राष्ट्रहित से जुड़ी संस्कृत

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प्रमोद भार्गव

देश के केंद्रीय विद्यालयों में फिर से संस्कृत पढ़ाए जाने के विवाद पर केंद्र सरकार ने अब अपना रुख साफ कर दिया है। सर्वोच्च न्यायालय में शपथ .पत्र प्रस्तुत कर सरकार ने स्पष्ट रूप से कहा है कि केंद्रीय विद्यालयों में छठी से आठवीं तक की कक्षाओं में जर्मन की जगह संस्कृत पढाई जाएगी। संस्कृत राष्ट्रहित से जुड़ा मुद्दा है,इसलिए संस्कृति की सुरक्षा व संरक्षण करने की पैरवी करने वाले सत्तारूढ़ दल से यही अपेक्षा थी। 2011 में सप्रंग सरकार ने संस्कृत की जगह जर्मन को तीसरी भाषा का दर्जा दिया था। जबकि जर्मनी को पढ़ाया जाना संविधान का उल्लंघन था। हालांकि इस मुद्दे की अब जांच भी कराई जाएगी। मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने संस्कृत को अनिवार्य करते हुए कहा था कि यह राष्ट्रहित में लिया गया निर्णय है। हालांकि वे राष्ट्रहित के इतने महत्वपूर्ण फैसले के मुद्दे पर पलट भी गईं थीं,जिसकी जरुरत नहीं थी ? हमें इस मुद्दे पर जर्मन के विदेश मंत्री फै्रक वाल्टर स्टेनमीयर और जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल से सीख लेने की जरुरत है कि वे अपनी भाषा के प्रति कितने सचेत हैं कि उन्होंने दिल्ली में पैरवी करके संस्कृत की अनिर्वायता समाप्त करा देने की पहल कर डाली थी।

पूर्व प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह ‘संस्कृत को भारत की आत्मा’ जरुर बताते रहे थे, लेकिन संस्कृत को संविधान में उल्लेखित त्रिभाषा फार्मूला की अवहेलना करके केंद्रीय विद्यालयों के पाठ्यक्रम से हटाने का काम उन्हीं के कार्यकाल में हुआ था। जबकि संस्कृत भारतीय मानव विकास क्रम से जुड़ी भाषा है। यही भाषा देश की अन्य भाषाओं का उद्गम स्त्रोत है। छात्र संस्कृत से जुड़ते हैं तो वे भारत की सनातन परंपराओं से तो परिचित होंगे ही प्रकृति से भी उनका नाता जुड़ेगा। याद रहे ये फार्मूला उस समय भारत की विविधता को ध्यान में रखकर राष्ट्र व चरित्र निर्माण की चिंताओं के परिप्रेक्ष्य में संविधान निर्माताओं ने लिया था। संस्कृत का महत्व इसलिए भी है, क्योंकि वह दुनिया की प्राचीनतम भाषा होने के साथ, भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से भी सर्वश्रेष्ठ भाषा है।

