कोई गिनती ही नहीं थी। ये अस्त्र भी विकट मारक क्षमता के थे। शंबूक “‘सूर्यहास खड्ग”का अपनी वेधशाला में आविष्कार किया था। इस खड़्ग में सौर ऊर्जा के संग्रहण क्षमता थी। जैसे ही इनका प्रयोग शत्रु दल पर किया जाता तो वे सूर्यहास खड्ग से चिपक जाते। यह खड्ग शत्रु का रक्त खींच लेता और चुंबक नियंत्रण शक्ति से धारक के पास वापस आ जाता। लक्ष्मण ने खड्ग को हासिल करने के लिए ही शंबूक का वध किया था।

लंका के द्वार पर ‘दारू पंच अस्त्र-स्थापित थे। इनका अविष्कार शुक्राचार्य भार्गव ने किया था। जिसे”रूद्र कीर्तिमुख’ “का नाम भी दिया गया था। इस यंत्र की विशेषता थी कि जो गतिविधि शत्रु करता था उसका पूरा चित्र इस यंत्र पर उभर आता था और इसके मुख से अग्निगोला निकलता और शत्रु का संहार करता। यह कीर्तिमुख संभवतः यंत्र मानव था। रावण धारावाहिक में सुमाली जब सुमाली लाट लौट रहा होता है तब इंद्र सुमाली की गतिविधियों को इसी “कीर्तिमुख अस्त्र” से देखते हैं और सुमाली के संहार के लिए अग्निगोला छोड़ते हैं। इसी वक्त इस घटना को शिव देख रहे होते हैं और वे सुमाली की रक्षा के लिए इस गोले को बीच में ही नष्ट कर देते हैं।

राम ने वैष्णव चाप पर आग्नेयास्त्र और प्रक्षेपास्त्र चलाये थे, ,जो भंयकर विस्फोटक के साथ शत्रुओं का नाश करते थे। राम को अग्निवेश ने एक विशिष्ट कांच दिया था जो संभवतः दूरबीन था। इसी दूरबीन से राम ने लंका के द्वार पर लगे”दारूपंच अस्त्र’को देखा और प्रक्षेपास्त्र छोड़कर नष्ट कर दिया।

जब कुंभकर्ण और लक्ष्मण के बीच संग्राम चल रहा था,तब लक्ष्मण ने कुंभकर्ण पर मानवास्त्र छोड़ा,जिसे कुंभकर्ण ने कांचनमालिनी शक्ति से नष्ट कर दिया। इस शक्ति की विशेषता थी कि इसे छोड़ते ही आठ घंटियां मधुर ध्वनि उत्पन्न करती हुईं बजती थीं,ये घंटियां तत्काल सौर ऊर्जा ग्रहण करती थीं। यह शक्ति वायुवेग से चलती थी और सौर मण्डल की विद्युत स्वतः उत्पन्न होती थी। इस अस्त्र से जीवित बचना मुश्किल ही था,क्योंकि शत्रु शरीर में विद्युत धारा प्रवाहित हो जाने के कारण शत्रु का अंत हो जाता था।

कुंभकर्ण अपने कंठ में”जीवन रत्न वलय”पहनता था। इस यंत्र की विशेषता थी कि इससे लौ की चकाचौंध करती हुई किरणें निकलती थीं,उनके कारण शत्रु के अस्त्र ठहर नहीं पाते थे। लक्ष्मण ने जब कुंभकर्ण पर”अर्धनाराच” छोड़ा तो कुंभकर्ण ने”अर्धनाराच”को इसी वलय से किरणें निकाल कर नष्ट किया। लक्ष्मण ने शंबूक से प्राप्त करने के लिए अस्त्र “चंद्रहास खड्ग”का भी कुंभकर्ण पर बार किया,जिसे कुंभकर्ण ने शूल के प्रहार से काट दिया। बाद में कुंभकर्ण ने लक्ष्मण पर”मोक्खशक्ति”छोड़ी जिसका प्रतिकार लक्ष्मण के पास नहीं था और लक्ष्मण घायल हो गए।

