बलात्कार: पितृसत्ता का हिंसात्मक उत्सव

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जब महिला एवं बाल विकास मंत्री  मेनका गाँधी ने नवम्बर 2016 में यह बयान दिया था कि बलात्कार के मामलों के संदर्भ में भारत उन चार देशों में सम्मिलित है जहाँ सबसे कम बलात्कार होते  हैं तो उनकी बड़ी आलोचना हुई थी और उन्हें बताया गया था कि भारत बलात्कार के मामलों की संख्या के संदर्भ में 36735 के आंकड़े(एनसीआरबी 2014) के साथ अमेरिका,इंग्लैंड और स्वीडन के साथ उन शीर्षस्थ चार  देशों में सम्मिलित है जहाँ सर्वाधिक बलात्कार होते हैं। मेनका गाँधी का कथन अंशतः सही था। प्रति एक लाख जनसंख्या पर होने वाले बलात्कार के प्रकरणों की दर की बात करें तो भारत में इसकी दर 2.6  है, 29 अन्य देश ही ऐसे हैं जहाँ यह दर इससे भी कम है। अतः इन आंकड़ों में भारत की स्थिति तुलनात्मक रूप से बेहतर लगती है। आंकड़ों की अपनी दुनिया होती है और इसकी सीमाएं भी होती हैं। लेकिन कई बार ये हमारे परसेप्शन को चुनौती देते हैं और हमें झकझोरते भी हैं। जब हमें यह ज्ञात होता है कि 95.5 प्रतिशत बलात्कार पीड़िताएं बलात्कारियों को जानती हैं और वे इनके परिजन, परिचित,सहकर्मी और मित्र ही होते हैं तो हमें आश्चर्य होता है। विश्व के विकसित देशों में बलात्कार की ऊंची दर शायद हमें इन देशों की भोगवादी संस्कृति की निंदा और हमारे देश की आध्यात्मिकता का गौरवगान करने का अवसर प्रदान कर दे किन्तु जब हम विभिन्न बाबाओं के यौन शोषण की शिकार सैकड़ों महिलाओं को देखते हैं तो हमें उस भयानकता का बोध होना चाहिए जो इसमें अन्तर्निहित है। धार्मिक और सामाजिक स्थिति का लाभ लेकर बलात्कार पीड़िताओं का किसी बाबा या निकट संबंधी ने जब पहली बार यौन उत्पीड़न किया होगा, तब इनकी ओर से शायद क्षीण सा प्रतिरोध देखने को मिला होगा, किन्तु इसके बाद इन्हें कंडीशन कर आत्महीनता के उस चरम बिंदु तक पहुँचाना कि वे न केवल इस यौन शोषण को अपनी नियति मान कर स्वीकार कर लें बल्कि इसमें आनंद भी ढूंढने लगें, नृशंस और अमानवीय है। भारतीय समाज परंपरा का यह कुटिल कौशल कि वह बलात्कार को बलात्कार न समझने के लिए पीड़िता को प्रशिक्षित कर दे और उसके दास बोध को इस सीमा तक बढ़ा दे कि उसे आत्मनिर्णय और स्वतंत्रता से भय लगने लगे किसी संवेदनशील व्यक्ति को सिहरा सकता है। यही कारण है कि आंकड़े आश्वस्त नहीं करते और समुद्र में डूबे विशाल हिमखंड की अति लघु ऊपरी नोक की छवि प्रस्तुत करते हैं। न जाने कितनी ही महिलाएं होंगी, बलात्कार जिनकी दिनचर्या का एक भाग बन गया होगा और वे इस तरह इसकी अभ्यस्त हो गई होंगी कि इसकी भयानकता का बोध तिरोहित हो जाए। ऐसा लगता है कि हम बलात्कार करने में जितने प्रवीण हैं उतने ही दक्ष इसकी निंदा करने में हैं। हम बलात्कारी को कठोरतम दंड देने की हिमायत भी करते हैं किन्तु आदतन बलात्कारी उजागर ही नहीं हो पाते क्योंकि हमने पीड़िताओं को मानसिक रूप से इतना भयभीत और दीन बना दिया है कि शिकायत बहुत कम मामलों में होती है। जो मामले सामने आते हैं वे भी मुख्यतया पुरुष की वादा खिलाफी और विश्वासघात से अधिक सम्बंधित होते हैं। रिश्तों को कलंकित करने वाले जघन्य बलात्कारी बहुत कम चिन्हित हो पाते हैं। किसी भी अपराध के लिए कठोरतम दंड का प्रावधान अनेक बार अपराध पीड़ित की हत्या का कारण बनता है। ऐसी ही आशंका बलात्कार के लिए मृत्युदंड के संदर्भ में अवश्य होती है। फिर भी बलात्कार के बाद हत्या अथवा ऐसी अमानवीय क्रूरता के लिए जो पीड़िता के जीवन को नर्क बना दे, मृत्यु दंड की आवश्यकता बनी रहेगी। किन्तु यह विश्वास करना कि मृत्युदंड के प्रावधान से बलात्कार कम होंगे, खुद को भ्रम में रखना है। संयुक्त राज्य अमेरिका के अनेक प्रान्तों में बलात्कार के लिए मृत्युदंड के प्रावधान के बाद भी इनकी संख्या कम नहीं हुई है।
