क्षेत्रवाद से बेहतर सम-विकासवाद

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भवेश नंदन झा

पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा के महासचिव विजय गोयल ने जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करते हुए मांग की है कि दिल्ली विश्वविद्यालय से संबद्ध दिल्ली सरकार के कॉलेजों में स्थानीय छात्रों के लिए 85 फ़ीसदी आरक्षण की व्यवस्था हो. इस मांग को विजय गोयल की अपनी दो लगातार हार से बिखर रही राजनीति को समेटने की कवायद मानते हुए भी अलग कर देखें, तो इस पर बहस हो सकती है.

एक जोरदार बहस, जो लाजिमी भी है. पहले कि इस दिल्ली में कौन स्थानीय है और कौन बाहरी. क्या जो लोग 20 साल या सौ साल पहले आ गये, वे स्थानीय हैं या फ़िर जो भारत-पाकिस्तान के मध्य हुए बंटवारे के वक्त विस्थापित शरणार्थी बन कर दिल्ली आये, वे स्थानीय हैं. क्या विजय गोयल इसलिए सबसे बड़े स्थानीय हैं कि उनके पूर्वज होमो-सेपिएन्स के जमाने से पहले से ही चांदनी चौक में रहते आये हैं. क्या है परिभाषा स्थानीय और बाहरी होने की?

अपने ही देश का कोई बाहरी कैसे हो सकता है? यह मुद्दा हर बार उठता रहता है. कभी महाराष्ट्र में तो कभी असम में. और सभी पार्टियों के नेता इस बात को मुद्दा बनाते हैं. चाहे वह राज ठाकरे हों, जिन्होंने निर्दोष और नि:सहाय गरीब मजदूरों पर राज्य सरकार के सहयोग से बलप्रयोग कर अपनी नीचता का प्रदर्शन किया. शीला दीक्षित, जो कि दिल्ली की समस्या के लिए कथित बाहरी लोगों को जिम्मेदार माना. मध्य प्रदेश के भाजपाई मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, जिन्होंने एक राज्य विशेष का नाम लेकर सतना में कहा कि यह नहीं हो सकता कि उद्योग यहां लगे और नौकरी बिहारवालों को करने दी जाये. हम यह नहीं होने देंगे. या फ़िर देश के सक्षम गृह मंत्री, जिन्होंने दिल्ली में हो रहे अपराध के लिए बाहरी लोगों को कसूरवार माना. वह यह भूल गये की लोगों ने आपको यह जानकारी देने के लिए गृह मंत्री नहीं बनाया कि कौन लोग हैं किसी अपराध के पीछे.बल्कि आपको अपराध नियंत्रण के लिए बनाया है.

लब्बोलुआब यह कि वोट के लिए क्षेत्रवाद फ़ैलाने में कोई भी पार्टी कम नहीं है. सबके सब कसूरवार हैं.अब बात करें उन छात्रों की, जो दिल्ली में करीब एक लाख 10 हजार हैं, जिन्होंने इस बार 12वीं कक्षा पास की है. जिनके एडमिशन में इसलिए कठिनाई आती है कि तथाकथित बाहरी छात्र यहां दाखिले के लिए आ जाते हैं. निश्चित रूप से इससे दिल्ली के बच्चों को कठिनाई होती है. पर जरा उन छात्रों की कठिनाई देखिए, जो दिल्ली में दूसरे राज्यों से आते हैं.

मिसाल के तौर पर बिहार को ले लें. आपको जानकर आश्चर्य हो कि बिहार जहां विश्व का पहला और सुविख्यात नालंदा विश्वविद्यालय था, आज तक केंद्र सरकार ने बिहार-झारखंड में एक भी केंद्रीय विश्वविद्यालय नहीं स्थापित की है. क्या इसके लिए कभी विजय गोयल जैसे नेताओं ने आवाज उठाई है? यह घोर अन्याय और सौतेला व्यवहार क्यों? एक छात्र को अपने घर से बाहर रह कर पढ़ाई करने में कितनी कठिनाइयां आती है, वह वही छात्र बेहतर समझ सकता है, जिसने बाहर रह कर पढ़ाई की हो. किसी को उसके आसपास पढ़ाई की व्यवस्था कर दी जाये, तो वह निश्चित रूप से अपने घर के आस-पास ही पढ़ेगा.

