लाल क्रांतिवाद बनाम लोकतंत्र।

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भारत को आजाद कराने और उसे प्रजातंत्र बनाने में हम सबके पुऱखों ने कुरबानी दी । देश की आजादी की ललक में । सपना लोकतंत्र था लाल तानाशाही कभी नहीं ।ये लोग तब भी लाल विश्व का सपना देख रहे थे । लाल विश्व जिसमें किसी का कुछभी अपना नहीं होगा । एक समूह तानाशाही से सबसे मेहवत करायेगा और
सारे संसाधन सबको ईमानदारी से बाँट देगा??? ये ईमानदारी?? से बाँटना सबको बराबर सुनने में अच्छा लगता है ।क्योंकि निकम्मों को सपना दिखाता है कि वारेन बफेट की सारी जायदाद में उनका भी हिस्सा होगा लेकिन व्यवहारिक कतई नहीं । मानव स्वभाव है वह अपनी माँ के कंधे पर बाप को हाथ नहीं रखने देता जब वह

शिशु होता है ।

सब के सब श्रमजीवी?? हो ही नहीं सकते । सबको एक सा मन दिमाग तन और इरादे विचार शक्ति मिलती ही नहीं है । आठ घंटे फावङा चलाने वाला रात रात

भर जागकर पूरे देश के मुद्दों पर हल निकालने वाले समाधान नहीं निकाल सकता । हर कोई दिमाग से इतना चौकन्ना नहीं हो सकता कि स्टीफ हॉफकिन्स या लियोनार्दो द विन्सी बन जाये । कोई भी बुद्ध की तरह धीरज और शांतिवान् अहिंसक भी नहीं हो सकता बंदूक की नोंक पर हक़ की बात???? केवल प्रतिशोध की राजनीति???? माना भ्रष्टाचार है और सिपाहियों नेभी अवेक मामलों में ज्यादतियाँ की हो सकती हैं । लेकिन बारूद की धमक पर कोई हक़ की माँग नहीं हो सकती । सारे वनवासी निरीह प्राणी नहीं है । इनमें तस्कर माफिया देशद्रोही बुरदाफरोश भी हैं । अपराध लगातार परंपरा बनने लगे तो समाज स्वीकृत हो जाये तो उस समूह के वही सब ठीक लगने लगता है अभी एक टिप्पणी पढ़ी कि कुछ भ्रष्ट नेता मर गये तो हाय हाय क्यों!!!

ये किसी नेता या सिपाही की भ्रष्टता या का मसला नहीं है । समस्या है भारत के प्रति निष्ठा की ।

जो देश को देश माने और देशवासियों की कर्तव्य रेखा पर खङा होकर बात करे सारे लोक का समर्थन मिले ।गरीबी वन पर निर्भरता की देन है । शिक्षा तकनीक और व्यवसायिक समझ अवसर और पूरे शेष भारत से मेलजोल से क्रमशः गरीबी दूर की जा सकती है । शराब या नशा ही जीवन की चरम सभ्यता औऱ आजादी नहीं हैं । जो वनवासी सेवाओं में आ चुके हैं आई एएस आई पी एस तक है ं वे खुद महसूस करते है बम बारूद समाधान नहीं ।

तब आदमी जो जितना मेहनत करे । योग्य हो पाये आज अनेक वनवासी संसद और विधानसभा में हैं ये लोकतंत्र में संभव है लालतंत्र में नहीं समाधान निरस्त्री करण में है । लोकतंत्र स्वराज स्वदेश जन्मभूमि मात्रभूमि । यही ज़ज्बा था सबके दिल में जब अतिवादी देशद्रोही । भारत पर चीन और रूस को बुला रहे थे तब भारत के सपूत मादरे वतन के की जंजीरों को तोङने के लिये तोप पर फाँसी पर हँस हँस कर चढ़ रहे थे । वो भारत माता कोई मजदूरो की तानाशाही नहीं लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण का गणतंत्र था सबको रोजी सबको न्याय चरमवाद में प्लेटो कहता है

स्त्रियाँ भी साझी होगीं बच्चे भी । जोङे बनाने तोङने की आजादी होगी । नक्सलवाद दरअसल देश के खोखले स्वप्नजीवी बुद्धिमान वर्ग की नाजायज औलाद है । नक्सली भूख गरीबी साधनहीनता की लङाई लङ रहे है!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

