रासलीला है, संसार का पहला खुला रंगमंच

                                  आत्माराम यादव पीव

                देश ओर काल की परंपरागत विभिन्न परिस्थितियो में भारत के नाट्य रंगमंचों को विश्व में कला ओर संस्कृति का विशिष्ट स्थान प्राप्त है तभी वेदपुराणों ओर शास्त्रों के ऋषियों ने रास- रसेश्वर श्रीकृष्ण की रासलीला का खुले में लीला को साकार रूप दिये जाने के कारण रासलीला को विश्व के खुले रंगमंच पर प्रथम स्थान पर शोभित माना है। वृन्दावन के निधि वन में आज भी अर्द्धरात्रि को श्रीकृष्ण का राधा जी ओर अपनी सखी गोपियों के साथ रासलीला रचाने का प्रमाण हजारों साल बाद मौजूद है जहा तुलसी का हर पेड़ जोड़े मे है ओर मान्यता है की रात के ये गोपियों के रूप मे बदल जाते है ओर सुबह फिर से पौधे बन जाते है। विज्ञान निधि वन के रहस्य को सुलझा नहीं सका है जहा बने मंदिर में आज भी कृष्ण शयन करने आते है, प्रसाद ग्रहण करते है, दातौन चवाई हुई मिलती है, इंसान तो क्या जानवर ओर पशु पक्षी भी रोज रात को निधिवन से दूर रहते है।  काव्य में शृंगार रस “रसराज “ का पद प्राप्त किए है ओर शृंगार रस के देवता श्रीकृष्ण है जिनके सौन्दर्यमुख, चितवन ओर नृत्य की अदाओं की पावन भावभंगिमाओ से सभी बृजवासी बंधे हुए थे ओर बृजबालाएँ श्रीकृष्ण के नाचे गए नित्य नाच रास से उनकी छवि को नटनागर, मनमोहन के रूप में अपने हृदय में धारण कर उस मोहनीरूप का रसास्वादन करती थी। श्रीकृष्ण रास के समस्त अंगों के मर्मज्ञ थे वे रास के तांडव ओर लास्य भेदों का सैद्धांतिक प्रयोग करते थे, इतना ही नहीं नृत्य के साथ गीत-संगीत ओर वाद्य के पूर्ण आचार्य थे जिसका प्रमाण गर्ग संहिता के खंड 10 अध्याय 46 में देखने को मिलता है जब रास के समय कृष्ण अंतर्ध्यान हो जाते है तब राधा जी मूर्छित हो जाती है तब कृष्ण ने प्रगट होकर उन्हे वेणु गीत सुनाया। वेणु गीत में ध्वनि के पाटाक्षरों का सम्मिश्रण होता है जिसमें बांसुरी में विभिन्न वादययंत्रो की ध्वनि के प्रयोगों से हृदय पर अलौकिक प्रभाव को टाला जाता है। जिसे सुनकर राधा जी को चेतना आ जाती है ओर उन्हे कृष्ण का सामीप्य प्राप्त होता है।

      रासलीला के व्यापक वर्णन का साक्ष्य सेकड़ों भाषाओं में साहित्यकारों के अनेक शोध ओर रचनाए में मिलता है। जयदेव कृत “गीत गोविंदम” मुनि जिनविजय का “”रासक””  विध्यापति, चंडीदास, मैथिल कोकिल ने रास का वर्णन किया है वही गुजराती भाषा, बंगला भाषा, तमिल कन्नड भाषा में नृत्यिम “अल्लाम” ओर “कुरुबई” में रासलीला का नृत्यों में उपयोग कर रास रंगमंच को विश्वव्यापी बनाया है।  कत्थक नृत्य का पुराना नाम “नटवरीनृत्य” है। शिवजी ओर कृष्ण जी के 7 दिन चले रास से “मणिपुरी नृत्य” की परंपरा शुरू हुई। मोरपंख बांधकर बृज से प्रारम्भ हुआ कृष्ण राधा का रास नृत्य गुजरात का “गरबा नृत्य” बना जिसे सूरत में “धीरयानृत्य”” भी कहा गया है। बृजभाषा का रास सम्बन्धी साहित्य अक्षुण्य है जिसमे श्रीकृष्ण का शरदकालीन रास का विसद वर्णन है ओर नृत्य के बिना रास की कल्पना अधूरी है। संसार के इस खुले रंगमंच के प्रथम अभिनीत रास की परंपरा का प्रमाण श्रीमदभागवत पुराण में एक कथा में मिलता है की शरद निशा में यमुना पुलिन पर श्रीकृष्ण ने रास का आयोजन किया है जिसमे भगवान ने रासलीला आरंभ कर अंतर्ध्यान हो गए थे।  