संस्कृत दुनिया की सबसे प्राचीनतम जीवंत भाषाओं में से एक है। यदि हम इसकी टूटी हुई कडि़यों को जोड़ने और बहुविषयक पहल को आगे बढ़ाते हैं तो इससे वर्तमान ज्ञान-प्रणाली और भारतीय भाषाओं को समृद्ध बनाने की अद्भुत क्षमता विकसित होगी। क्योंकि संस्कृत को लेकर यह गलत धारणा बन गई है कि इसे केवल धर्म, उपासना और रीतियों से जोड़कर ही देखा जाना चाहिए ? जबकि यह धारणा कौटिल्य, चरक चार्वाक, आर्यभट्ट, सुश्रुत, वात्स्यायन, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य, पंतजलि और अन्य कवियों, चिंतकों व लेखकों के मर्म को नजरअंदाज करने के अलावा इसकी मूल उपादेयता के साथ अन्याय है। किंतु इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि संस्कृत के महत्व को संस्कृत से जुड़े पर्वों के अवसर पर औपचारिक पुनरावृत्ति कर कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है। संस्कृत साहित्य के सागर से मोती कैसे बटोरे जाएं, इस उद्देश्य के प्रति जिज्ञासा और चेष्टा अपेक्षाकृत गौण ही रहती है। यही कारण है कि संसक्ृत की भाषाई सामथ्र्य, बहुविषयक देनें और वैज्ञानिक उपलब्धियों को बेहतर व सिलसिलेबार ढंग से रेखांकित किए जाने की स्वतंत्रत भारत में शुरूआत ही नहीं हुई है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि संस्कृत एक जीवंत भाषा है। जीवंत इसलिए है, क्योंकि इसमें प्रवाह है। संस्कृत में यदि प्रवाह और ग्राह्यता नहीं होती तो देश के करोड़ों लोग जो निरक्षर हैं, विविध भाषी एवं विविध बोलियों से आते हैं, वे रामायण, महाभारत, गीता और अनेक संस्कृत के नीति ग्रंथों के रहस्यों को कैसे जानते ? उनके मर्म से आत्मसात कैसे होते ? बहुसंख्यक लोगों की दिनचर्या इन्हीं ग्रंथों के दृष्टांत से अनुशासित होती है। सामाजिक लोकाचार में सही-गलत क्या है, इसके निर्णय में इन्हीं ग्रंथों के उदाहरण पथ-प्रदर्शक बनते हैं। देश के प्रधान न्यायाधीश भी इन ग्रंथों के उदाहरण फैसलों में उल्लेखित करते हैं। इसीलिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने सभी भारतीयों के लिए संस्कृत पढ़ने की अनिवार्यता जताई थी। संस्कृत की इसी विलक्षणता को रेखांकित करते हुए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 351 में कहा गया है कि केंद्र हिन्दी के प्रसार को बढ़ावा देने की जरूरत पड़ने पर हिन्दी शब्द-कोष में संस्कृत शब्दों को शामिल करेगी। वैसे भी हमारी बोलियों और अन्य राज्य प्रमुख व क्षेत्रीय भाषाओं के शब्द-भण्डार में ज्यादातर शब्द संस्कृत से ही लिए गए हैं। संस्कृत की इसी संस्कारजन्य व्यापकता को स्वीकारते हुए महात्मा गांधी ने 20 मार्च 1927 को हरिद्वार की राष्ट्रीय शिक्षा परिषद् में बोलते हुए कहा था, ‘संस्कृत का अध्ययन करना प्रत्येक भारतीय छात्र का दायित्व है। हिन्दुओं का तो है ही, मुसलमानों का भी है, क्योंकि अंततः उनके पूर्वज राम और कृष्ण ही थे। अपने इन पूर्वजों को जानने के लिए उन्हें संस्कृत सीखनी चाहिए।’ लेकिन विंडबना ही रही है कि कालांतर में संस्कृत शैक्षिक पाठ्यक्रमों से विलोपित की जाती रही ?

मैकाले ने गुलाम भारत में भाषा नीति की जो बुनियाद रखी उसमें मट्ठा डालने की बजाय, स्वतंत्रता के छह दशक बाद भी हम खाद-पानी डालने में लगे हैं। साथ ही हमने यह भ्रम भी पाल लिया है कि विज्ञान और तकनीक में ही नहीं ज्ञानार्जन के अन्य क्षेत्रों में जो भी काम हो रहा है, वह पश्चिम में ही हो रहा है। भारत और अन्य पूर्वी देश तो नितांत पिछड़े हुए हैं। इसी धारणा के चलते न केवल भारतीय भाषाओं की हालत नाजुक हुई, बल्कि समग्र राष्ट्रीय चेतना भी कमजोर पड़ी है। लिहाजा राष्ट्रीय और राष्ट्रबोध से जुड़े प्रतीक चिन्हों पर न केवल सवाल उठाए जा रहे हैं, अपितु उन्हें नकारा भी जा रहा है।

