राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और दलित 

0
160

विजय कुमार,

दलित शब्द कब, कहां और क्यों प्रचलित हुआ, इस पर कई मत हैं। प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था के बावजूद दलित नहीं थे। कहते हैं कि भारत में इस्लामी हमलावरों ने कुछ लोगों का दलन और दमन कर उन्हें घृणित कामों में लगाया। आज भी किसी चीज को बुरी तरह तोड़ने को दलना ही कहते हैं। दाल और दलिया शब्द यहीं से बना है।सैकड़ों साल तक ऐसा होने पर ये लोग ‘दलित’ कहलाने लगे, जबकि ये प्रखर हिन्दू थे। इनमें से अधिकांश क्षत्रिय थे और इनके राज्य भी थे; पर फिर इनकी सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और शैक्षिक दशा बिगड़ती गयी और ये अलग-थलग पड़ गये। अंग्रेजों ने षड्यंत्रपूर्वक इन भेदों को और बढ़ाया। आजकल सरकारी भाषा में इस वर्ग को ‘अनुसूचित जाति’ कहते हैं।आजादी के बाद सबने सोचा था कि ये स्थिति बदलेगी; पर वोट के लालची सत्ताधीशों ने कुछ नहीं किया। अब चूंकि ये बहुत बड़ा वोट बैंक बन चुके हैं, इसलिए सब दलों की इन पर निगाह है। अतः कांग्रेस वाले भा.ज.पा. को और भा.ज.पा. वाले कांग्रेस को दलित विरोधी बताते हैं।इन दिनों राहुल बाबा भा.ज.पा. को कोसते हुए संघ को भी उसमें लपेट लेते हैं। यद्यपि इससे उन्हीं का नुकसान हो रहा है। वो संघ को जितना गाली देंगे, संघ वाले चुनाव में उतनी ताकत से कांग्रेस का विरोध करेंगे। इसका दुष्परिणाम 2014 में वे देख चुके हैं। गत नौ अगस्त की रैली में भी उन्होंने संघ को दलित विरोधी कहा। संघ यद्यपि इस सामाजिक विभाजन को ठीक नहीं मानता; पर जमीनी सच तो ये है ही। इसलिए ‘जाति तोड़ो’ जैसे राजनीतिक आंदोलन चलाने की बजाय संघ इनकी आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक और शैक्षिक स्थिति सुधारने का प्रयास कर रहा है। अपने गली-मोहल्ले के लोगों के सुख-दुख में सहभागी होना स्वयंसेवक का स्थायी स्वभाव है। इसीलिए विरोधी विचार वाले भी उसका आदर करते हैं।आपातकाल के बाद संघ का नाम और काम बढ़ने पर सेवा कार्यों को संगठित रूप दिया गया। सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस का इस पर बहुत जोर था। 1989 में संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार की जन्मशती वर्ष का केन्द्रीय विचार सेवा ही था। अतः संघ की रचना में भी ‘सेवा विभाग’ शामिल कर हर राज्य में ‘सेवा भारती’ आदि संस्थाओं का गठन किया गया। ये संस्थाएं नगर तथा गांवों की निर्धन बस्तियों में शिक्षा, चिकित्सा तथा संस्कार के काम करती हैं। डा. हेडगेवार जन्मशती के अवसर पर ‘सेवा निधि’ एकत्र कर कार्यकर्ताओं की एक विशाल मालिका तैयार की गयी। इनके बल पर आज स्वयंसेवक डेढ़ लाख से भी अधिक सेवा प्रकल्प चला रहे हैं।कुछ संस्थाएं ग्राम्य विकास के क्षेत्र में भी सक्रिय हैं। संघ के अलावा भी देश भर में हजारों संस्थाएं सच्चे मन से सेवा में संलग्न हैं। इनमें समन्वय बना रहे तथा वे एक-दूसरे के अनुभव का लाभ उठाएं, इसके लिए ‘राष्ट्रीय सेवा भारती’ का गठन हुआ है। अब हर राज्य में ‘सेवा संगम’ आयोजित किये जाते हैं। इनमें सैकड़ों संस्थाएं अपने स्टाॅल तथा प्रदर्शिनी आदि लगाती हैं। इससे छोटी संस्थाओं को भी पहचान मिलती है। हर पांचवे साल इनका राष्ट्रीय सम्मेलन भी होता है।

 

अधिकांश हिन्दू मंदिर तथा धार्मिक संस्थाएं भी कुछ सेवा के काम करती हैं। इन्हें जोड़ने के लिए कई राज्यों में हिन्दू आध्यात्मिक मेले प्रारम्भ हुए हैं। सेवा निजी ही नहीं, सामाजिक साधना भी है। अतः कई संस्थाएं बनाकर स्वयंसेवक समाज की जरूरत के अनुसार काम कर रहे हैं।

 

वनवासी कल्याण आश्रम, विद्या भारती, सेवा भारती, विश्व हिन्दू परिषद, भारत विकास परिषद, विद्यार्थी परिषद, दीनदयाल शोध संस्थान, भारतीय कुष्ठ निवारक संघ, विवेकानंद केन्द्र आदि का इनमें विशेष योगदान है। इनके द्वारा शिक्षा, स्वास्थ्य, कौशल विकास से रोजगार, ग्राम एवं कृषि विकास, कुरीति निवारण, नारी उत्थान और स्वावलम्बन, गो संवर्धन जैसे हजारों प्रकल्प चलाये जा रहे हैं। अनुसूचित जाति और जनजातियां इनसे विशेष रूप से लाभान्वित होती हैं।

 

संघ के कार्यकर्ता जिस निर्धन बस्ती में काम करते हैं, वहां अपनी राजनीतिक दुकान लगाये नेता उनका विरोध करते हैं; पर कुछ समय बाद बस्ती के लोग उन नेताओं को ही भगा देते हैं। क्योंकि सेवा के कार्य से उस बस्ती वालों का ही भला होता है। राहुल बाबा चाहे जितना चिल्लाएं; पर संघ का काम इन बस्तियों में लगातार बढ़ रहा है।

 

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here