दांव पर सार्क की प्रासंगिकता

0
199

saarcअरविंद जयतिलक

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि काठमांडु में पाकिस्तान की नकारात्मक मानसिकता एवं अडि़यल रवैए के कारण 18 वें सार्क सम्मेलन के उद्देश्यों को पलीता लग गया और जाने-अनजाने टकराव के मुद्दे भी सतह पर उभर आए। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ़ ने सार्क देशों के बीच मोटर वाहनों, ट्रेन सेवा तथा बिजली उपलब्ध कराने की भारतीय प्रधानमंत्री की पहल को खारिज कर दिया और तर्क दिया कि अभी उनके देश में इस मुद्दे पर चर्चा होनी बाकी है। यही नहीं उन्होंने सार्क में पर्यवेक्षक देशों की भूमिका बढ़ाने की आड़ में चीन को सार्क का स्थायी सदस्य बनाने को लेकर भी कुटिल मानसिकता जाहिर की। लेकिन भारत ने परोक्ष रुप से कड़ा प्रतिवाद किया। यह स्वाभाविक है कि जब सार्क के पर्यवेक्षकों में अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया और ईरान समेत नौ देश शामिल हैं तो चीन को ही स्थायी सदस्य क्यों बनाया जाना चाहिए? फिर यह सुविधा अन्य देशों को क्यों नहीं? लेकिन समझना कठिन नहीं है कि पाकिस्तान की मंशा चीन को इस संगठन का सदस्य बनाकर दक्षिण एशिया में भारत के बढ़ते प्रभाव को सीमित करना है। अन्यथा कोई वजह नहीं कि जब सार्क के अन्य सदस्य देश भारतीय प्रधानमंत्री के पहल को युगांतकारी बता उसका स्वागत करें और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री राह में रोड़े अटकाएं। अच्छी बात यह रही कि पाकिस्तान की नकारात्मकता के बावजूद भी भारतीय प्रधानमंत्री ने सार्क के अन्य सदस्य देशों मसलन नेपाल, बांग्लादेश, भूटान, मालदीव और अफगानिस्तान से रिश्ते प्रगाढ़ करने और आपसी सहयोग बढ़ाने की पहल की और इन देशों ने उसका स्वागत किया। बांग्लादेश की प्रधानमंत्री से सीमा विवाद पर चर्चा हुई और पीएम मोदी ने इसी शीत सत्र में मामला सुलझाने का दावा किया। पीएम मोदी ने भूटान के पीएम शेरिंग तोबगे के अलावा अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अषरफ गनी से भी आतंकवाद और सुरक्षा से जुड़े मसलों पर चर्चा की। सम्मेलन के पहले दिन ही भारत और नेपाल के बीच दस समझौते हुए। बहरहाल काठमांडु सम्मेलन को इसलिए बहुत सफल नहीं कहा जा सकता कि सार्क देशों से उम्मीद थी कि वह कृषि, ग्रामीण विकास, स्वास्थ्य सेवाएं, दूरसंचार, विज्ञान एवं तकनीकी एवं सांस्कृतिक सहयोग बढ़ाने की दिशा में ठोस पहल करेंगे। सार्क देशों को अच्छी तरह पता है कि वे आपसी सहयोग से ही दक्षिण एशिया से आतंकवाद का खात्मा, मादक द्रव्यों की तस्करी पर रोक के आलवा सीमा संबंधी विवादों को सुलझा सकते है। सार्क की सफलता इस बात में निहित है कि भारत और पाकिस्तान के रिश्ते कितना प्रगाढ़ होते हैं। अगर भारत-पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर समेत सभी विवादों के निराकरण की दिशा में आगे बढ़ एकदूसरे की संप्रभुता का सम्मान करते हैं और शिमला समझौते के प्रावधानों को लागू कर पूर्ण सार्वभौमिक परमाणु निःशस्त्रीकरण तथा परमाणु अप्रसार के उद्देश्यों पर सहमति जताते हैं तो निश्चित यह दक्षिण एशिया के लिए शुभ होगा। सकारात्मक बातचीत के अभाव में ही जम्मू-कश्मीर के अलावा सियाचिन, बगलिहार जल विद्युत परियोजना विवाद, तुलबुल नौ परिवहन योजना विवाद, किशन गंगा परियोजना विवाद का हल नहीं ढुंढा जा सका है। यह विडंबना है कि भारतीय प्रधानमंत्री और नवाज शरीफ़ के बीच आतंकवाद, 26/11 हमला, अफगानिस्तान में भारतीय वाणिज्य दूतावासों पर हमला जैसे गंभीर मसलों पर गहन चर्चा नहीं हुई। फिलहाल पीएम नरेंद्र मोदी ने संकेत दे दिया है कि पाकिस्तान से रिश्ते तभी सुधरेंगे जब वहां से आतंकवाद का तंबू उखड़ेगा। उचित होगा कि नवाज शरीफ़ दृढ़ता दिखाते हुए अपनी जमीन पर पसरे आतंकियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई करें। अगर वे ऐसा करते हैं तो निश्चय ही दोनों देशों के बीच संबंध मजबूत होंगे और आर्थिक गतिविधियां तेज होगी। पाकिस्तान के साथ अफगानिस्तान से भी रिश्तों में प्रगाढ़ता जरुरी है। इसलिए कि 2014 के अंत तक नाटो सेना अफगानिस्तान से निकल जाएगी और तालिबानी दहशतगर्द अफगानिस्तान में चलने वाली भारतीय परियोजनओं को नुकसान पहुंचाने के अलावा