नकारात्मकता के बीज-तत्व शिक्षा-नीति मंे डालने का यह काम मैकाले पहले ही कर चुके थे। इसीलिए मैकाले ने अंग्रेजी पढ़ने पर उतना जोर नहीं दिया, जितना संस्कृत और भारतीय भाषाओं के महत्व को अस्वीकारने पर दिया। मैकाले मिनिट्स में लिखा भी है, ‘यदि आप भारत में ऐसी युवा पीढ़ी का निर्माण करना चाहते हैं, जो न केवल अपनी संप्रभुता और सांस्कृतिक विरासत से पृथक हो, बल्कि उसके प्रति घृणा के भाव भी पनप आएं, इस मकसद के लिए जरूरी है कि उसे संस्कृत व अन्य भारतीय भाषा में अध्यापन न कराया जाए। क्योंकि संस्कृत एक ऐसी भाषा है, जो एक देशवासी को अपनी सनातन परंपरा और राष्ट्र-बोध के प्रति चैतन्य बनाए रखती है। नतीजतन उसे अंगे्रजी शिक्षा देनी चाहिए और इस भाषा के माध्यम से पढ़े युवक को ही ब्रिटिश सत्ता की प्रशासनिक व्यवस्था में भागीदार बनाना चाहिए।’

इस अजेंडे पर फिरंगी हुकूमत का ठप्पा लगने के बाद मैकाले और उनके सहयोगियों ने बड़ी कुटिल चतुराई से भारत की ज्ञान-परंपरा पर हमला तेज कर दिया। इसी लिहाज से संस्कृत व सांस्कृतिक धरोहरें आमजन के लिए महत्वहीन हो जाएं, इस दृष्टि से संपूर्ण प्राचीन संस्कृत साहित्य को आध्यात्मिक व कर्मकाण्डी साहित्य की संज्ञा देकर, ज्ञान-विज्ञान के मंत्रों को पूजा की वस्तु बना देने की रणनीति चल दी। इन धूर्त उपक्रमों को हमने अंग्रेजों की कृतज्ञ उपलब्धियां मान लिया। जबकि हमारे उपनिषद् ब्रह्मांण्ड के रहस्यों को जानने की जिज्ञासाएं हैं। रामायाण, महाभारत ऐतिहासिक कालखण्डों की सामाजिक, भौगोलिक, राजनीतिक, आर्थिक व युद्ध-कौशल के वस्तुपरक चित्रण हैं। गीता नैतिक आत्मबल का सटीक दर्शन है। आयुर्वेद व पंतजलि योग एवं औषधीय चिकित्साशास्त्र हैं। अठारह पुराण ऐतिहासिक क्रम में शासकों के समयकाल की गाथाएं हैं। मनुस्मृति, विदुर-नीति और कौटिल्य का अर्थशास्त्र वर्तमान शासन व्यवस्थाओं के संविधान हैं। वात्स्यायन का कामसूत्र अर्थ और काम विषयक अद्वितीय व सर्वथा मौलिक ग्रन्थ है। चार्वाक के दर्शन ने हमें ऐसा प्रत्यक्षवाद दिया, जो समस्त ईश्वरीय और कर्मकाण्डी अवधारणाओं को नकारता है। चार्वाक ने ही कहा था कि सुख के लिए ऋण लेकर भी घी पीना पड़े तो पीना चाहिए। यही आधुनिक भौतिकता है। जिसका मौजूदा आर्थिक दर्शन अमेरिका के अर्थशास्त्री एड्म स्मिथ ने रचा है और जिसका परचम पूरी दुनिया में नव-उदारवाद के बहाने फहराया जा रहा है। संस्कृत के माध्यम से आमजन में आत्मसात होने वाले संस्कारों के ये ऐसे उपाय थे, जिन्हें आचरण की थाती बनाकर बहुसंख्यक लोगों ने प्राकृतिक संपदा के असीमित उपभोग और माया के मोह से शताब्दियों से दूरी बनाए रखकर प्रकृति की देनों को प्राणी जगत के लिए अक्षुण्ण बनाए रखा। बुद्ध, महावीर और गांधी ने इसी संस्कृत के भाषायी संस्कार से असंचयी भाव का दर्शन अंगीकार किया।