रामायणों में कुंभकर्ण को ऐसा आलसी निरूपित किया है,जो छह माह सोता रहता था और एक दिन के लिए भोजन आदि के लिए उठता और फिर सो जाता था। जबकि वास्तविकता यह थी कि कुंभकर्ण राष्ट्रभक्त तो था ही वह एक वैज्ञानिक भी था। वह अपनी वेधशाला में अपनी पत्नी वज्रज्वाला के सहयोग से निरंतर आविष्कार करने में लगा रहता था। ऐसे में वह खाने-पीने की सुध भी भूल जाता था और अपनी वेधशाला से कम ही बाहर निकलता। कुंभकर्ण अपनी वेधशाला में यंत्र मानव (रोबोट) दारूपंच अस्त्र (राडर) दर्पण (दूरदर्शन जैसा यंत्र)व अणुअस्त्रों के निर्माण में लगा रहता था। कुंभकर्ण ने “चित्राग्नि”यंत्र का आविष्कार भी किया था। इस यंत्र से पृथ्वी के सभी लोकों की स्थिति को चित्रों के मध्यम से जाना जा सकता था। कुंभकर्ण ने इसे लंबे अनुसंधान के बाद हासिल किया था। कुंभकर्ण की यंत्र मानव कला को”ग्रेट इन्डियन”पुस्तक में”विजार्ड आर्ट”का दर्जा दिया है। इस कला में रावण की पत्नी धान्यमालिनी भी पारंगत थी, जो राम-रावण युद्ध के समय गर्भवती थी। रावण की मृत्यु के बाद धान्यमालिनी ने अरिमर्दन नाम के एक पुत्र को जन्म दिया,जो वीर और प्रतापी था। विभीषण के राज्यारोहण के लगभग बीस साल बाद इसी अरिमर्दन ने विभीषण को पदच्चयुत किया और लंका की पुनः सत्ता संभालकर लंकाधीश कहलाया। अरिमर्दन ने एक बार फिर रावण द्वारा स्थापित मूल्यों की पुर्नस्थापना की।

रावण ने जब इस युद्ध का पटाक्षेप करने के लिए निर्णायक लड़ाई लड़ी तो धान्यमालिनी ने राम की सेना पर मकरमुख,आशी विषमुख,वाराह मुख जैसे विंध्वंसकारी अस्त्रों का प्रयोग किया। इन अस्त्रों से छूटने वाले आयुधों में अग्निदीप्तिमुख प्रमुख था। जो छोड़ने पर सौर मण्डल की ओर सीधा जाता,फिर किसी नक्षत्र के समान चमकता और आकाश में ही टूटता। फिर सीधा पृथ्वी की ओर गिरकर शत्रु का नाश करता। अंत में राम ने रावण से छुटकारा पाने के लिए ब्रह्मा का दिया हुआ ब्रह्मास्त्र छोड़ा,जिससे रावण वीरगति को प्राप्त हुआ।

अगस्त्य ने राम के हितार्थ शंकर से”अजगव धनुष”मांगा था। इस धनुष को मदनमोहन शर्मा”शाही”ने एक पैटन टैंक माना है। इस धनुष की व्याख्या करते हुए श्री शाही”लंकेश्वर”में लिखते हैं-‘चाप’ अभी बंदूक के घोड़े (ट्रेगर) के लिए उपयोग में लाया जाता है। चाप ट्रेगर का ही पर्याय वाची होकर अजगव धनुष है। पिनाक धनुष में ये सब अनेक पहियों वाली गाड़ी पर रखे रहते थे। तब चाप चढ़ाने अथवा घोड़ा (टेªगर) दबाने से भंयकर विस्फोट करते हुए शत्रुओं का विनाश करते थे।

राम और रावण की सेनाओं के पास भुशुंडी (बंदूक) थीं। कुछ सैनिकों के पास स्वचालित भुशुंडिया भी थीं। रावण ने एक छत्र का भी निर्माण किया था, जिसे”ब्रह्म-छत्र”कहा जाता था। संकटकालीन स्थिति में इस छत्र से लंका को ढक दिया जाता था, जिससे लंका में अंधकार हो जाता था और शत्रु को एकाएक लंका दिखाई नहीं देती थी। संभवतः इस छत्र का निर्माण वायुयानों से छोड़े जाने वाले विस्फोटकों से बचने के लिए किया गया होगा। वैसे इस तरह के छत्र का निर्माण अभी दुनिया में नहीं हुआ है।

