व्रत-उपवास एवं महर्षि दयानन्द

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मनमोहन कुमार आर्य

आजकल हमारे देश के बहुत से लोग नाना दिवसों पर व्रत व उपवास आदि रखते और आशा करते हैं कि उससे उनको लाभ होगा। महर्षि  दयानन्द चारों वेदों व सम्पूर्ण वैदिक व अवैदिक ग्रन्थों के अपूर्व विद्वान थे। उन्होंने समाधि अवस्था में ईश्वर का साक्षात्कार भी किया था और अपने विवेक से व्रत-उपवासों एवं इसी प्रकार के अन्य कर्मकाण्डों की असलियत को जाना था। सत्य व असत्य का ज्ञान कराने के लिए उन्होंने व्रत व उपवास का उल्लेख स्वलिखित ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के एकादशसमुल्लास में किया है। लोग को इन व्रतों व उपवासों का सत्य स्वरूप विदित कराने के लिए हम महर्षि की कुछ पंक्तियों का उल्लेख कर रहे हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने एक प्रश्न प्रस्तुत किया है कि गरुडपुराणादि जो ग्रन्थ हैं, क्या यह वेदार्थ वा वेद की पुष्टि करने वाले हैं या नहीं? इसका उत्तर देते हुए वह कहते हैं कि नहीं, किन्तु वेद के विरोधी और उलटे चलते हैं तथा तन्त्र ग्रन्थ भी वैसे ही हैं। जैसे कोई मनुष्य किसी एक का मित्र और सब संसार का शत्रु हो, वैसा ही पुराण और तन्त्र ग्रन्थों को मानने वाला पुरूष होता है क्योंकि एक दूसरे से विरोध कराने वाले ये ग्रन्थ हैं। इनका मानना किसी विद्वान का काम नहीं किन्तु इन को मानना अविद्वता-अज्ञान-अन्धविश्वास है। वह लिखते हैं कि देखो ! शिवपुराण में त्रयोदशी, सोमवार, आदित्यपुराण में रवि, चन्द्रखण्ड में सोमग्रह वाले मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनैश्चर, राहु, केतु के वैष्णव एकादशी, वामन की द्वादशी, नृसिंह वा अनन्त की चतुर्दशी, चन्द्रमा की पौर्णमासी, दिक्पालों की दशमी, दुर्गा की नौमी, वसुओं की अष्टमी, मुनियों की सप्तमी, कार्तिक स्वामी की षष्ठी, नाग की पंचमी, गणेश की चतुर्थी, गौरी की तृतीया, अश्विनीकुमार की द्वितीया, आद्यादेवी की प्रतिपदा और पितरों की अमावस्या पुराण रीति से ये दिन उपवास करने के हैं। और सर्वत्र यही लिखा है कि जो मनुष्य इन वार और तिथियों में अन्न, पान ग्रहण करेगा वह नरकगामी होगा।

 

अब पोप और पोप जी के चेलों को चाहिये कि किसी वार अथवा किसी तिथि में भोजन करें क्योंकि जो भोजन वा पान किया तो नरकगामी होंगे। अब निर्णयसिन्धु’, ‘धर्मसिन्धु’, ‘व्रतार्क आदि ग्रन्थ जो कि प्रमादी लोगों के बनाये हैं, उन्हीं में एक-एक व्रत की ऐसी दुर्दशा की है कि जैसे एकादशी को शैव, दशमी, विद्धा, कोई द्वादशी में एकादशी व्रत करते हैं अर्थात् क्या बड़ी विचित्र पोपलीला है कि भूखे मरने में भी वाद विवाद ही करते हैं। जो एकादशी का व्रत चलाया है उस में उनका अपना स्वार्थपन ही है और दया कुछ भी नहीं। वे कहते हैं-एकादश्यामन्ने पापानि वसन्ति।। जितने पाप हैं वे सब एकादशी के दिन अन्न में वसते हैं। इसके लिखने वाले पोप जी से पूछना चाहिये कि किस के पाप उस में बसते हैं? तेरे वा तेरे पिता आदि के? जो सब के पाप एकादशी में जा बसें तो एकादशी के दिन किसी को दुःख रहना चाहिये। ऐसा तो नहीं होता किन्तु उल्टा क्षुधा आदि से दुःख होता है। दुःख पाप का फल है। इससे भूखे मरना पाप है। इस का बड़ा माहात्म्य बनाया है जिस की कथा बांच के बहुत ठगे जाते हैं। उस में एक गाथा है कि–

 