अंतर्ध्यान होने के संबंध में बताया गया की गोपियो को खुद पर अहंकार हो गया की श्रीकृष्ण उनके आधीन है, उन्होने कृष्ण को वश में कर लिया है। जब वे नहीं दिखे तो गोपियों का अहंकार चूर चूर हो गया ओर वे व्याकुल होकर उन्हे पुकारने लगी। तब कृष्ण ने प्रगट होकर जितनी गोपियाँ थी उतने रूप रखकर उनका सानिग्ध कर रास रचाया ओर उनको प्रसन्न किया। यही नित्य रास का प्रथम सोपान कहा गया है जिसमें गायन, वादन ओर नृत्य तीन विधाओं को शामिल किया गया है ओर श्रीकृष्ण द्वारा किए जाने से यह “नित्यरास” के रूप में स्थापित हुआ। रास के आदिप्रणेता श्रीकृष्ण है तभी रास के द्वितीय सौपान में कृष्ण के जीवन की लीलाए शामिल की गई लेकिन रास के द्वितीय भाग में लीलाओ का अभिनय गोप-गोपियों ने किया जो क्रम कई शताब्दियों से अब तक चला आ रहा है।

       एक दौर वह था जब सम्पूर्ण भारत में बृजमण्डल की अनेक रासलीला मण्ड्लिया अपने कुशल कलाकारों के साथ देश के कौने कौने में जाकर रासलीला का मंच सजाकर प्रथम सौपान में श्रीकृष्ण-राधा जी के रासमंडल की सुंदर मनोहारी झांकी सजाकर नृत्य ओर कला प्रस्तुत करने के बाद श्रीकृष्ण की लीलाओ का नाट्य रूप में सजीव चित्रण कर दर्शको को मंत्रमुग्ध कर उनके दिलों पर राज किया करती थी, जो शने शने कम होती गयी ओर अब ये रासलीला मंडलिया गिनती की रह गई है। रासलीला के इस महनायक श्रीकृष्ण राधा ओर गोपियों के सजीव जीवन चित्रण को भक्तिकाल के कवियों ने नटों के द्वारा जिन्हे नट जाति का ठहरा दिया गया है के द्वारा अभिनीत किया जाना उल्लेखित किया है जो उस काल में प्रसिद्धि के सौपान पर थे। माना गया है की नट जिस भी पात्र के अभिनय को अभिनीत करते दर्शकों को वह जीवंत अभिनय लगता ओर तब राजा महाराजाओ के दरवार में इन नटों के द्वारा कई नाट्य के साथ पूर्ण शृंगारिक होकर नृत्यकी के सुरों में रासलीला की आध्यात्मिक भावनात्मक प्रस्तुति की जाती रही किन्तु धीरे धीरे नटों द्वारा कामुक शृंगारिक नृत्य की ओर रुख किए जाने से यह रास का स्वरूप बिगड गया ओर नटों के प्रति मोहभंग के बाद कुछ बृज के लोग जो स्वांग रंचने में माहिर थे जिन्हे भगत कहा जाता था का आकर्षण बढ़ा, जो श्रीकृष्ण की इस गूढ़ लीला को अपने हित में उसका लौकिक व्यापार बनाने के कारण कुछ समय बाद निस्तेज हो गए। आज के परिवेश में नटो को अभिनेता/अभिनेत्री माना जा सकता है जिनके चित्रपट पर अभिनय के कारण समाज में रासलीला के प्रति आकर्षण घटने से दर्शकों की संख्या सीमित होकर रह गई है।  