नीतीश का पुनर्जन्म: मोदी ही मोदी

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

बिहार में नीतीश और भाजपा के गठबंधन को घोर अवसरवादी और अनैतिक भी कहा जा रहा है। लेकिन नीतीश के पास इसके अलावा विकल्प क्या था ? यदि नीतीश और लालू की सरकार बिहार में चलती रहती तो सबसे ज्यादा नुकसान किसका होता ? बिहार का होता। पिछले 20 महिनों में क्या बिहार की सरकार वैसी ही चली, जैसी कि वह जनता दल (ए) और भाजपा के गठबंधन के दौरान चली थी ? नीतीश और लालू के गठबंधन के दौरान 20 महिनों में प्रशासक के तौर नीतीश की छवि कुछ न कुछ ढीली ही हुई थी, क्योंकि लालू के दो बेटों को मंत्री बनाकर नीतीश ने अपने पांवों में बेड़ियां डाल रखी थीं। यह तो नीतीशजी की सज्जनता है कि उन्होंने लालू के बेटे और अपने उप-मुख्यमंत्री से इस्तीफा नहीं मांगा। उससे सिर्फ यही कहा कि अपने पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों की सफाई पेश करे। न उसने सफाई पेश की और न ही इस्तीफा दिया। लगभग एक माह बीत गया। लालू परिवार के भ्रष्टाचार के गड़े मुर्दे एक के बाद एक उखड़ते गए। ऐसे में खुद नीतीश ने इस्तीफा दे दिया। नीतीश के इस्तीफे ने तहलका मचा दिया। एक आरोपी उपमुख्यमंत्री इस्तीफा न दे और एक स्वच्छ मुख्यमंत्री इस्तीफा दे दे, यह अपने आप में बड़ी घटना है। नीतीश के इस इस्तीफे को गलत कैसे कहा जा सकता है ? कौन इसे  गलत कह सकता है ?
लेकिन भाजपा से तुरंत हुए नीतीश के गठबंधन को शुद्ध अवसरवाद और चालाकी कहा जा रहा है। नीतीश कुछ ही घंटों में दुबारा मुख्यमंत्री बनने की कवायद करने की बजाय यदि विधानसभा भंग करवा देते और चुनाव लड़ते तो कोई आश्चर्य नहीं कि वे प्रचंड बहुमत से जीतते और बिना किसी गठबंधन के वे वैसे ही अपनी सरकार बनाते जैसी कि उत्तरप्रदेश में भाजपा ने बनाई है। यदि ऐसा होता तो नीतीश न केवल बिहार के शक्तिशाली मुख्यमंत्री बनते बल्कि उन्हें भावी प्रधानमंत्री के तौर पर भी देखा जाने लगता। वे समस्त विरोधी दलों की आंख के तारे बन जाते।

नीतीश के इस नए गठबंधन ने केंद्र की सरकार और भाजपा के हाथ मजबूत कर दिए हैं। इस समय देश के दो सबसे बड़े प्रांतों– उप्र और बिहार में भाजपा की सरकारें बन गई हैं। नीतीश के गठबंधन ने 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा की जीत के नगाड़े अभी से बजाने शुरु कर दिए हैं। अब देश के 18 राज्यों में भाजपा का वर्चस्व हो गया है।

कांग्रेस अब सिर्फ पांच छोटे-मोटे राज्यों में सिमट गई है। उनमें भी कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व की भूमिका लगभग गौण हो गई है। लालू और नीतीश की जोड़ी के टूट ने यह संकेत भी दे दिया है कि मुलायमसिंह या अखिलेश और मायावती की संभावित एकता का अंजाम क्या हो सकता है। ममता बेनर्जी और अरविंद केजरीवाल के अलावा कौनसा प्रांतीय नेता इस समय मोदी सरकार के सामने तनकर खड़ा है ? कोई आश्चर्य नहीं कि विरोधियों की एकता की कांग्रेसी कोशिश की बिहार भ्रूण-हत्या कर दे। कांग्रेस का नीतीश पर यह आरोप कमजोर है कि उन्होंने लालू से गठबंधन तोड़कर बिहार की जनता के जनादेश का उल्लंघन किया है। यदि वे यह गठबंधन बनाए रहते और अपने मुंह पर पट्टी बांधे रहते तो क्या यह नहीं माना जाता कि बिहार का जनादेश भ्रष्टाचार करने के लिए था ? भ्रष्टाचार को बर्दाश्त करते रहना क्या जनादेश का पालन करना माना जाता ?

