-विश्व मोहन तिवारी
१४ सितंबर राजभाषा दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह सरकार को याद दिलाने के लिये नहीं वरन सरकारी कर्मचारियों को याद दिलाने के लिये होता है, ताकि सरकारी कार्य राष्ट्रभाषा में हो। अर्थात सरकार यह इंगित करती है कि अपनी भाषा को भूलने के लिये हम ही जिम्मेदार हैं। यह कुछ सत्य तो है। किन्तु हमें ऐसा याद दिलाने की आवश्यकता क्यों पड़ी?
नौकरी तो गुलामी की भाषा अंग्रेज़ी सीखने पर ही मिलती है, अर्थात काम भी उसी अंगेज़ी भाषा में होना है। यह हिन्दी दिवस तो जनता को भुलावे में रखने के लिये नाटक है। जब नौकरी बिना अंग्रेज़ी जाने नहीं मिलती तब ऐसी स्थिति में हम हिन्दी ही क्यों कोई भी भारतीय भाषा क्यों पढ़ें !! यदि सरकार चाहती कि देश का कार्य राजभाषा में होना है तो अंग्रेज़ी के स्थान पर हिन्दी को अनिवार्य और अंग्रेज़ी को वà ��कल्पिक भाषा होना चाहिये । यह क्यों नहीं हो रहा है ? इसके मुख्य दो कारण हैं – एक, हम मानसिक रूप से अंग्रेज़ी के गुलाम हैं; २, भारतीय भाषाओं में आपसी इर्ष्या है, क्योंकि हम अपनी संस्कृति द्वारा प्रदत्त प्रेम तथा त्याग के स्थान पर स्वार्थ को अधिक महत्व दे रहे हैं । शेष कारण, यह कहना कि हिन्दी में वैज्ञानिक तथा विधि को पर्याप्त अभिव्यक्त करने की क्षमता नहीं है, योग्यता नही है, मात्र बहाना है। संस्कृत की बेटी में क्षमता न हो, यह तो भ्रम है। और योग्यता भी है चाहे, १९५० में थोड़ी कम थी, जो १५ वर्षों में ही दूर कर दी गई थी। भाषा को बिना अवसर दिये योग्यता कैसे पैदा हो सकती है ! क्षमता रहने पर और समय मिलने पर हिन्दी ने योग्यता प्राप्त कर ली है, जो अवसर मिलने पर सतत आधुनिक रहेगी।
जो लोग इस समस्या को मात्र हिन्दी की समस्या मान रहे हैं वे भयंकर गलती कर रहे हैं। वास्तव में यह भाषा की समस्या अखिल भारतीय भाषाओं की समस्या है, और आँख खोल कर देखें तब उन सभी पर संकट है। यह संकट, अन्य बड़े संकटों के समान वैश्विक है, उन सभी विकासशील देशों की भाषाओं पर संकट है, जो पहले उपनिवेश रहे हैं, और जिनमें अपने देश के प्रति सम्मान कम है। हमारे देश में न केवल अपने देश के प्रति सम्मान की समझ ही कम है वरन अपने पुराने स्वामी के प्रति अंधभक्ति अधिक है। जो देश क्रिकैट पर अपने देश के सम्मान को परखे, उस देश का यारो क्या कहना!! जिस देश के युवाओं के हीरो खिलाड़ी या एक्टर या माडल हों, उस देश का भविष्य क्या हो सकता है!!
