आज़ादी रे आज़ादी तेरा रूप कैसा ?

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राजीव गुप्ता

15 अगस्त 1945 को जापान के आत्मसमर्पण के साथ द्वितीय विश्व युद्ध हिरोशिमा और नागासाकी के त्रासदी के रूप में कलंक लेकर समाप्त तो हुआ परन्तु आज जापान 11 मार्च 2011, को आये भूकंप और सूनामी जैसी त्रासदी के बाद भी बिना अपने मूल्यों से समझौता किये राष्ट्रभक्ति, अपनी ईमानदारी और कठिन परिश्रम के आधार पर अखिल विश्व के मानस पटल पर लगभग हर क्षेत्र में गहरी छाप छोड़ता हुआ नित्य-प्रतिदिन आगे बढ़ता ही जा रहा है ! ठीक दो वर्ष बाद 15 अगस्त 1947 को भारत माँ अपने रण-बांकुरों की कुर्बानियों के साथ एक खंडित रूप में अंग्रेजों की बेड़ियों से स्वाधीनता तो प्राप्त कर ली परन्तु शायद हम आज भी स्व-तंत्र नहीं हो पायें है ! हमने अपने लगभग हर मूल्यों से समझौता कर लिया ! तंत्र हमने किसी और देश से लिया तो मैकाले – शिक्षा नीति किसी और देश से ली जो पूर्णतः परीक्षण पर आधारित थी ना कि प्रशिक्षण पर ! सच मानिये मुझे आज तक यह नहीं पता चल पाया कि वेदव्यास, तुलसीदास , कालिदास आदि जैसे प्रकांड विद्वानों ने किस विश्वविद्यालय से पढाई की थी या कौन सी डिग्री ली थी ? तात्पर्य यह है की प्राचीन भारतीय शिक्षा दर्शन तो भारत में था अब इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है तो फिर क्या ऐसी मजबूरी है कि स्वाधीनता प्राप्ति के बाद आज तक भी हम उस मैकाले की शिक्षा नीति को अपनाये हुए है जिसने खुद भारत में काले अंग्रेज तैयार करने के उद्देश्य से एक ऐसी विकृत शिक्षा नीति लागू की थी ! इस बात को वह स्वयं स्वीकार भी करता है ! जिसको मैक्समूलर ने प्राचीनतम ग्रंथों के साथ साथ भारतीय इतिहास को तोड़ – मरोड़ कर अपने अनुसार व्याख्या कर और सुदृढ़ किया !

प्राचीन भारत का शिक्षा-दर्शन की शिक्षा, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के लिए थी। इनका क्रमिक विकास ही शिक्षा का एकमात्र लक्ष्य था। मोक्ष जीवन का सर्वोपरि लक्ष्य था और यही शिक्षा का भी अन्तिम लक्ष्य था। वही अमेरिका जैसे देशों का पाश्चात्य शिक्षा दर्शन पूर्णतः प्रकृति-शोषण, बाजारवाद और भोगवाद पर आधारित है ! प्राचीन काल में जीवन-दर्शन ने शिक्षा के उद्देश्यों को निर्धारित किया था। जीवन की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि का प्रभाव शिक्षा दर्शन पर भी पड़ा था। उस काल के शिक्षकों, ऋषियों आदि ने चित्त-वृत्ति-निरोध को शिक्षा का उद्देश्य माना था। शिक्षा का लक्ष्य यह भी था कि आध्यात्मिक मूल्यों का विकास हो। उस समय भौतिक सुविधाओं के विकास की ओर ध्यान देना किंचित भी आवश्यक नहीं था क्योंकि भूमि धन-धान्य से पूर्ण थी, भूमि पर जनसंख्या का भार नहीं था। किन्तु इसका यह भी अर्थ नहीं था कि लोकोपयोगी शिक्षा का आभाव था। प्रथमत: लोकोपयोगी शिक्षा परिवार में, परिवार के मध्यम से ही सम्पन्न हो जाती थीं। वंश की परंपरायें थीं और ये परम्परायें पिता से पुत्र को हस्तान्तरित होती रहती थीं। व्यवसायों के क्षेत्र में प्रतियोगिता नहीं के बराबर थीं। सभी के लिए काम उपलब्ध था। सभी की आवश्यकताएँ पूर्ण हो जाती थीं।