ब्रह्मलोक में एक वेश्या थी। उस ने कुछ अपराध किया। उस को शाप हुआ कि तू पृथिवी पर गिर। उस ने स्तुति की कि मैं पुनः स्वर्ग में क्योंकर आ सकूंगी? उसने कहा जब कभी एकादशी के व्रत का फल तुझे कोई देगा तभी तू स्वर्ग में आ जायेगी। वह विमान सहित किसी नगर में गिर पड़ी। वहां के राजा ने उस से पूछा कि तू कौन है। तब उस ने सब वृतान्त कह सुनाया और कहा कि जो कोई मुझे एकादशी का फल अर्पण करे तो फिर भी स्वर्ग को जा सकती हूं। राजा ने नगर में खोज कराया। कोई भी एकादशी का व्रत करने वाला न मिला। किन्तु एक दिन किसी मूर्ख स्त्री पुरूष में लडाई हुई थी। क्रोध से स्त्री दिन रात भूखी रही थी। दैवयोग से उस दिन एकादशी ही थी। उस ने कहा कि मैंने एकादशी जानकर तो नहीं की, अकस्मात् उस दिन भूखी रह गई थी। ऐसे राजा के भृत्यों से कहा। तब तो वे उस को राजा के सामने ले आये। उस से राजा ने कहा कि तू इस विमान को छू। उसने छूआ तो उसी समय विमान ऊपर को उड़ गया। यह तो विना जाने एकादशी के व्रत का फल है। जो जान कर करे तो उस के फल का क्या पारावार है!!।

 

इस पर टिप्पणी कर महर्षि दयानन्द ने लिखा है–वाह रे आंख के अन्धे लोगों ! जे यह बात सच्ची हो तो हम एक पान का बीड़ा जो कि स्वर्ग में नहीं होता, भेजना चाहते हैं। सब एकादशी वाले अपनाअपना फल हमें दे दो। जो एक पान का बीड़ा ऊपर को चला जायेगा तो पुनः लाखों करोड़ों पान वहां भेजेंगे और हम भी एकादशी किया करेंगे और जो ऐसा होगा तो तुम लोगों को इस भूखे मरने रूप आपत्काल से बचावेंगे।

 

इन चौबीस एकादशियों के नाम पृथक्-पृथक् रक्खे हैं। किसी का धनदा किसी का कामदा किसी का पुत्रदा किसी का निर्जलाबहुत से दरिद्र बहुत से कामी और बहुत से निर्वंशी लोग एकादशी करके बूढ़े हो गये और मर भी गये परन्तु धन, कामना, और पुत्र प्राप्त हुआ और ज्येष्ठ महीने के शुक्लपक्ष में कि जिस समय एक घड़ी भर जल पावे तो मनुष्य व्याकुल हो जाता, व्रत करने वालों को महादुःख प्राप्त होता है। विशेष कर बंगाल में सब विधवा स्त्रियों को एकादशी के दिन बड़ी दुर्दशा होती है। इस निर्दयी कसाई को लिखते समय कुछ भी मन में दया आई, नहीं तो निर्जला का नाम सजला और पौष महीने की शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम निर्जला रख देता तो भी कुछ अच्छा होता। परन्तु इस पोप को दया से क्या काम? कोई जीवो वा मरो पोप जी का पेट पूरा भरो।महर्षि दयानन्द आगे लिखते हैं कि गर्भवती वा सद्योविवाहिता स्त्री, लड़के वा युवापुरूषों को तो कभी उपवास करना चाहिये। परन्तु किसी को करना भी हो तो जिस दिन अजीर्ण हो, क्षुधा लगे, उस दिन शर्करावत् (शर्बत) वा दूध पीकर रहना चाहिये। जो भूख में नहीं खाते और विना भूख के भोजन करते हैं वे दोनों रोगसागर में गोते खाते दुःख पाते हैं। इन प्रमादियों के कहने लिखने का प्रमाण कोई भी करे।

 

महर्षि दयानन्द ने अपने उपर्युक्त शब्दों में एकादशी सहित सभी व्रतों का वास्तविक स्वरूप लिख कर भोली भाली धर्मपारायण जनता का अपूर्व हित किया है। हम आशा करते हैं कि व्रत व उपवास आदि रखने वाले सभी धर्मप्रेमी महर्षि दयानन्द के शब्दों पर निष्पक्ष होकर विचार करेंगे जिससे उनको इसका लाभ प्राप्त हो सके। महर्षि दयानन्द ने सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने को अपने जीवन का उद्देश्य बनाया था, उसी का परिणाम उनके यह विचार और उनका सत्यासत्य विषयों का ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश है। वेदों में ईश्वर की आज्ञा भी यही है कि सभी मनुष्य सत्य को स्वीकार करें और असत्य का त्याग करें। आजकल अनेक चैनलों पर फलित ज्योतिष और व्रत-उपवास के अन्धविश्वास को जनता में परोसा जाता है। जनता दुविधा में फंसी है वह किसका विश्वास करे, किसका न करे। महर्षि दयानन्द का मत है कि कोई भी कार्य करने से पूर्व उसके सभी पहलुओं पर विस्तार से विचार कर उसकी यथोचित परीक्षा कर लेनी चाहिये और असत्य का त्याग व सत्य को स्वीकार करना चाहिये। इसी से मनुष्य के जीवन का कल्याण होता है।

 

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