नीतीश ने भाजपा से गठबंधन करके अपने आप को बंधन में बांध लिया है। उनके प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा पर बंधन लग गया है लेकिन उस अग्नि-परीक्षा में दो साल शेष हैं। तब तक पता नहीं क्या हो ? राजनीति को पल्टा खाते देर नहीं लगती। कई अनहोनियां भी हो जाती हैं। ऐसे में नीतीश का भाजपा के साथ होना उनके लिए अप्रत्याशित फायदे का सौदा भी हो सकता है। मोदी और नीतीश, इस समय ये दो ही अखिल भारतीय चेहरे हैं। उम्मीद है कि नीतीश 2019 के लोकसभा के चुनाव तक भाजपा के साथ टिके रहेंगे। बिहार के सफल मुख्यमंत्री के तौर पर यदि उनकी छवि बहुत ज्यादा चमक गई तो हो सकता है कि सारे विरोधी दल मिलकर उन्हें अपना नेता बनाने का लालच दे डालें लेकिन नीतीश-जैसा चतुर राजनीतिज्ञ यह जानता है कि विरोधियों के खेमे में शामिल होकर उन्हें दुर्दशा के अलावा कुछ भी हाथ नहीं लगना है।

243 सदस्यों की विधानसभा में 131 वोटों का विश्वास-मत प्राप्त करके नीतीश ने यह सिद्ध कर दिया है कि उनके विधायकों को तोड़ने की कोशिश विफल हो गई है। यदि नीतीश के यादव और मुसलमान विधायकों को तोड़ लिया जाता तो उन्हें शक्ति-परीक्षण में बहुमत नहीं मिलता। नीतीश की अपनी पार्टी के विघ्नसंतोषी नेताओं को तो करारा जवाब मिल ही गया, लालू को भी पता चल गया कि अब कोई नया साथी उन्हें मिलनेवाला नहीं है। भाजपा में हुकुमदेव नारायण यादव जैसे कई कद्दावर यादव नेता हैं, जो नीतीश का साथ सहर्ष देंगे।

नीतीश की अपनी पार्टी के पूर्व अध्यक्ष शरद यादव-जैसे नेता पसोपेश में है। भाजपा के साथ कैसे जाएं ? उनसे पूछा जा सकता है कि जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा सरकार को हटाने के लिए 1977 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ का साथ लिया था या नहीं ? 1967 में डाॅ. राममनोहर लोहिया ने कांग्रेस के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बनाया था या नहीं  ? यदि जयप्रकाश का एक चेला (लालू) कांग्रेस की शरण में जा सकता है तो दूसरा चेला (नीतीश) भाजपा से हाथ क्यों नहीं मिला सकता ? नीतीश ने तो भाजपा के साथ 17 साल तक गठबंधन चलाए रखा। वे अटलजी की सरकार में मंत्री भी रहे। यह ठीक है कि 2013 में मोदी के प्रधानमंत्री-पद के उम्मीदवार बनने की संभावना ने नीतीश की महत्वकांक्षा को झटका दिया। नीतीश ने इस झटके को सैद्धांतिक जामा भी पहनाया। संघमुक्त भारत का नारा दिया। मोदी को कभी-कभी इस्लामी टोपी पहनने की सलाह भी दी। खुद को ‘बिहारी’ और मोदी को ‘बाहरी’ तक कहा। संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण संबंधी रचनात्मक सुझाव की मनचाही व्याख्या भी की। मोदी को जिस भोज पर निमंत्रित किया था, उसे नीतीश ने स्थगित कर दिया था। अब अपने इस रुप को भुलाकर नीतीश को नया जन्म लेना होगा। नीतीश को अब मोदी के साथ भोजन ही नहीं, भजन भी करना होगा। इसके संकेत उन्होंने पिछले साल से ही देने शुरु कर दिए थे। उन्होंने नोटबंदी का खुलकर समर्थन किया और रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाने का भी! पटना में मोदी के भाव-भीने स्वागत का अर्थ क्या था ? सुशील मोदी के लालू पर जबर्दस्त एकतरफा प्रहार का अर्थ सभी को समझ में आ रहा था। अब नीतीश के साथ पटना में भी मोदी और दिल्ली में भी मोदी हैं।

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