जब देश में शिक्षा का माध्यम ही एक कठिन और विदेशी भाषा अंग्रेज़ी हो उस देश की भाषाओं का क्या भविष्य हो सकता है, और विशेषकर कि जब वह भाषा भी साम्राज्यवादी देश की हो !! उनके जीवन का लक्ष्य ही दूसरों को लूटना ऱहा हो । एक तरफ़ तो हम विज्ञान और प्रौद्योगिकी में विकसित देशों के बराबर नहीं खड़े हो पाएंगे क्योंकि हम आविष्कार तथा नवीनीकरण में कमजोर ही रहेंगे । विदेशी भाषा में जो ज्ञान प्राप्त होता है उसका आत्मसात होना बहुत कठिन होता है, और बिना आत्मसात ज्ञान के आविष्कार शायद ही हों।
सभी भारतीय भाषाओं के स्थान पर अब बच्चे, युवा तथा प्रौढ़ अंग्रेज़ी ही पढ़ रहे हैं। अंग्र्ज़ी छा जाएगी तब हम अपनी संस्क्RRति भूलकर, पश्चिमी संस्कृति के पक्के गुलाम हो जाएंगे। हिंदी तो भारत के विशालतम क्षेत्र की भाषा है, वह तो अधिक समय तक अंग्रेज़ी से लड़ सकेगी, किन्तु कम क्षेत्रों में या कम संख़्या में बोली जाने वाली भाषाएं तो दुर्बल से दुर्बलतर होती रहेंगी। आवश्यकता है कि भारतीय भाषाएं‚ आपस में द्वेष न करें, प्रेम तथा त्याग के बल पर एकजुट होकर विदेशी भाषा का सामना करें। केवल दिन्दी दिवस ही न मनाया जाए, वरन राष्ट्रभाषाएं दिवस मनाए जाएं। एक होकर अंग्रेज़ी को राजभाषा के पद से हटाएं। सभी प्रदेश, जिनकी भाषाएं समृद्ध हैं अपने कार्य अपनी भाषा में करें, केवल केन्द्र सरकार के और जो प्रदेश ऐसा चाहते हैं उनके कार्य हिन्दी में हों।
यह लड़ाई केवल भाषा की नहीं है वरन भारतीय संस्कृति की है। भारतीय संस्कृति ही पूर्ण रूप से मानवीय संस्कृति है, शेष संस्कृतियां भोगवादी हैं, अत: अमानवीय हैं। भारतीय संस्कृति हमें मानवता की भलाई के लिये बचाना है।
आदरणीय विश्वमोहन जी मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ :– ” यह लड़ाई केवल भाषा की ही नहीं भारतीय संस्कृति की भी है और मानवता की रक्षा के लिए हमें इन्हें बचाना है ” !!!
बहुत दुखद है वास्तव में अंग्रेजी परस्त प्राचार्यों को जगह-जगह बैठाकर – केंद्रीय – नवोदय विद्यालय- इण्डियन स्कूल और इसी तरह अन्य प्राइवेट स्कूलों में हिंदी को कमज़ोर करने की शाज़िस की जा रही है :——-
1) अधिकांश डी.ए.वी. स्कूलों में 11-12 से हिंदी एलेक्टिव और कहीं-कहीं एक्टीविटी को प्रोत्साहन देने के बहाने हिंदी एलेक्टिव और हिंदी कोर दोनों को हँटाकर आर्य समाज की मूल भावना को नष्ट करने की कोशिस की जा रही है ।
2) अंग्रेजी परस्त प्राचार्यों ने अपनी तानाशाही दिखाते हुए नये नौसिखिया हिंदी एच.ओ.डी. को बनाकर हिंदी को नुकसान पहुँचाने की कुत्सित भावना को जारी रखा है ।
उदाहरण :— शक और हूणों की तरह आज भी अच्छे हिंदी जानकारों को हाशिए पर रखकर नौसिखिए जयचंदों को जानबूझकर बढ़ाया जा रहा है -जिससे वे हिंदी का अधिकतम नुकसान करें — हिंदी विकास के लिए बड़ी-बड़ी संस्थाएँ पर बेकाम की इनके उदाहरण हैं !!! – उदाहरण के तौर पर अभी के.डी.अम्बानी विद्या मंदिर रिलायंस जामनगर (गुजरात ) की हिंदी एच.ओ.डी. श्रीमती शोभा दहीफले हैं जिन्होंने कभी हिंदी एक विषय के तौर पर पढ़ा ही नहीं है ??? मराठी मीडियम से पढ़ी शोभा का चयन 2004 में प्रेसीडेंट एवार्डी प्राचार्य श्री जी थंगादुरई ने इसीलिए कैंसिल कर दिया था क्योंकि उन्होंने हिंदी विषय कभी पढ़ा ही नहीं है पर मराठी मानुष के दबाव से आज वे हिंदी विभागाध्यक्षा हैं ??? कुछ समय पहले 2009 में भी एक डॉ. राखी सिंह को विभागाध्यक्षा बनाया गया था जिनका स्नातक में भी हिंदी नहीं था और पीएचडी भी उन्होंने मल्टीमीडिया में किया हुआ था पर उन्हें हिंदी एच.ओ.डी. बनाकर पुराने हिंदी में पीएचडी, आकाशवाणी के कलाकार 25 सालों के अनुभवी हिंदी शिक्षक-शिक्षिका को हटाया गया था ??? उनके लिखित निवेदन पर महामहिम राष्ट्रपति-राज्यपाल-प्रधानमंत्री- सीबीएसई आदि के इंक्वायरी आदेश आने के बावजूद सब कुछ दबाकर गुजरात सरकार 2011 से ही बैठी है । हाईकोर्ट अहमदाबाद में तत्संबंधित केस विचाराधीन भी है, ये है रिलायंस और गुजरात का कमाल हिंदी को बर्बाद करने में : –——
3) अंग्रेजी परस्त प्राचार्यों ने हिंदी शिक्षक-शिक्षिका के होते हुए भी अन्य विषय के शिक्षक-शिक्षिकाओं से हिंदी को पढ़वाने का दुष्कृत्य जारी रखा है ।
समाधान :—- गृहमंत्रालय के निर्देशन में सीबीएसई की निरीक्षण टीम अचानक जाँच करे और ऐसे दुष्कृत्य में लगे लोगों को गिरफ्तार करके उनपर राष्ट्रद्रोह के मुकदमे चलाए जाएँ !