इन सब पुख्ता आधारों के विशलेषण से मैकाले ने समझ लिया था कि संस्कृत के भारतीय परिवेश में ज्ञान-परंपरा से गहरे सरोकार हैं, क्योंकि वह ज्ञान-मीमांसा से जुड़ी भाषा है। इसीलिए संस्कृत ने दुनिया के नव-निर्माण और मूल्यों की जड़ता को परिवर्तित करने में तीन हजार साल से भी ज्यादा लंबे समय तक अह्ंम भूमिका निभाई। मानव समुदाय को संस्कारित करने में भाषा की क्या भूमिका हो सकती है, इसे बीसवीं सदी के विख्यात दार्शनिक विटगेंस्टाइन ने बेहतर ढंग से परिभाशीत किया है, ‘भाषा हम बनाते हैं और भाषा को हम बदलते भी हैं। किंतु इतना ही सच नहीं है, भाषा भी हमें बनाती और बदलती है।’ संस्कृत व हिन्दी समेत सभी देशज भाषाओं पर सवार होकर, अंग्रेजी आज हमें निरंतर बदलने में लगी है। क्योंकि अंग्रेजी योग्यता साबित करने का प्रतिमान तो बनी ही है, शासन-प्रशासन में रौब-रूतबे का पद हासिल करने में भी मददगार साबित हो रही है। अंग्रेजी के इस वर्चस्व को तोड़े बिना न तो संस्कृत की टूटी हुई कडि़यों को जोड़ा जा सकता है और न ही इसकी बहुविषयक पहल को समझा व अपनाया जा सकता है। अनेक विदेशी विचार और आक्रमण हमसे टकराए। हमने उनसे सामना किया और अपनी भाषाओं, संस्कृति व सभ्यता को बचाए रखा, लेकिन अंग्रेजी दासता के शिकंजे से छुटकारे के उपाय हम आजादी के 67 साल बाद भी नहीं खोज पा रहे हैं। तय है, संस्कृत के माध्यम से ही हम सही अर्थों में व्यापक राष्ट्रहित साधने में सफल हो सकते हैं। लेकिन दुर्भाग्य है कि संस्कृत को पाठ्क्रमों में बनाए रखना मुश्किल हो रहा है?

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  1. धन्यवाद प्रमोद जी।

    स्वामी विवेकानंद जी के विचार शब्दांकित करता हूँ।
    (१)
    स्वामी जी कहते हैं, शासन किसी का भी हो, संस्कृत पढी जानी चाहिए।
    जब शूद्र(वृत्ति) शासन होगा; बिना संस्कृत समृद्धि तो आयेगी, जो, शारीरिक भोग विलास को बाँटेगी, साधारणता उसका गुण होगा।
    (२)
    पर उसका नकारात्मक पहलु भी होगा। वह असामान्य प्रतिभाएं प्रोत्साहित नहीं कर पाएगी।(पाणिनि, पतंजलि, कात्यायन, जैसे ….कहाँ है?)
    (३)
    इसी अनुभव से; भारत गत ६७ वर्षों से निकला है। चेतने की घडी है।
    (४)
    “न हि ज्ञानेन सदृश्यं पवित्रम्‌ इह विद्यते” का आदर्श जीवन में उतारनेवाले शिक्षक भी नहीं है। सभी वेतनधारी बनिया है।
    (५)
    जब ज्ञान लक्ष्यी ब्राह्मण, रक्षा लक्ष्यी क्षत्रिय, पूर्ति लक्ष्यी वैश्य, और सुविधाएँ उपलब्ध करानेवाला शूद्र होता था; प्रत्येक का लक्ष्य अलग होने से स्पर्धा नहीं, सामंजस्य था। (एक स्वस्तिकाकार समाज था।)
    (६)
    आज का मात्र धन लक्ष्य़ी समाज होने के कारण; समाज, गला काट स्पर्धा का आधार बन चुका है।
    तो ईर्षा, मत्सर, द्वेष, ऐसे दुर्गुणों से पोषित भ्रष्टाचार का अजगर देश को निगल गया। कमर टूट चुकी है।

    (७)
    जिस के कारण हमारा सनातनत्व था। उन मूल्यों का लगभग समाप्त होना; भय सूचक घण्टा है।
    संस्कृत के साथ संस्कृति यदि पुनर्स्थापित हुयी; तो, ही हम बच सकते हैं।

    सावधान।

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