जो भी यह कहता है वह सिरे से ही अतिवादी है । आपको पता है दीवाली के फुलझङी पटाखों की कीमत । ?????? ये बम बारूद ये बारूदी सुरंगे ये बंदूकें ये कारतूस ये तकनीक ये अत्याधुनिक मारक हथियार?????? कहाँ से आये भूखे नंगे वनवासियों के हाथों में??? जिनके पास चावल खरीदने को चालीस रूपया रोज नहीं वो सौ रूपये से हजार रूपये तक का कारतूस रोज कहाँ से खरीदते है??????? एक बंदूक कई लाख की आती है??? और इतना पेट्रोल फूँकने को पैसा कहाँ से आता है?? पिछली बार सात सिपाहियों की हत्या करके पेट चीरकर उनमें हैंड ग्रेनेड भर दिये गये थे कि जो लोग लाशें उठाने आयें वो भी मारें

जायें । पिछले बीस सालों में गिनती कीजिये कितने सिपाही मारे गये????? कितने थाने लूटे गये कितनी संपत्ति आग के हवाले कर दी गयी??????

ये लाल क्रांति का झूठा सपना देखने वालों का बोया जहर है । जल जंगल जमीन का नारा व्यक्तिगत रूप से हमें भी पसंद है । लेकिन किसी भी तरह भारत

की तुलना रूस के जारशाही से नहीं की जा सकती । यू पी बिहार से ज्यादा बिजली पानी सङक और नागरिक सुविधायें छत्तीस गढ़ को लगातार देने में लगीं हुयी है केंद्र और राज्य सरकारें । भारत में लालक्रांति की चरमपंथी सोच सिरे से ही गलत है । भारतीयों को अकाल तक में वैसे हालातों का सामना नहीं करना पङा जो औऱ चीन में हुआ आम शासन के दौरान । लगातार सिपाहियों पर आऱोप है कि वनवासियों पर अत्याचार होते है औऱ उनको झूठा फँसाया जाता है ।

लेकिन क्यों नहीं ये सवाल कि चंबल की तरह सिख अलगाववादियों की तरह । नक्सली हथियार फेंक कर देश की मुख्यधारा में शामिल हो जाते???? मानवाधिकार व्यवस्था औऱ शांति की कीमत पर नहीं बचाये जा सकते । जो हत्यारा है वो सजा पाये यही कानून है । सिपाही निजी दुश्मनी से नहीं तैनात है ।

उनकी जरूरत ही न पङे फेंक दो हथियार औऱ चलो करो संरक्षण जल जंगल जमीन का । हिंसा कभी पोषणीय नहीं । मजदूर या दलित सरकार ने नहीं बनाया वहाँ जो हालात आजादी से पहले थे आज संसाधन से भरे हैं । सरकारी नौकरियों में आदिवासियों को आरक्षण है । औऱ अगर सारी ताकत हथियार खरीदने में खऱच कर रहे हैं तो विकास होगा ही कैसे । ये ज़ंग प्रशासन के खिलाफ है क्योंकि लाल शासन का सपना दिखाया जाकर आतंकवाद की तरह पृष्ठ पोषण किया जाता रहा ।

लंबे समय तक हम जंगलों के संपर्क में रहे है । वहाँ पूरी गुप्त योजना मिशनरियों और लालक्रांतिवादियों की काम करती है । ये लोग दिल्ली मुंबई कलकत्ता जैसे महानगरों में वातानुकूलित कमरों में बैठे हवाई यात्रायें कर रहे हैं औऱ साम्यवाद के नाम पर विश्वगाँव की कल्पना करते हैं । पूँजीवादी कहकर जिस धनसमग्र की निंदा करते है वही धन तो ध्येय बन जाता है । हम सब एक सपना देखते है जाति धर्म पंथ विहीन समाज का । ये हमारे सपने चुरा लेते हैं । लेनिन नाम रखने से कोई लेनिन नहीं हो जाता । लेनिन ने गाँधी को जिया और महाराणा को भी । इनमें से कोई भी जमीन जंगल जल जङ का नेता नहीं । भारतीय जनमन की सहानुभूति संवेदना हमेशा वनवासियों के साथ हैं लेकिन सरकार चलाने के लिये किसी भी पार्टी को लॉ एंड ऑर्डर तो हर हाल में चाहिये । नागरिक वही जो संविधान कानून सरकार तिरंगा देश की अस्मिता औऱ संप्रभुता का पालन करे बाकी सब देश से गद्दारी है भारत को लोकतंत्र चाहिये मजदूरों की तानाशाही कतई नहीं ।क्योंकि तब हर मजदूर अवसर रखता है संसद तक जाने का ।

नक्सलवाद???