जम्मू-कश्मीर में अशांति फैलाने की कोशिश कर सकते हैं। मौजूदा समय में अफगानिस्तान में भारत की कई परियोजनाएं चल रही हैं। इनमें सलमा बांध पाॅवर प्रोजेक्ट, संसद भवन का निर्माण, राष्ट्रिय टेलीविजन नेटवर्क का विस्तार के अलावा कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य, सौर उर्जा और वोकशलन ट्रेनिंग समेत 84 परियोजनाएं हैं। इसके अलावा भारत अफगानिस्तान से ईरान सीमा तक रसद ले जाने के लिए जारांज से देलाराम तक सड़क निर्माण कर रहा है और पुल-ए-खुमरी से काबुल तक पाॅवर ट्रांसमिशन लाइन बिछा रहा है। अफगानिस्तान के पुनर्निमाण के लिए भारतीय सहायता राशि दो अरब डाॅलर के पार पहुंच चुकी है। नाटो सेना के जाने के बाद अफगानिस्तान में भारत के लिए अपनी परियोजनाओं को सुरक्षित रखना और भारतीय दूतावासों और भारतीय अधिकारियों-कर्मचारियों को सुरक्षा करना एक महत्वपूर्ण चुनौती होगी। ऐसी स्थिति में अफगानिस्तान को विश्वास में लेना जरुरी है। हालांकि आतंकियों ने हेरात में भारतीय दूतावास पर हमला कर हामिद करजई को भारत आने से रोकने की कोशिश की लेकिन उसका असर नहीं पड़ा। पाकिस्तान-अफगानिस्तान के अलावा भारत की नई सरकार को बांग्लादेश, भूटान, नेपाल, मालदीव माॅरीशस और श्रीलंका से भी संबंध सुधारने होंगे। विगत दशकों में इन देशों से भारत के संबंध खराब हुए हैं। पाकिस्तान की तरह बांग्लादेश भी भारत के लिए अहम देश है। दोनों देशों के बीच तीस्ता नदी जल बंटवारा समझौता एक पेंचीदा मामला है। यह समझौता दोनों देशों के आपसी सुझबुझ से ही फलित होगा। इस समझौते से दोनों देशों के तकरीबन 250 मिलियन लोगों का भला होगा। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बांग्लादेश यात्रा के दौरान इस विवाद के सुलझने की उम्मीद थी लेकिन पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने टांग फंसा दिया। तीस्ता नदी जल बंटवारा समझौता के अलावा विवादित एंक्लेव को सुलझाना भी दोनों देशों के लिए जरुरी है। भारत और बंगलादेश के बीच कुल 162 एंक्लेव का आदान-प्रदान होना है जिसके तहत भारत को 17000 एकड़ और बंगलादेश को 7500 एकड़ जमीन अपने कब्जे से छोड़नी होगी। लेकिन इस पर अभी अंतिम फैसला लिया जाना बाकी है। आज की तारीख में बंगलादेश भारत की सबसे गतिशील मंडियों में से एक है। भारत ने उसे कई सेक्टरों की वस्तुओं के आयात पर टैरिफ रियायतें दी है। अगर बांग्लादेश से संबंध मजबूत होते हैं तो भारत में घुसपैठ की समस्या और पूर्वोत्तर में आतंकवाद की समस्या से निपटने में मदद मिलेगी। सुरक्षा के लिहाज से भारत के लिए मॉरिशस, नेपाल और भूटान भी अति संवेदनशील देश हैं। लेकिन तीन दशकों के दौरान भारत और इन देशों के संबंधों में काफी उतार-चढ़ाव आए हैं। इसके लिए पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह सरकार की अदूरदर्शीपूर्ण नीतियां ही जिम्मेदार हैं, जिसकी वजह से इन दोनों देशों में भारत की भूमिका सीमित हुई है और चीन की दखल बढ़ी है। चीन की नेपाल में बढ़ती दखलअंदाजी को कम करने के लिए नेपाल को भरोसे में लिया जाना आवश्यक है। सदियों से भारत और नेपाल का सामाजिक और सांस्कृतिक ताना-बाना, धार्मिक मूल्य और परपराएं एक समान रही है। नेपाल के विकास कार्यों में भारत सबसे अधिक धन लगाता है। दोनों देश चीनी, कागज, सीमेंट जैसे औद्योगिक साझा उद्यम में मिलकर काम कर रहे हैं। नेपाल की तरह भारत की नई सरकार को भूटान को भी विश्वास में लेना जरुरी है। गत वर्ष भूटान के संसदीय चुनाव से ठीक पहले भारत सरकार ने केरोसिन और रसोई गैस की सब्सिडी पर रोक लगाकर भूटान को नाराज किया था। हालांकि बाद में रोक हटा ली गयी। लेकिन भूटान की नाराजगी दूर नहीं हुई। भारत और म्यांमार का रिश्ता पुराना है। म्यांमार में लोकतंत्र के उदय में भारत की अहम भूमिका रही है। वह इन देशों के साथ कृषि, वानिकी, पर्यटन, होटल, दूरसंचार जैसे अनगिनत परियोजनाओं पर मिलकर काम कर रहा है। भारतीय प्रधानमंत्री ने श्रीलंकाई राष्ट्रपति से भी तमिल मसलों पर गहन विमर्श किया। फिलहाल सार्क की प्रासंगिकता दांव पर है और भविष्य अंधकारमय। देखना दिलचस्प होगा कि सार्क के सदस्य देश सार्क की साख बहाली के लिए क्या कदम उठाते हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here