लाल और काली रात

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 गंगानन्‍द झा

(सैयद अलावल, सतरहवी शताब्दी के बंगाल का महान कवि, की कविता,जिसकी नाव पुर्तगाली लुटेरो और तूफान का सामना करती हुई अराकान पँहुची थी।)

लाल और काली रात ; लाल और काली रात में एक हरी नाव हिलती, डोलती, तूफान में फॅंसी,चकित,डरी हुई अरकान के तट की ओर बढ़ रही थी।

लेकिन तूफान आया और नाव तट के बजाय बहुत दूर के एक टापू से जा लगी और नाव में से एक नौजवान निकला, भूखा,ज़ख्मी, निढाल। वह रेत पर पड़ा था। फिर वह लड़की वहाँ आई और उसने कहा — मैं तुम्हें अपने घर ले जाउँगी। आदमी को बेसहारा और निराश नहीं होना चाहिए। तुम आदमी हो न ! अँधेरे, अकेले, गुस्सेवर समुद्र की आत्मा तो नहीं !

क्योंकि समुद्र अपने क्रोध में सारी पृथ्वी की तटों से टकराता रहता है, पर जमीन तक नहीं पँहुच पातां ; जमीन मजबूत हैं उसने सारी मानवता का बोझ अपने उपर उठा रखा हैं। समुद्र तो एक छोटी-सी नौका को भी सहारा नहीं दे पाता। उसका मुकाबला करने के लिए बड़े..बडे मयूरपंखी जहाज चाहिए: ऐसे बजरे जिन्हें चौदह-पन्दरह मॉझी खेते हैं।

और उस आदमी ने अलावल से कहा था — धरती पर घर बने हैं; मगर चाँद पर घर नहीं । घर नारियल की छाया में बनते हैं । मैं तुम्हारा घर बनूँगी ।

हवा रुकी रही । दुनिया ठहरी रही । नदी ने बहना बन्द कर दियां एक अनादि क्षण के लिए पूरा अस्तित्व परिवेश में विैलीन हो गया।

फिर हवा चली, सुन्दरी के पेड़ सरसराएं ; नदी बहने लगी।

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