घरेलू समस्या नहीं रही । घरेलू समस्यी है जंगलों से हथियार बंद गिरोहों को खदेङना और जेल में डालना । घरेलू समस्या है वैकल्पिक रोजगार मुहैया कराना । पूरा बिहारी ग्रामीण इलाका गरीब है ।सारा बुंदेलखंडी ग्रामीण इलाका बेहद गरीब है । उङीसा कालाहांडी इलाका आज भी गरीब है । तमिलनाडु के सुदूर गाँवों में आज भी भयंकर गरीबी है । बंगाल यू पी बिहार और तमिलनाडु के बाढ़ग्रस्त इलाके आज भी गरीब हैं । राजस्थान के बेघर बंजारे खानाबदोश गाङिया लोहार

कंजर कालबेलिया सहारिया आज भी बेहद गरीब हैं । गरीबी बाढ़ सूखा राहत पुनर्वास और प्राकृतिक आपदायें किसी एक राजनैतिक दल पर नहीं टाली जा सकती । आज किसी भी एक पार्टी की सत्ता पूरे अट्ठाईस राज्यों में हो और केंद्र में भी यह असंभव है । अक्सर मतदाता टूटा भग्न जनादेश दे रहे

हैं । निष्ठा पार्टी नही अब प्रत्याशी की दम खम और छवि पर ज्यादा निर्भर है । हर दल को इस मसले पर सोचकर बहुत गंभीरता से बोलना चाहिये । आज रमण सिंह हैं कल कोई और जीत सकता है । वनवासी जो आम तौर पर तंग आ चुके है परेशानियों से । अगर प्रशासन भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा सके और पुलिस सेना सिपाही स्थानीय लोग ही हों बाहरियों के साथ साथ तब ये उन जंगलवालों की अपनी भी समस्या है कि सिपाही ज़िंदा रहें । स्थानीय भाषा और रीति रिवाज सोच विचार और जंगल की जानकारी भी होगी । पैसा बाँटना किसी को कपङे खाना पहुँचाना हक़ नहीं भीख हो सकती है । दुर्भाग्य से जीत प्राप्त

करने के लिये यू पी बिहार बंगाल छत्तीसगढ़ के भीतर यही हो रहा है । वजीफा खाना रूपया कपङा मुआवजा जैसे हक बनता जा रहा है । रोजगार

ही जबकि एकमात्र स्थायी समाधान है । ये वैकल्पित रोजगार चाहे वनोपज के विविध संवर्धन परिवर्धन से मिले या खनिज संपदा के । मुख्यधारा में

लौटाने को जरूरी है कि वनवासी शहरों में आय़ें और पूरे भारत औऱ भारत के इतिहास भूगोल विरासत संस्कृति सभ्यता को समझे । हमें बहुत मौके

मिले उनको बेतकल्लुफी से देखने को तो ये समझ लीजिये कि परिवर्तन वे जल्दी स्वीकार नहीं करते । बच्चों में शिक्षा की बजाय वजीफा पाने

का ही मकसद है । और बाहरी लोगों से वे मन नहीं मिलाते विश्वास नहीं करते । लेकिन जिस कदर संगठित सेना का शस्त्र प्रशिक्षण चल रहा है

वहाँ वनवासी नक्सलवादियों के भीतर वो अचंभे में डालता है । वैकल्पिक रोजगार बन गया नक्सलवादी बनना । औऱ दिमागी जुनून भी । लोग आतंकित

रहते नक्सल सरगनाओं से । वे जिसे चाहे उठवा लें और जंगल में नक्सल सेना में भर्ती कर दें । अँधेरे का डर दिखा कर टॉर्च बेची जा रही है । लिट्टे की तरह नासूर बन गया नक्सलवाद केवल योजनायें बनाने से ठीक नहीं होगा जंगल की जल थलनभ से सफाई करनी होगी । और गाँव पुरवे के लोगों को इस में