रासलीला के रंगमंच की स्थापना का श्रेय महाप्रभु वल्लभाचार्य स्वामी हरिदास एंव महाप्रभु हितहरिवश को जाता है जिन्होने मथुरा के विश्रांत घाट पर 8 चतुर्वेदी ब्राम्हण बालकों को चतुर्वेदी परिवारों से मांगकर रास का अभ्यास कराया ओर एक बालक को कृष्ण,एक को राधा ओर शेष को गोपीस्वरूप शृंगार किया किन्तु वे सभी बालक अंतर्ध्यान हो गए जिससे बच्चों के परिवार ने बड़ा उपद्रव किया । महाप्रभु हितहरिवश जी ने उनके परिजनों को यमुना स्नान के लिए कहा तब सभी ने अपने बच्चों को यमुना जी के जल के भीतर कृष्ण राधा के साथ “नित्यरास” करते देखा जिसका जिक्र आकाशवाणी नईदिल्ली के उद्घोषक श्रीराम नारायण अग्रवाल के द्वारा वर्ष 1959 में प्रसारित किया गया। यह प्रसंग प्रमाण है भक्त ओर भगवान के स्वरूप को हृदयगम करने की आध्यात्मिक व आधिभौतिक लीला को,  अगर लौकिक धरातल पर अनुकरणात्मक होकर दृश्य लीला का स्वरूप धारण करे तो माधुर्य की भक्तिनिष्ठा को कृष्ण किस प्रकार अंगीकार करते है, यह भक्त का भगवान में समा जाना नहीं, बल्कि भगवान का भक्त में एकीकार हो जाना है जो पराकीय भक्ति का पूर्ण समर्पण है। यह पूर्ण समर्पण तभी माना है जब मुक्त जीवों का ब्रम्हानन्द से उद्धार होकर भजनानन्द से मिलना हो।

       रासलीलाओं में शृंगारमयी प्रसंगों ओर कामक्रीड़ामयी प्रसंगों को देखकर यह समाज उसे अश्लील समझ बैठा है। कृष्ण के रास में सभी ओर काम की चेष्टाए दिखती है,परंतु काम कही नही है। गोपियो के मन में लौकिक काम का शमन करके भगवान ने अलौकिक काम अर्थात निष्काम की पूर्ति की है ओर रास लीला में किसी मर्यादा का हरण नही हुआ है बल्कि गोपियों को स्वरूपानन्द से मुक्ति मिली है। वास्तव में देखा जाये तो रासलीला को जो लोग निंदित करते है वे भूल जाते है की यह “”कामजयी लीला”” है ओर जो मनुष्य अंतरंग अर्थात अपने अंदर के आनंद रस को ओर बहिरंग का अभिप्राय बाहर के काम को पराजित करने के रहस्य को समझकर काम को नहीं जीतेगा वह रासलीला देखने का अधिकारी नही होगा। ऐसे ही कुंठित मानसिकता के व्यक्ति रास लीला अर्थात भगवान के नित्यरास ओर उनके जीवन चरित्र का रसास्वादन नही कर पाते है।       नित्य रास का जब भी मंचन होता है एक विशाल स्टेज पर सिंहासन पर राधा जी सहित श्रीकृष्ण अपनी गोपियों के साथ विराजते है। आज से तीन दसक पहले में बचपन से युवा रहते नित्य रास का रसास्वादन लेने ग्वालटोली स्थित काली मंदिर ओर नर्मदाघाट स्थित बाँकेबिहारी जी के मंदरी में प्रारम्भ से अंत तक नित्य रास का आनंद लेता था जो मेरी स्मृति में आज अंकित है। मंच के एक कोने में वाद्ययंत्र वादक बैठा करते थे तो दूसरे कोने में हारमोनियम,सारंगी, ठोलक,मृदंग तबलावादक होते। माइक एक ऐसे संचालक जिन्हे स्वामी जी भी कहते  के हाथ होता जो सभी लीलाओं का पारंगत होने के साथ हर लीला में हर पात्रों के संवाद मुह जुबानी याद रखते। पर्दा खुलते ही सिंहासन पर राधा जी ओर कृष्ण जी का स्वरूप विराजमान होता ओर स्वामी जी जाकर उनके चरण स्पर्श करते ओर मंगलाचरण शुरू हो जाता। माइक पर प्रार्थना के पुट गूँजते- “”श्री ब्रजकुमार वर गाईये, ब्रज की जीवन घन गाईये।“” प्रार्थना पूरी होते ही चार सखिया आरती की थाली लिए खड़ी हो जाती ओर थाली में गेहूं का चूर्ण का चौमुखा दीपक जलाकर युगल सरकार की आरती गाने लगती।  आरती के बाद सभी सखिया युगल सरकार कृष्ण राधा के चरण स्पर्श करती ओर एक सखी प्रिया प्रियतम से रास मण्डल में पधारने के लिए कहती –“हे प्रिया प्रियतम जी, आपके नित्य रास कौ समय है गयों है,सो आप कृपा करके रासमण्डल में पाधारों जु।