सुप्रीम कोर्ट ने इसी वर्ष एक फैसला दिया है जिसके अनुसार 15 से 18 वर्ष के मध्य की आयु की नाबालिग पत्नी के साथ यौन संबंध बनाने पर पति को बलात्कार का दोषी माना जा सकता है। यह फैसला सवालों के घेरे में भी रहा। इस बात पर असंतोष व्यक्त किया गया है कि राज्यों का पक्ष सुने बिना सुप्रीम कोर्ट ने अपना निर्णय दिया। बाल विवाह देश के अनेक राज्यों में एक कुरीति के रूप में उपस्थित है। राजस्थान,आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में बड़ी संख्या में बाल विवाह होते हैं। समस्या की भयानकता का अंदाजा राष्ट्रीय परिवार कल्याण सर्वे 2015-16 के आंकड़ों से भी होता है जो यह दर्शाते हैं कि शहरी इलाकों में 17.5 और ग्रामीण इलाकों में 31.5 प्रतिशत लड़कियों के बाल विवाह होते हैं। ऐसी दशा में यह कानून कितना जायज है? वैवाहिक बलात्कार को अपराध माने जाने के एक अन्य मामले की सुनवाई में केंद्र सरकार यह कह चुकी है कि मैरिटल रेप को दंडनीय अपराध बनाना विवाह संस्था को अस्थिर कर सकता है और इसके माध्यम से पतियों को प्रताड़ित किए जाने की पूरी पूरी आशंका है। सरकार के अनुसार इस संबंध में विदेशों के उदाहरणों को नजीर मानने के बजाए भारतीय परंपरा और परिस्थितियों को ध्यान में रखा जाए। सरकार की राय उस दृष्टिकोण पर आधारित लगती है जिसके अनुसार पुरुषवाद और नारीवाद का अतिरेक विवाह और परिवार नामक संस्था के विघटन के लिए उत्तरदायी है। हालांकि व्यवहार में स्वेच्छाचारी पुरुष की मनमानी को सहन कर विवाह और परिवार जैसी संस्थाओं की रक्षा का उत्तरदायित्व अघोषित रूप से नारी पर डाला जाता है और उसके न्यायोचित विरोध को इनके विघटन हेतु उत्तरदायी कदाचरण माना जाता है। इसी प्रकार अपराध कानून संशोधन अधिनियम 2013 के तहत रेप की परिभाषा में गलत ढंग से छूने को सम्मिलित किए जाने पर भी इसके दुरूपयोग की बात उठी थी। दरअसल समाज सुधार से सम्बंधित कानून प्रभावित वर्ग में जागरूकता के अभाव के कारण उपयोगी सिद्ध नहीं होते। यह वर्ग इतना निरीह और दयनीय होता है कि इन कानूनों का लाभ उठाने के लिए आवश्यक संघर्षशीलता का भी इसमें अभाव होता है। सक्षम और जानकार लोग ऐसे कानूनों का दुरुपयोग करते हैं और दोष इस अभागे समुदाय पर डाल दिया जाता है।
बलात्कार होते क्यों हैं? मनोवैज्ञानिकों की राय आम धारणा से भिन्न है। हम समझते हैं बलात्कार येन केन प्रकारेण यौन सुख प्राप्त करने हेतु किए जाते हैं किंतु मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बलात्कार हिंसात्मक आधिपत्य स्थापित करने और परपीड़क आनंद प्राप्त करने के ध्येय से अधिक होते हैं। इनमें बलात्कार पीड़िता का एक वस्तु की भांति इस्तेमाल किए जाने की प्रवृत्ति देखी गई है। बलात्कार सामाजिक और आर्थिक गुलामी एवं इससे जुड़े दमन,प्रताड़ना और अपमान की अंतिम परिणति है। पुरुष प्रधान और पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था के अलावा जातीय और  धार्मिक प्रतिद्वंद्विता भी बलात्कारों का कारण