Mr.Tiwari,
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हीन्दी /Hindi /hindii/Heendee/Hindee
राष्ट्रभाषाऑ को सरल बनाऍ, भारतीय सन्स्कृती बचाऍ
Posted On September 13, 2010 by &filed under साहीत्य.
-वीश्व मोहन तीवारी
१४ सीतन्बर राजभाषा दीवस के रुप मॅ मनाया जाता है.यह सरकार को याद दीलाने के लीये नही वरन सरकारी कर्मचारीयॉ को याद दीलाने के लीये होता है, ताकी सरकारी कार्य राष्ट्रभाषा मॅ हो.अर्थात सरकार यह इन्गीत करती है की अपनी भाषा को भुलने के लीये हम ही जीम्मेदार है.यह कुछ सत्य तो है.कीन्तु हमॅ ऐसा याद दीलाने की आवश्यकता क्यॉ पडी?
नौकरी तो गुलामी की भाषा अन्ग्रेजी सीखने पर ही मीलती है, अर्थात काम भी उसी अन्गेजी भाषा मॅ होना है.यह हीन्दी दीवस तो जनता को भुलावे मॅ रखने के लीये नाटक है.जब नौकरी बीना अन्ग्रेजी जाने नही मीलती तब ऐसी स्थीती मॅ हम हीन्दी ही क्यॉ कोई भी भारतीय भाषा क्यॉ पढॅ !! यदी सरकार चाहती की देश का कार्य राजभाषा मॅ होना है तो अन्ग्रेजी के स्थान पर हीन्दी को अनीवार्य और अन्ग्रेजी को वà ��कल्पीक भाषा होना चाहीये .यह क्यॉ नही हो रहा है ? इसके मुख्य दो कारण है – एक, हम मानसीक रुप से अन्ग्रेजी के गुलाम है; २, भारतीय भाषाऑ मॅ आपसी इर्ष्या है, क्यॉकी हम अपनी सन्स्कृती द्वारा प्रदत्त प्रेम तथा त्याग के स्थान पर स्वार्थ को अधीक महत्व दे रहे है .शेष कारण, यह कहना की हीन्दी मॅ वैज्ञानीक तथा वीधी को पर्याप्त अभीव्यक्त करने की क्षमता नही है, योग्यता नही है, मात्र बहाना है.सन्स्कृत की बेटी मॅ क्षमता न हो, यह तो भ्रम है.और योग्यता भी है चाहे, १९५० मॅ थोडी कम थी, जो १५ वर्षॉ मॅ ही दुर कर दी गई थी.भाषा को बीना अवसर दीये योग्यता कैसे पैदा हो सकती है ! क्षमता रहने पर और समय मीलने पर हीन्दी ने योग्यता प्राप्त कर ली है, जो अवसर मीलने पर सतत आधुनीक रहेगी.