दरअसल विजय गोयल जैसे संकीर्ण सोच के लोग अपनी राजनीति ही नकारात्मक सोच से करते हैं. सोच अगर सकारात्मक होती, तो वह बिहार जैसे राज्यों में बेहतर उच्च शिक्षा व्यवस्था की मांग करते, जिससे वहां के छात्रों और दिल्ली जैसे महानगरों के छात्रों दोनों को ही सुविधा होती. पर इनका सोच छात्र की बेहतरी नहीं उनका वोट महत्वपूर्ण है, इन जैसों के लिए. आज दिल्ली जैसे बड़े और समृद्ध महानगर कई परेशानियों से जूझ रहे हैं. आप एम्स चले जाएं. देखिये वहां कितनी दूर से मरीज इलाज करवाने आते हैं. वे कोई शौक से तो 1000 किमी से भी दूर से चल कर नहीं आते होंगे. इससे उनको तो कष्ट होता ही है. इनका भी कष्ट काम नहीं है, जो यहां दिल्ली में रहते हैं, वे कहां जायें इलाज करवाने. क्या विजय गोयल जैसे नेताओं को कभी सूझी है कि वह पता लगायें की तत्कालीन एनडीए सरकार द्वारा जो छह राज्यों में छह एम्स बनाने की बात हुई थी, उसका क्या हुआ. इस बात को अब सात साल होने को है. यह मात्र 300 करोड़ की योजना थी, जिसे वर्तमान यूपीए सरकार ने लटका रखा है.

कितनी शर्मनाक बात है कि कॉमनवेल्थ गेम्स के उदघाटन का बजट भी 300 करोड़ रुपये ही था. इसी सरकार ने 70,000 करोड़ रुपये कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए खर्च किये. बड़े-बड़े स्टेडियम भी छह महीने में बनवा दिये. इनको कॉमनवेल्थ गेम्स की बेहद फिक्र तो थी, पर कॉमन मैन के हेल्थ की परवाह नहीं. यह कैसी प्राथमिकता है. यह कैसा विकास है.कुछ नेताओं की नासमझी की वजह से क्षेत्रवाद देश के लिए गंभीर संकट बनता जा रहा है. अपना देश विकास में हो रहे असमानता को लेकर गहरे संकट की ओर जा रहा है. और इस सबके कसूरवार हम सब हैं. अर्थशास्त्र का सिद्धांत है कि पूंजी ही पूंजी को खींचता है, यह पूंजीवाद का चरित्र है. पर सरकार का फ़ायदा तो जनकल्याण में है. वह भी अगर पूंजीवादी चरित्र अपनाने लगे, तो मामला गंभीर हो जाता है.

अब दिल्ली के पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश को देखें. अगर नोएडा प्रोजेक्ट गौतम बुद्ध नगर में न होकर गोरखपुर में होता, तो कितना अच्छा होता कि इन उद्योगों से पूर्वी उत्तर प्रदेश को फ़ायदा होता और बिहार को भी. और वर्तमान नोएडा क्षेत्र तो फ़रीदाबाद या गुड़गांव की तरह खुद ही विकसित हो जाता. जो कॉमनवेल्थ गेम्स दिल्ली में हुआ है, वह कहीं और होता तो एक नया शहर बस जाता. और दिल्ली जैसे महानगर में बोझ कम होता.यह देश, देशवासियों का है.

और संविधानप्रदत्त अधिकार स्वरूप देश के नागरिक कहीं भी जाकर पढ़ सकते हैं. रह सकते हैं और काम कर सकते हैं. पर दूसरी तरफ़ बड़े महानगरों में रहनेवालों की वास्तविक समस्याएं हैं. दोनों के हित में एकमात्र उपाय बचता है कि विकास योजनाओं का विस्तार सुदूर तक हो. विकास की रोशनी सामान रूप से सब जगह पहुंचे, नहीं तो अंधेरे से उजाले की तरफ़ तो लोग आकर्षित होंगे ही. न तो इसे रोक सकते हैं, न ही रोका जाना चाहिए. उम्मीद करते हैं कि सम-विकासवाद भी एक मुद्दा बने. शायद यह मुद्दा विजय गोयल जैसे नेताओं को आकर्षित करे. साभार: प्रभात खबर (२३ जून)

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