बनती है और बलात्कार को प्रतिशोध, दंड या विजयोद्घोष के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। शारीरिक क्षति पहुंचाने वाला और  प्राणघातक बलात्कार अनेक बार इन्हीं जातीय- धार्मिक संघर्षों की परिणति होता है। पोर्न फिल्मों और पोर्न साहित्य को बढ़ते बलात्कारों के लिए दोषी माना जाता है। पोर्न फिल्में वास्तव में नारी को भोग्या और यौन दासी मानने के उपभोगवादी विमर्श का हिस्सा हैं जिन पर पुरुषवादी अहंकार का स्पष्ट प्रभाव दिखता है। हमारे देश में सेक्स को स्वस्थ सार्वजनिक विमर्श के दायरे से बाहर रखा गया है, घर परिवार और समाज में नारी का दमन सामान्य बात है और पुरुषों में सामंती अहंकार प्रबलता से जीवित है इसलिए इंटरनेट और अन्य माध्यमों से प्राप्त अनसेंसर्ड पोर्न के घातक प्रभाव पड़ने स्वाभाविक हैं।
भारत जैसे देश में जहाँ नारी के लिए विवाहपूर्व यौन संबंध सामाजिक रूप से वर्जित हैं, उससे विवाह तक अपने कौमार्य की रक्षा करने की अपेक्षा की जाती है तथा जहाँ यौन समागम को अनावश्यक रूप से नैतिक व्यवहार और शुचिता के आकलन की अंतिम कसौटी बनाकर रखा गया है उससे यह आशा करना व्यर्थ है कि वह बलात्कार की शिकायत करने का साहस जुटा पाएगी। पुरुषों के लिए ये पाबंदियां नहीं हैं और वे इन पाबंदियों का उपयोग नारी के भयादोहन और उसकी चरित्र हत्या के लिए करते रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट द्वारा दुराग्रहपूर्ण कहे गए अवैज्ञानिक टू फिंगर टेस्ट की लोकप्रियता का कारण ही यह था कि यह डॉक्टरों के माध्यम से स्त्री को दुश्चरित्र और यौन संबंधों का आदी बताने की सुगम विधि थी। जस्टिस जे एस वर्मा समिति की रिपोर्ट कहती है कि सेक्स अपराध कानून का विषय है न कि चिकित्सकीय निदान का। लेकिन यह भी सच है कि बलात्कार विषयक कानूनी प्रक्रिया की संरचना पर पुरुषवाद की छाप को हटाना आसान नहीं है।
आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में बलात्कार पीड़ित महिलाओं में से लगभग आधी संख्या युवा महिलाओं(18 से 30 वर्ष) की होती है। लेकिन शेष 50 प्रतिशत महिलाओं का विवरण चौंकाने वाला है। इनमें एक बड़ी संख्या अबोध बालिकाओं, किशोरियों, अधेड़ और वृद्ध महिलाओं की है। 6 वर्ष से कम उम्र की बालिकाएँ  और 60 वर्ष से अधिक आयु की वृद्धाएँ भी बलात्कार की शिकार बनाई गई हैं। इन आंकड़ों को देखकर ऐसा नहीं लगता कि नारी के परिधानों का उसके बलात्कार का शिकार होने से कोई संबंध है। किंतु बलात्कार से जुड़ा परिधानों का एक लंबा चौड़ा विमर्श है जो घोर पारंपरिकता और उग्र नारीवादी आधुनिकता के मध्य झूलता है। परंपरावादियों का कहना है कि नारी का आधुनिक पहनावा और अंग प्रदर्शन पुरुष के लिए कामोद्दीपक का कार्य करता है और उसे बलात्कार करने के लिए उकसाता है जबकि पारंपरिक भारतीय पहनावा पुरुष के मन में ऐसे भाव उत्पन्न नहीं होने देता। उग्र नारीवादियों का कहना है कि दोष पुरुष की बुरी नजर का है न कि नारी के पहनावे का और नारी हर वैसा वस्त्र पहनने को स्वतंत्र है जो उसे पसंद है। एक वर्ग मध्यममार्गियों का है जो इस पूरे मसले को व्यावहारिकता की नजर से देखने का परामर्श देते हैं। इनके अनुसार हर समाज का पोशाकों के प्रति अपना दृष्टिकोण होता है। इसी प्रकार एक ही समाज के अलग अलग वर्ग एक ही पोशाक पर विभिन्न प्रकार से प्रतिक्रिया कर सकते हैं। नारी की आधुनिक पोशाक महानगरीय उच्च वर्ग में सहज