जो लोग इस समस्या को मात्र हीन्दी की समस्या मान रहे है वे भयन्कर गलती कर रहे है.वास्तव मॅ यह भाषा की समस्या अखील भारतीय भाषाऑ की समस्या है, और आॅख खोल कर देखॅ तब उन सभी पर सन्कट है.यह सन्कट, अन्य बडे सन्कटॉ के समान वैश्वीक है, उन सभी वीकासशील देशॉ की भाषाऑ पर सन्कट है, जो पहले उपनीवेश रहे है, और जीनमॅ अपने देश के प्रती सम्मान कम है.हमारे देश मॅ न केवल अपने देश के प्रती सम्मान की समझ ही कम है वरन अपने पुराने स्वामी के प्रती अन्धभक्ती अधीक है.जो देश क्रीकैट पर अपने देश के सम्मान को परखे, उस देश का यारो क्या कहना!! जीस देश के युवाऑ के हीरो खीलाडी या एक्टर या माडल हॉ, उस देश का भवीष्य क्या हो सकता है!!
जब देश मॅ शीक्षा का माध्यम ही एक कठीन और वीदेशी भाषा अन्ग्रेजी हो उस देश की भाषाऑ का क्या भवीष्य हो सकता है, और वीशेषकर की जब वह भाषा भी साम्राज्यवादी देश की हो !! उनके जीवन का लक्ष्य ही दुसरॉ को लुटना ऱहा हो .एक तरफ तो हम वीज्ञान और प्रौद्योगीकी मॅ वीकसीत देशॉ के बराबर नही खडे हो पाऍगे क्यॉकी हम आवीष्कार तथा नवीनीकरण मॅ कमजोर ही रहॅगे .वीदेशी भाषा मॅ जो ज्ञान प्राप्त होता है उसका आत्मसात होना बहुत कठीन होता है, और बीना आत्मसात ज्ञान के आवीष्कार शायद ही हॉ.
सभी भारतीय भाषाऑ के स्थान पर अब बच्चे, युवा तथा प्रौढ अन्ग्रेजी ही पढ रहे है.अन्ग्र्जी छा जाएगी तब हम अपनी सन्स्क्RRती भुलकर, पश्चीमी सन्स्कृती के पक्के गुलाम हो जाऍगे.हीन्दी तो भारत के वीशालतम क्षेत्र की भाषा है, वह तो अधीक समय तक अन्ग्रेजी से लड सकेगी, कीन्तु कम क्षेत्रॉ मॅ या कम सन्ख्या मॅ बोली जाने वाली भाषाऍ तो दुर्बल से दुर्बलतर होती रहॅगी.आवश्यकता है की भारतीय भाषाऍ‚ आपस मॅ द्वेष न करॅ, प्रेम तथा त्याग के बल पर एकजुट होकर वीदेशी भाषा का सामना करॅ.केवल दीन्दी दीवस ही न मनाया जाए, वरन राष्ट्रभाषाऍ दीवस मनाए जाऍ.एक होकर अन्ग्रेजी को राजभाषा के पद से हटाऍ.सभी प्रदेश, जीनकी भाषाऍ समृद्ध है अपने कार्य अपनी भाषा मॅ करॅ, केवल केन्द्र सरकार के और जो प्रदेश ऐसा चाहते है उनके कार्य हीन्दी मॅ हॉ.
यह लडाई केवल भाषा की नही है वरन भारतीय सन्स्कृती की है.भारतीय सन्स्कृती ही पुर्ण रुप से मानवीय सन्स्कृती है, शेष सन्स्कृतीयाॅ भोगवादी है, अत: अमानवीय है.भारतीय सन्स्कृती हमॅ मानवता की भलाई के लीये बचाना है.
हिमवंत जी
बिलकुल सही कह रहे हैं आप ..
तब हमारा कर्त्तव्य बनाता है की इस सरकार को चुनाव में हराएं ..
वरना जैसा तुलसी ने कहा है, ”
” निशि गृह मध्य दीप की बातन्ही तम निवृत्त नहीं होई..”
धन्यवाद
अजित भोंसले जी
धन्यवाद उस बुरी खबर के लिए.
कितना बड़ा दुर्भाग्य है हमारा की हमारे ही भाई जो दलित कहलाते हैं कुप्रचार के कारण हम से अलग होकर हमारे विरोध युद्ध कर रहे हैं..
जैसा की मैंने सिद्ध किया है की श्री राम ने शम्बूक को नहीं मारा था वह उत्तर काण्ड किसी दुश्मन ने प्रक्षेप किया है और वह झूठा बोलकर जीत गया और सत्य की हार हो रही है..