वर्तमान जीवन में राजनीति का प्रभुत्व है। धर्म, समाज, अर्थ आदि सभी में राजनीति का प्रवेश है। सभी पर राजनीति हावी है। प्राचीन युग की प्रधानता होने से राजनीति में हिंसा और शत्रुता, द्वेष और ईर्ष्या, परिग्रह और स्वार्थ का बहुल्य न होकर, प्रेम, सदाचार त्याग और अपरिग्रह महत्वपूर्ण थे। उदात्त भावनायें बलवती थीं। दिव्य सिद्धान्त जीवन के मार्गदर्शक थे। सामाजिक व्यवस्था में व्यक्ति प्रधान नहीं था, अपितु वह परिवार और समाज के लिए व्यक्तिगत स्वार्थ का त्याग करने को तत्पर था। उदात्त वृत्ति की सीमा सम्पूर्ण वसुधा थी। जीवन का आदर्श ‘वसुधैवकुटुम्बकम्’ था। कहतें है कि जो देश अपनी सभ्यता, अपने पूर्वजों को भूल जाता है उसका अस्तित्व भी ज्यादा समय तक नहीं रहता !

परन्तु आज अगर कोई वर्ग देश – भक्ति की बात करता है तो उसे किसी संगठन विशेष से जोड़ कर उस पर कट्टरता का तोहमत लगाकर उसे प्रताड़ित किया जाता है, उसके खिलाफ सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम (न्याय एवं क्षतिपूर्ति) विधेयक – 2011 जैसा कानून लाया जाता है ! आज इस स्वाधीन भारत में अगर ऊपर से नीचे तक अर्थात मंत्री से लेकर संतरी तक सुरसा की भांति फैलें भ्रष्टाचार के खिलाफ अगर कोई आवज उठाता है तो उस पर जलियावाल बाग़ जैसा हमला होता है ! और तो और गरीब के लिए जहां एक तरफ मनरेगा के अंतर्गत 100 दिन का रोजगार देने का कानून बनाया गया तो वही दूसरी तरफ संगठित क्षेत्र के सरकारी कर्मचारियों को वर्ष में अन्य त्योहारों – पर्वों छोड़कर को लगभग 104 ( शनिवार और रविवार ) दिन का अवकाश देकर उन गरीबों का मखौल उड़ाया जाता है ! आजकल के कुछ आदर्श राजनेता सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए कभी गरीबों की झोपडी में रात बिताते है तो कभी किसानो व गरीबों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते हुए मीडिया से अपनी ब्रांडिंग करवाते है ! तिरंगे को जलाने वाले अलगाववादियों को आज के राजनेता अपना मेहमान बनाते है तो लालचौक पर झंडा फहराने वालों पर सांप्रदायिक हिंसा भड़काने का आरोप मढ़ते है ! जहां आज के राजनेताओं को देश के लिए अपनी जान न्यौछावर कर देने वाले शहीदों के परिवारवालों की सुध लेने की फुरसत नहीं है वही दूसरी तरफ हमलावर-कातिलों को सरकारी मेहमान बनाकर उन पर जनता का करोड़ों रूपया खर्च करते है ! आज सरकारी गोदामों में आनाज सड़ जाता है परन्तु विदर्भ जैसे प्रान्तों के किसानो को भूखा मारना मंजूर है ! वनवासियों के तन ढकने के लिए व उन्हें समाज से जोड़ने के लिए सरकार के पास पैसा नहीं है परन्तु उनके धर्मान्तरण के लिए खूब पैसा लूटाया जाता है ! केन्द्रीय सेवा लोक आयोग में अंग्रेजी शिक्षा को जहां अनिवार्य बना दिया जाता है वही अपनी भारतीय भाषाओँ की पूर्णतः अनदेखी कर दी जाती है !