स्वीकार्य हो सकती है किंतु ग्रामीण और कस्बाई क्षेत्रों में यह अटपटी और उत्तेजक मानी जाएगी। हमारे समाज में बहुसंख्यक पुरुषों का दृष्टिकोण इस संबंध में उदार नहीं है और वे नारी को कपड़ों में ढंका देखने के आदी रहे हैं। इनके लिए  आधुनिक पाश्चात्य परिधानधारी नारी उत्तेजक, चरित्रहीन और भोग्या है इसलिए नारी के लिए यह आवश्यक है कि वह व्यावहारिक बने और परिस्थिति के अनुसार पारंपरिक परिधान पहन कर खुद को पुरुषों के आक्रमण से बचाए। इस दृष्टिकोण का विस्तार नारी को रात में अकेले घर से न निकलने और पुरुष यात्रियों से भरी टैक्सी में न बैठने आदि का परामर्श देता है। इसके पीछे तर्क यह है कि नारी का आधुनिक पोशाक पहनना, रात में घूमना आदि नैतिक दृष्टि से भले ही सही हों किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से गलत हैं क्योंकि हमारा समाज अभी इतना विकसित नहीं हो पाया है। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे पुलिस प्रशासन और सरकार की उपस्थिति के बावजूद हम अपने कीमती सामानों को छिपाकर रखते हैं, पार्टियों और यात्रा में कीमती गहने नहीं पहनते और रात में सुनसान इलाकों की यात्रा से बचने की कोशिश करते हैं। यदि हम ये सावधानियां नहीं रखते तो लूटमार के शिकार हो सकते हैं और तब पुलिस और सरकार को दोष देने से कोई लाभ न होगा क्योंकि हमारा नुकसान तो हो चुका होगा। यह दृष्टिकोण नारी की कमजोर शारीरिक बनावट और सेक्सुअल एनकाउंटर में पुरुष की आक्रामक भूमिका का भी हवाला देता है। सामाजिक मनोविज्ञान के विशेषज्ञों का एक वर्ग(बैल, कुरिलॉफ एवं लॉट्स,1994) ऐसा भी है जो बलात्कार के लिए जिम्मेदार ठहराने की प्रक्रिया में भी लिंग भेद की भूमिका देखता है। इसके अनुसार बलात्कार हमेशा पुरुषों द्वारा स्त्रियों पर किया जाता है, इस कारण जिम्मेदारी तय करने में स्त्रियों की सहानुभूति पीड़िता के प्रति होती है और वे पुरुष को ही दोषी मानती हैं तथा उसे दण्डित कराना चाहती हैं। जबकि पुरुषों की सहानुभूति बलात्कारी के प्रति होती है और वे उसे निर्दोष मानकर उसे बचाने का यत्न करते हैं।
नारीवाद से सम्बंधित अनेक गहरे दार्शनिक प्रश्न भी हैं जिन पर चर्चा आवश्यक है। क्या आधुनिकता नारी की समस्याओं का समाधान है? क्या नारी का आधुनिकता बोध पुरुषवाद की छाया से मुक्त है? क्या नारी की मुक्ति पुरुष जैसा बनने में है? क्या लैंगिक समानता का दर्शन नारी को पुरुष के बराबर खड़ा कर उसकी अद्वितीयता को नष्ट नहीं करता? क्या फैशन, मॉडलिंग और फिल्म इंडस्ट्री के प्रति बढ़ता आकर्षण जीवन के हर क्षेत्र को अपने मौलिक तरीके से गढ़ने में सक्षम नारी को केवल एक सुन्दर शरीर और उसके इर्दगिर्द बुने गए संसार तक सीमित नहीं कर रहा है? क्या नारी की आजादी उपभोगवादी समाज के पुरुष उपभोक्ताओं के पास अपनी देह का सौदा मनचाही कीमत में मनचाही शर्तों पर करने में निहित है? क्या नारी पुरुष का विलोम शब्द मात्र है? क्या उसकी स्वतंत्र सत्ता नहीं है?
बलात्कार पुरुषप्रधान-पितृसत्तात्मक समाज के लिए नारी पर अपना आधिपत्य स्थापित करने का एक हिंसक उत्सव है। पुरुष समाज नारी पर अपना वर्चस्व आसानी से नहीं छोड़ेगा। बलात्कार के विरुद्ध लड़ाई नारी को ही लड़नी होगी। यह तभी संभव होगा जब नारी अपनी अद्वितीयता में विश्वास करे और अपने स्वतंत्र जीवन मूल्य खुद गढ़े।
डॉ राजू पाण्डेय

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