लंका में दूर संचार यंत्रों का भी निर्माण होता था व चलन था। दूरभाष की तरह उस युग में ‘दूर नियंत्रण यंत्र था जिसे मधुमक्खी कहा जाता था। जब इससे वार्ता की जाती थी तो वार्ता से पूर्व इससे भिन-भिन की ध्वनि प्रकट होती थी। संभवतः इसी ध्वनि प्रस्फुटन के कारण इस यंत्र का नामकरण मधुमक्खी किया गया होगा। ये यंत्र लंका के विशिष्ठ अधिकारियों और राज-परिवार के लोगों के पास रहते थे। विभीषण की लंकाधीश बनने की उत्कट लालसा थी। इसलिए उसने सीता को भी एक मधुमक्खी यंत्र दे दिया था। जिस पर संवाद जारी रखते हुए सीता ने विभीषण को विश्वासघाती बनाकर अपनी ओर कर लिया। बाद में अशोक वाटिका में मेघनाद ने इस यंत्र को पकड़ लिया और रावण के सामने काका विभीषण के राज्यद्रोही होने की पोल खोल दी। फलस्वरूप रावण ने विभीषण को लंका से निष्कासित कर दिया था। वैसे लंका की संहिता के अनुसार राज्यद्रोह का दण्ड मृत्यु दण्ड था, लेकिन छोटा भाई होने के कारण रावण ने उसे क्षमा दान दे दिया। पर विभीषण इतना कृतध्न निकला कि वह लंका से प्रयाण करते समय मधुमक्खी और दर्पण यंत्रों के अलावा अपने चार विश्वसनीय मंत्री अनल,पनस,संपाती और प्रभाती को भी साथ,राम की शरण में ले गया और राम की हित पूर्ति के लिए रावण के विरूद्ध इन यंत्रों का उपयोग भी किया। दर्पण यंत्र अंधकार में प्रकाश का आभाष प्रकट करता था,जिसे ग्रंथों में “त्रिकाल दृष्टा”कहा गया है। लेकिन यह यंत्र त्रिकालदृष्टा नहीं बल्कि दूरदर्शन जैसा कोई यंत्र था।

लंका के दस हजार सैनिकों के पास त्रिशूल नाम के यंत्र थे। जो दूर-दूर तक संदेश का आदान-प्रदान करते थे। संभवतः ये त्रिशूल वायर लैस ही होंगे। लंका में यांत्रिक सेतु,यांत्रिक कपाट और ऐसे चबूतरे भी थे जो बटन दबाने से ऊपर नीचे होते थे। ये चबूतरे संभवतः लिफ्ट थे।

राम-रावण युद्ध में प्रयोग में लाईं गईं शक्तियों को मायावी या दैवीय शक्ति कहकर उनके वास्तविक महत्व,आविष्कार के ज्ञान व सार्म्थ्य को सर्वथा नकार दिया गया। वास्तव में ये विंध्वंसकारी परमाणु अस्त्र और अद्भुत भौतिक यंत्र थे। इनकी सूक्ष्म और यथार्थ विवेचना के लिए इनके रहस्यों को समझना अभी शेष है। विश्वविद्यालयों में विभिन्न रामायणों से लिए अनर्गल पाठ पढ़ाने की बजाय अच्छा है,विज्ञान से जुड़े अंशों को पाठ के रूप में संकलित कर पढ़ाया जाए। इससे विद्यार्थियों में प्राचीन भारतीय विज्ञान को जानने की जिज्ञासा का प्रादुर्भाव उत्पन्न होगा और छात्र उस मिथक को तोड़ंगे,जिसे कवि की कपोल कल्पना कहकर अब तक उपेक्षा की जाती रही है। इस दिशा में हमारे वैज्ञानिकों और विज्ञान अध्येताओं को भी सकारात्मक पहल करना चाहिए।

संदर्भ ग्रंथ सूची:-

• वाल्मीकि रामायण

• रामकथा उत्पत्ति और विकास: डॉ. फादर कामिल बुल्के

• लंकेश्वर (उपन्यास): मदनमोहन शर्मा”शाही”

• हिन्दी प्रबंध काव्य में रावण: डॉ. सुरेशचंद्र निर्मल

• रावण-इतिहास: अशोक कुमार आर्य

• चैरियट्स गॉड्स: ऐरिक फॉन डानिकेन

• क्या सचमुच देवता धरती पर उतरे थे: डॉ. खड्ग सिंह वल्दिया (लेख) धर्मयुग 27 मई 1973

• प्रमाण तो मिलते हैं: डॉ. ओमकारनाथ श्रीवास्तव (लेख) 27 मई 1973

• महर्षि भारद्वाज तपस्वी के भेष में एयरोनॉटिकल साइंटिस्ट (लेख) विचार मीमांसा 31 अक्टूबर 2007

• विजार्ड आर्ट।

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