“  यह कहकर सखिया सामने बैठ जाती तब कृष्ण अपने बगल में बैठी राधा जी से नित्य रास में पधारने के लिए प्रार्थना करते। प्रार्थना समाप्त कर कृष्ण सिंहासन से नीचे उतरते है ओर राधा जी के हाथ जोड़कर कहते है कि – “हे श्रीकिसोरी जु, आपके नित्य रास कौ समय है गयो है। आप कृपा करके रासमण्डल में पधारो।“ तब श्रीजी उनके हाथों को पकड़कर उत्तर देती है अच्छा प्यारे,फिर हाथ छोडकर गीत गाती है। ओर गीत समाप्त होते ही कृष्ण जी के गले मैं बांहे डाल देती है ओर श्री ठाकुर जी गले में गलबहिया डाले हुये उठकर नीचे आ जाते है, साथ में सखिया भी खड़ी हो जाती है। राधा जी ओर कृष्ण आमने सामने होते है ओर सखिया बीच में फिर नृत्य शुरू हो जाता है ओर पाद  नृत्य में पहले राधा कृष्ण के पैरी के घुंगरुओ की ध्वनि गूँजती है। फिर माइक पर स्वामी जी गीतशुरू करते है ओर सभी पात्र गोलाकार बनाकर नृत्य शुरू कर कदमों की ताल बढ़ाते है फिर सभी गोल गोल घूमते नाचते है ओर अपने हाथों को कलाइयों को, अंगुलियों को गीत के लय के साथ घुमाते है। कृष्ण राधा ओर सखिया अपनी कमर को लय देते हुये मुख ओर आँखों से भाव भंगिमाओ को प्रगट कर दर्शको को मोहित करते है।  इसके बाद सभी घुटनों के बल बैठकर घूंटनों का नृत्य प्रस्तुत कर गोल गोल घूमते है। थाली नृत्य, मोरपखा नृत्य करके कृष्ण राधा खड़े हो जाते है ओर स्वामी जी गीत बदलते है तब कृष्ण नाचते है ओर राधा जी खड़ी हो जाती है। फिर कृष्ण खड़े हो जाते है राधा जी नृत्य करती है ओर स्वामी जी के बोल उसी प्रकार कृष्ण ओर राधा से नृत्य कराने के होते है। स्वामी जी माइक से – “”थेई थेई थेई थेई थेई तत थेई थेई । थेई थेई थेई थेई थेई थेई थेई ता।“”गीत पूरा करते है तब ता कहकर कृष्ण राधा जी सिंहासन पर विराजते है ओर सखिया दोनों ओर खड़ी हो जाती है। इस प्रकार नित्य रास का प्रथम भाग लीला पूर्ण होती है। उनके विराजने के बाद दर्शक दीर्घा के दर्शक इन मनोहारी छवि के दर्शन ओर चरणस्पर्श के लिए उमड़ पड़ते है ओर भेंट अर्पित कर अपने स्थान पर बैठ जाते है। स्वामी जी इसके बाद दूसरे भाग की लीला के लिये मंच से  -“नाचत रास में रास बिहारी,नचवत है बृज की सब नर नारी।“ पद गाना शुरू करते है। राधा कृष्ण सिंहासन से उतरकर नीचे आते है ओर एक दूसरे के वस्त्रों को आभूषणों को शृंगार को ठीक करने का उपक्रम करते है। कुछेक लोकप्रिय भजन, गीतों पर नृत्य के नित्यरास के पूर्ण होने पर राधा कृष्ण के कुंजबिहारी लाल की जय, बाँके बिहारीलाल की जय आदि  विभिन्न नामों की जयघोष होती है फिर उसके कुछ समय बाद रासलीला में उस लीला का मंचन शुरू होता है जो उद्घोषित की जाती है जिसमे कालियादह, दधिलूट लीला, पूतना वध से लेकर कृष्ण के बाल जीवन के कोई भी लीला का प्रसंग शामिल हो सकता है जो देर रात तक चलती है।  यह खुले मंच की संसार की प्रथम रासलीला का क्रम मथुरा वृन्दावन सहित बृजभूमि पर हमेशा चलते रहता है जिसे यदा कदा देश-दुनिया में मंचन हेतु आमंत्रित करने पर उसका आनंद सर्वत्र देखा जा सकता है।     

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