क्या हम अपने दलित भाइयो को यह सत्य समझा सकते हैं?
जब की विश्व में, पश्चिम में भी, गरीबों को हर जगह सताया गया है उनका शोषण किया गया है श्री राम ने उन्हें गले लगाकर उनसे प्रेम किया है, और यह आदर्श प्रस्तुत किया है.. हमें इस आदर्श का पालन करने में प्रसन्नता ही होती है..
किन्तु एक तो पहले दुश्मन ने उत्तर काण्ड के द्वारा हम भाइयो में भेद दाल दिया और अब अंग्रेजो और अंग्रेज़ी ने उस भेद को और बड़ा कर दिया है और हम भाई भाई लड़ रहे हैं और दूश्मन सुखी हो रहे हैं..
यह भ्रान्ति मिटाना हमारा बड़ा कार्य है , देश प्रेमियों को मैदान में आना चाहिए..
वर्तमान सरकार हिन्दी विरोधी है। वह हिन्दी भाषा के विकास के लिए आवंटित धन का उपयोग कांग्रेसी जन के विदेश यात्रा पर कर रही है। नेपाल मे यह सरकार अंग्रेजी भाषा के विकास के लिए कार्यक्रम चला रही है। हिन्दी को डुबाना और अंग्रेजी को बढाना वर्तमान सरकार के अघोषित निति है।
हिंदी के पेरोंकारों के लिए एक बहुत बुरी खबर, लखीमपुर-खीरी (उत्तर-प्रदेश) में एक महानुभाव ने अंग्रेजी माता का मंदिर बनाने का प्रण लिया है और नवीनतम सूचनाओं के अनुसार उसका निर्माण भी आरम्भ हो चुका है और यह पुनीत कार्य दलित एवं पिछड़े लोगों द्वारा संपन्न किया जा रहा है जय हो अंग्रेजी मैय्या की है भारत माँ उन लोगों को माफ़ करना वे नहीं जानते वे क्या अनर्थ कर रहे हैं.
तिवारी जी लेख आपने आज की वर्तमान जीवन को छूने वाला लिखा है लेकिन आज समाज में यह बात फैला दी है कि बिना अंग्रेजी के कुछ नहीं। भाषा सीखना अच्छी बात है लेकिन अपनी भाषा का अपमान करना काफी गलत है। यह सब हमारे राजनेताआें का दोष है। आज जरूरत है कि हम सब जागे आैर सोचे हमारी जनसंख्या ज्यादा है आैर हम लोग ही उनका सामान खरीदते है तो फिर उनकी बात क्यों सुने। जब उनका जमाना था तब उन्होंने हमारे उपर राज किया लेकिन दुर्भाग्य है आज हम फिर से अंग्रेजों के पैर चाट रहे है।
कितने दु:ख और लज्जा की बात है कि
“आज हम फिर से अंग्रेजों के पैर चाट रहे है।”
यह दु:ख और लज्जा मिटाना कठिन कार्य है।
समर्पण, त्याग तथा कर्मठता की आवश्यकता है।
क्या हम कर सकते हैं?
तुलसी जी ने दर्द भरा सत्य कहा है, किन्तु हम क्यों मजबूर हैं??
हमें कुछ तो करना ही चाहिये ।
इस ब्लाग की टिप्पणियों में कुछ संदेश हैं।
हम आलस्य त्यागें,
“उत्तिष्ठत, जाग्रत प्राप्य वरान्निबिधत” – विवेकानन्द
आदरणीय तिवारी जी ने बहुत अच्छा आव्हान किया है.
जिस देश में उसकी राष्ट्रभाषा का समुचित सम्मान नहीं होता है वोह देश विकसित होकर भी आम लोगो की जरूरते पूरी नहीं कर पता है. भारत से बहुत छोटे छोटे देश अपनी राष्ट्र भाषा के बल पर बहुत तरक्की प्राप्त कर चुके है. वहां अंग्रेजी बिलकुल भी अनिवार्य नहीं है. बहुत से लोगो जो की सरकारी कार्यालयों में ऊँचे पदों पर आसीन है उन्हें सामान्य भी अंग्रेजी नहीं आती है. किन्तु हमारे देश में अंग्रेजी तो योग्यता का पैमाना है.