साथी बनाना होगा पका घाव है मवाद चीरकर निकाली नहीं तो गैन्ग्रीन हो जायेगा । सेना ऐसा कर सकती है मात्र कुछ सप्ताह में । बस दृढ़ संकल्प से निर्दोष को बचाते हुये ऑपरेशन संपूर्ण कॉम्बिंग छेङना होगा । लोकतंत्र ही सही है । और लोकतंत्र में हर तरह का सुधार संभव है । व्यवस्था जरूरी है । और हिंसा सेकभी हक़ नहीं मिल सकते । खूनी तरीके खून में डूब जाते है । समय आ चुका है कि भारत के संदर्भ में लोकतात्रिक तरीके से गरीबी और बेरोजगारी हल हो ।

हक़???

कर्तव्य से ही शुरू होते है । समाधान दीजिये आप शीर्ष विचारक है हम सब ताक रहे है सारी पीङा वनवासियों साथ है और सत्ता के कपट भ्रष्टता का भी अहसास है परंतु आदरणीय हमला जब हुआ तो वे एनकाउंटर नहीं कर रहे थे । चुनाव प्रचार । यानि डेमोक्रेसी में कहने सुनने का मौका तो दो मानो या नहीं । वोट दो या नहीं मगर देश का हिस्सा नहीं बनना चाहते?? ये तो बगावत है??? राजद्रोह!!! गरीबी तो और भी राज्यों में है??? कल हम जायें बात करने तो हमें भी मार देगें। ज़वानों की मौत पर मुआवज़ा?? नक्सलियों की मौत पर लालविचारकों का हाय हाय । नेताओं की मौत पर विरोधी खेमों में

जश्न???निहत्थे प्रचारकों को मारकर उनकी लाश पर बर्बरता से नृत्य??? छत्तीसगढ़ पहले मध्यप्रदेश ही था और हमारा दूसरा घर भी जहाँ आज भी आधे से

ज्यादा परिजव रहते हैं ।और ये जो बचपन के ज़ज्बाती लोग होते है वो तो जैसे जुगाली ही करते है बेध्यानी में या ध्यान में रखी हर बात का । ये जो हाय तौबा है न दरअसल इसी नीति की देन है “”फूट डालो राज्य करो”” वनवासी सिर्फ जरूरत की भाषा जानता है । वह जहाँ भूख जहाँ नींद लगी सो गये । जो भाया उसके हो गये । वन के विविध देवी देवता अंधविश्वास भूत प्रेत आत्माये भी उतनी ही सजीव सदस्य है उनके जीवन की जितना कोई पालतू पशु ।

ये तो कोई कम पढ़ा लिखा किसान मजदूर भी कह देगा कि अधिकांश नेता -“भ्रष्ट हैं और महाभ्रष्ट होते जा रहे है” पूँजीपति को चाहिये कच्चा माल । वो है बिहार छत्तीस गढ़ और मध्यप्रदेश में । सही कहें तो बँटवारा ही ग़लत हुआ झारखंड और छत्तीसगढ़ का । इसको नागरिक हित के लिये नहीं बाँटा गया । ये तीन राज्यों की हुकूमत में फँसै कीमती खनिज क्षेत्र को एक यूनिट बनाकर एक ही प्रशासन के लिये बाँटा गया ।जिंदल वेदान्ता और तमाम देशी बहुराष्ट्रीय

कंपनियाँ । पूरे वन खनिज और संपदा का दोहन करती हैं । वहाँ जैसे खोदकर सारा जंगल उलट पलट कर रख दिया । वनविभाग के सरकारी बंगलों में तेंदू पत्ता गोंद वनफल वनघास और सूखे पेङ जब डिपो पर जमा होते तो ये “”पास सिस्टम “”का शिकार होते । कि वन में पत्ती लकङी और घास के निजी अव्यवसायिक उपयोग को जा सकें । वन रक्षकों से दोस्ती भी रहती और दुश्मनी । लेकिन उग्र कभी नहीं रहे । हाँलांकि निजी तौर पर कुछ रिश्वतखोर वन अधिकारी वनवासी को ज्यादा पसंद रहे । क्योंकि वे वनअपराध और वन विधि संहिता से मुक्त रखते थे ।कुल्हाङी छीनी औऱ साईकिल जो किसी किसी पर थी बाद में छोङ दिया । लेकिन जब उद्योग पतियों का मायाजाल फैला तो हर तरफ बाहरी लोग फैल गये । ये साहब लोग अंग्रेजी बोलते औऱ वनवासी को हिकारत से देखते । कुछ कामपशु भी थे । देखते देखते सारा जंगल वनवासी के लिये वर्जित इलाका हो गया । वह नहीं समझता था देश सरकार संविधान और कानून ।

