एहसास ‘आधुनिकता’ का

1
187

modernism
ऋषभ कुमार सारण

 

थके हारे काम से आकर,

एक कोरे कागज को तख्ती पे लगाया,

मन किया कागज की सफेदी को अपने ख्वाबों से रंगने को,

उंगिलया मन की सुन के चुपचाप लिखने लगी,

और लेखनी भी कदम से कदम लाने लगी,

पर दिमाग “डिक्शनरी” में लफ़्ज ढूंढ़ रहा था !

और मेरा “जिया” उसको पढ़ना भूल आया था !!

आज का वो हास्य चलिचत्र भी था बड़ा लुभावना,

मास्टरजी का वो नायक को दण्ड देना,

और कक्षा में ही मास्टरजी का केले के छिलके से फिसल कर गिर जाना,

देख के इस व्यंग्य को,

और आस पास में बैठे दशर्को के प्रभाव में,

एक बड़ा-सा ठहाका हमने भी लगा दिया,

पर अंतरंग, अभी भी अपना निरालापन ढूंढ़ रहा था !

और मेरा ठहाका अपनी मौलिकता भूल आया था !!

गली से निकलते हुए,

एक पुराने जानकर से मुलाकात हुई,

मेल, फेसबुक के सवालात हुए,

हर एक प्रश्न हुआ, नोकरी, व्यापार और दिन-गुजारी का,

सिवाय अपनों के हालातों का,

अंत में विदाई में उसने भी मुस्कुरा दिया,

और उसका जवाब मैंने भी उसी मुस्कराहट से वापस दे दिया

पर मेरे सवाल रिश्तों में आई आधुनिकता ढूण्ढ रहे थे !

और दोनों की मुस्कुराहट, अपना ही एहसास भूल आयी था !!

इस अपनी छोटी सी दिनचर्या में,

आधुनिकता का एक खोप छाया है,

चाय की चुस्की से ले कर, एक कॉमेडी के मश्के में,

बस ब्राण्ड ही ब्राण्ड का साया है,

ना जाने यूँ कौनसे रास्ते पकड़ चले हैं,

पथिक अपने रास्ते ढूंढ़ रहा है,

और रास्ते खुद अपनी मंजिल भूल आये हैं !!

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here