सरकार हिंदी पर बहुत खर्च करती है. कुछ विभाग भी बना कर रखे है जिन पर करोडो खर्च कर रही है. बहुत बड़ा विभाग है. किन्तु फिर भी अपक्षित निष्कर्ष नहीं मिल पा रहे है. इंग्लिश से हिंदी के तो बहुत से शब्दकोष है किन्तु हिंदी से इंग्लिश का एक भी मुफ्त शब्दकोष नहीं है. जो है वे खरीदने पड़ते है. जब इस देश में हिंदी से इंग्लिश का एक मुफ्त शब्दकोष नहीं बन सकता है तो फिर इन विभागों का क्या फायदा.
भला हो इस इन्टरनेट का जिसके कारन हम हिंदी में ब्लॉग पढ़ लिख तो पा रहे है.
सुनिल जी ने ठीक कहा है कि इस शासन से भारतीय भाषाओं के लिये और भारतीय संस्कृति की उन्नति केलिये कुछ भी सकारात्मक कार्य की आशा करना व्यर्थ है।
हम सभी को मिलकर ठोस काम करना है।
“राष्ट्रभाषाओं को बचाएं, भारतीय संस्कृति बचाएं” -by – विश्वमोहन तिवारी, एअर वाइस मार्शल (सेवा निवृत्त)
१४ सितंबर राजभाषा दिवस
(Official language = राजभाषा;
National language = राष्ट्रभाषा)
आइये एअर वाइस मार्शल साहेब के नारों को बुलंद करें:
– राष्ट्रभाषाओं को बचाएं, संस्कृति बचाएं
– १४ सितंबर हिंदी दिवस नहीं, वरन राष्ट्रभाषाएं दिवस मनाए.
– एक होकर अंग्रेज़ी को राजभाषा के पद से हटाएं.
– सभी प्रदेश, जिनकी भाषाएं समृद्ध हैं, कार्य अपनी भाषा में करें.
– केवल केन्द्र सरकार और जो प्रदेश चाहते हैं कार्य हिन्दी में हों.
– भारतीय भाषाएं‚ आपस में द्वेष न करें.
अनिल जी ने जो नारे बना दिये हैं वे मेरे लेख का सार हैं.
धन्यवाद।
अब उऩें बुलन्द करना ही है।
कार्यरूप मे परिणित करने से वे अवश्य ही बुलन्द होंगे ।
जय भारत
अनिल जी ने मॆ लेख को सार रूप में सशक्त नारों में बदल दिया है।
इऩ्हें कार्यरूप में परिणित कर बुलन्द करना है।
जिस सरकार को राष्ट्र और उसके नागरिकों की चिंता नहीं है वो राष्ट्रभाषा की चिंता और रक्षा क्या करेगी ..शर्मनाक स्थिति है और ये तथाकथित हिंदी मिडिया के तो क्या कहने ,अब जो करेंगे आप हम ही एकजुट होकर करेंगे …ये सरकार तो गुलामों की गुलामी कर कोमनवेल्थ का आयोजन कर इस देश को लूटने वाले दलालों को मालामाल कर रही है ,इस गेम का विरोध हर-हाल में कीजिये …
जय कुमार झा जी ने जो यह कहा है कि, “इस गेम का विरोध हर-हाल में कीजिये …”, उनका ‘गेम’ शब्द से तात्पर्य मात्र राष्ट्रमण्डल से ही नहीं है वरन वे सारे गेम जिनके द्वारा यह शासन भारत को इंडिया बनाने में लगा है, उनका विरोध करना चाहिये .. साथ ही ” अब जो करेंगे आप हम ही एकजुट होकर करेंगे” के लिये हमें राष्ट्रभाषाओं के प्रति जन जन में, और मातृभाषा के प्रति बच्चों में प्रेम बढ़ाना चाहिये । भारतीय संस्कृति के प्रति सम्मान बढाना चाहिये,
इसका शुभारंभ हम
१.जन्मदिन को पाश्चात्य तथा फ़िल्मी शैली में न मनाकर पूजा आदि के द्वारा सादी भारतीय पद्धति में मनाएं।
२. जंक फ़ूड तथा जंक ड्रिन्क्स लेना बन्द् कर भारतीय रस शरबत तथा पौष्टिक अल्पहार तथा भोजनलेकर करें।
३. टी वी के घटिया कर्यक्रमों को देखना बिलकुल बन्द करें।
भारतीय संस्कृति बचाएं , मानवता बचेगी।