और वन में अपना राज समझता था । शातिर तस्करों ने पैसे का लालच दिया और जानवर पेङ जङीबूटियाँ काटी जाने लगीं । पकङे जाते वनवासी जेल जाते वनवासी औऱते मर्दों की तरह दिन रात काम करती है सो वे भी अपराध में शरीक़ हो गयीं । साहबों के घर लङकियाँ साफ सफाई के काम पर जातीं और रहन सहन के सपने आँखों में भर लातीं । जब तक साहबों को नहीं देखा खपरैल का कच्चा घर ताज महल से कम नहीं था । लेकिन मानव स्वभाव की हवस बढ़

गयी रेडियो मोबाईल टी वी और छोटे मोटे यंत्र सपने की मंज़िल हो गये । पैसा?? दिहाङी मजदूर को रोज का रोज खतम । जंगल में अघोषित अवैध रिश्ते

भी पनपे और वनवासी रस्में घायल होने का आक्रोश भी । जहाँ तक हमें याद है हमारे बेहद करीबी रिश्तेदार को मरणासन्न एक ऐसे ही प्रेम प्रकरण में

करके छोङ गये थे वनवासी । पूँजीपति – साहब लोग-वनविभाग-के लालच रिश्वत खोरी चरित्रहीनता ने असंतोष से जख्मी कर दिया जंगली सीधे भौतिकवादी जीवन को । राजनीति का लाल विचारक तंत्र इस जख्म पर नमक मलने लगा और विदेशी माओइस्ट ताकतों ने देशी लालविचारकों को हुकूमत का सपना दिखाया । लाल विचारक नेता मजदूर वनवासी मुखियों के बीच रूपया और झूठा मान सम्मान पूँजीवाद के खात्मे का सपना लेकर पहुँच गये ।

वनवासी का दर्द मोङकर बंदूक बना दी । जिनके दमन के लिये पूँजीपति के उद्योग की सुरक्षा के नाम पर सरकारी गोली चली । कानून संविधान देश के प्रति लालविचारको के जहरीले बाग़ी अविश्वास से भरा जंगली खाकी और वरदी को लाल करने लगा । ये वरदी की दुश्मनी संगठित धरपकङ में बदली एनकाउंटर हुये और दोनो तरफ से लाशें गिरने लगी । लालविचारक महानगरों के एसी कमरों से मानवाधिकार पर लिखने लगे वरदी पर सुबूत का दबाब बढ़ गया । रिमांड

पूछताछ में चीखें उठीं तो लालविचारक नमक पर मिरची लेकर पहुँचे और बंदूके बारूद विदेशी विश्व लाल वादियों के सहयोग से जंगल में उगने लगीं ।

नक्सलवादी एक थर्राता नाम हो गया जिस रूतबे को पाने की इच्छा हर दबे दिमाग में भरने को लाल कलम तबाही मचाने के तरीके सैनिक प्रशिक्षण देने लगी । अब वनवासी का एक और शोषक हो गया नक्सलवादी समूह ये हफ्ता वसूलते मुफत का राशन खाते और ऐश के लिये औरतें भी जोङा बनाकर ले जाते । ये औरते बंदूक चलाती और बच्चो के साथ सूचनायें लाती कुनबा बनाकर रहने लगे नक्सलवादी परंपरा हो गयी बारूद । गाँव का गाँव बीबी बच्चों सहित

खूनी हो गया शातिर निशानोबाज़ हत्यारे बच्चौ औरतों को मारक ट्रैनिंग मिलती और वरदी का लहू शिकारी की तरह बहाते । जब प्रतिशोध में

पकङा धकङी गिरफ्तारी होती लालकलम जहर उगलती । ये घाव राजनीति पूँजी के लालच ने दिय़ा नासूर बनाया मौकापरस्त लालविचारकों ने तार विदेशों में।

सुधा राजे।

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