आज देश की इस दयनीय हालत के लिए जिम्मेदार व्यक्ति और उसकी आयतित की हुई नियति है जो कि अपने मूल से कट गए है ! व्यक्ति अपने अंतिम लक्ष्य से विहीन हो गया है ! अब उसका लक्ष्य पश्चिम चिंतन के अनुरूप अर्थ और काम ही रह गया है , यह कहना कदापि अनुचित ना होगा कि अब उसने धर्म और मोक्ष को किनारे लगा दिया है ! उसने मरीचिका की तरह चमचमाती हुई भौतिकवादिता को आधुनिकता का आधार मानकर सस्ती कु-राजनीति करते हुए ऐसी व्यवस्था बना ली है जिसे बदलने के लिए वह कभी तैयार नहीं होगा भले ही उसे स्वामी रामदेव और अन्ना हजारे जैसे समाजसेवियों से टकराना पड़े ! यह कहना उचित ही होगा कि अभी हम स्वाधीन तो है परन्तु पूर्ण स्वतन्त्रता लेना अभी बाकी है !

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  1. राजीव जी इस बार आपने बहुत सी बातें एक साथ कहने की कोशिश की है और आपके लेख में भावनाओं का प्रवाह अधिक दिखाई दे रहा है.हमारी शिक्षा यदि इह लोक से ज्यादा परलोक पर ध्यान दे रही थी तो वह एक तरह से पलायन वाद थी,हालांकि मेरे ज्ञान के अनुसार ऐसा नहीं था.गांधी जी अपनी भाषा में शिक्षा के महत्त्व को समझते थे,इसीलिए स्वदेशी के साथ साथ मात्री भाषा में शिक्षा पर उनका हमेशा जोर रहा और वे आंचलिक भाषाओं के विकास के साथ हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने के प्रति कटीवद्ध थे.इसी के फलस्वरूप स्वतंत्रता कीलड़ाई के साथ साथ हिन्दीके विकास का भी कार्यक्रम चलता रहा था और बहुत समय तक चाक्रवर्ती राजगोपालाचारी दक्षिण में नागरी प्रचार सभा के अध्यक्ष रहे थे.आज तक मैं इस प्रश्न का उत्तर खोजने में में असमर्थ रहा हूँ की बाद में ऐसा क्या हुआ जिसके कारण वही राजगोपालाचारी हिंदी के कट्टर शत्रु बन गये.दूसरी बात आती है संविधान के साथ राष्ट्र भाषा के सम्बन्ध में तो इसमे सबसे ज्यादा दोषी नेहरु और डाक्टर अम्वेद्कर थे.वे कभी भी हिंदी या देश का किसी भाषा को भारत की राष्ट्र भाषा के रूप में नहीं देखना चाहते थे.अंग्रेजी वातावरण में पले होने के कारण दोनों को अंग्रेजी भाषा से हद से ज्यादा लगाव था और इसकी परिणति के रूप में आज भी हम अंग्रेजी भाषा को ढ़ो रहे हैं और अबतो इससे छुटकारा पाना नामुमकिन ही लगता है.इसी के सिलसिले में परीक्षण और प्रशिक्षण की बात आती है मेरा केवल यह कहना है की संविधान बनाते समय हमारे नेताओं ने शायद इस पर ध्यान देने की आवश्यकता हीं नहीं समझी.होना तोयह चाहिए था की आजादी के साथ ही राष्ट्र भाषा का भी एलान कर दिया गया होता.उस समय माहौल ऐसा था की किसी को एतराज भी नहीं होता.रूस और चीन की तरह तकनीकी और अन्य पुस्तकों का जो हिंदी में नही उपलब्ध थे समय सीमा निर्धारित करके हिंदी में अनुवाद कर लिया जाता.पर जब ऐसा नहीं हुआ तो हमें इस विरासत को ढोना ही है.
    आपने अपने लेख में जापान का दृष्टांत दिया है तो मैं इतना ही कह सकता हूँ की हम अपने को भारतीय समझना आरम्भ तो करे तब न राष्ट्र के उत्थान और निष्ठा की बात करेंगे.भ्रष्टाचारी कभी चरित्रवान नहीं हो सकता और जब तक आप चरित्रवान नहीं हैं तब तक देशभक्ति आही नहीं सकती.

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