धर्म, मत-मतान्तर और भूख

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 धर्म और भूख में क्या परस्पर कोई सम्बन्ध है? हां, अवश्य है, कम से कम भारत में तो रहा है और अब भी है, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है। धर्म दो प्रकार के हैं एक तो वास्तविक, यथार्थ या सत्य धर्म है जो संसार के सभी लोगों के लिए एक समान है, इसलिए वह सबका एक ही है। सभी शुभ गुणों को धारण करना ही मनुष्य-धर्म है। यह शुभ गुण कौन-कौन से हो सकते हैं? विचार करने पर ज्ञात होता है कि ईश्वर को जानना, उसके सत्य स्वरूप का चिन्तन, उसका गुणगान व उससे सहायता की मांग करना, पर्यावरण को शुद्ध रखना व उसके लिए यज्ञ-अग्निहोत्र आदि करना, जीवित माता-पिता-आचार्यों का सेवा-सत्कार-श्राद्ध-तर्पण कर उन्हें प्रसन्न व सन्तुष्ट रखना, सत्य बोलना, दूसरों का हित करना, कृपण, वृद्ध, असहायों व पीडि़तों की सेवा, परोपकार करना, अविद्या का नाश, विद्या की वृद्धि, सबको आदर देना व करना, क्रोध न करना, असत्य न बोलना, स्वार्थ से ऊपर उठकर सबके हित में अपना हित समझना, दूसरों की उन्नति में बाधक न बनकर साधक बनना व सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझना, अपनी शारीरिक, सामाजिक और आत्मिक उन्नति करना, देश हित के लिए कार्य करना आदि शुभ-गुण मनुष्य धर्म कहे जा सकते हैं।

 

इस सत्य धर्म से इतर मत-मतान्तर-पन्थ-सम्प्रदाय-रिलीजन-मजहब-गुरूडम आदि हैं जो स्वयं को भी धर्म नाम से प्रचारित करते हैं। इन मतों व सम्प्रदायों की स्थापना व आविर्भाव किसी एक ऐतिहासिक पुरूष से देश-काल-परिस्थिति के अनुसार हुआ था जब सर्वत्र अज्ञान व अविद्या छाई हुई थी, समाज में अज्ञान, अन्याय व शोषण आदि विद्यमान था। देश व काल के अनुसार ही इनकी मान्यतायें व सिद्धान्त हैं जो अच्छे भी हैं व कुछ आज के आधुनिक समय में अप्रसांगिक व हितकर प्रतीत नहीं होते। उनका संशोधन होना चाहिये परन्तु प्रायः सभी मतों में अपनी मान्यताओं, सिद्धान्तों व कर्मकाण्डों में सुधार व संशोधन किये जाने की व्यवस्था नहीं है। इसका एक कारण यह भी है कि जिन लोगों के हाथों में इनकी बागडोर है, धर्म सुधार का कार्य करने से उनके हितों को हानि होने की सम्भावना है। लगभग दो अरब पुरानी मानव सभ्यता व संस्कृति में एक हजार से दो-तीन हजार पूर्व अस्तित्व में आये मत-मतान्तर अपनी मान्यताओं आदि को शाश्वत मानते हैं, यह सबसे बड़ा आश्चर्य है। देश की स्थिति भी ऐसी है कि उसमें सबको स्वतन्त्रता का अधिकार है जिसके नाम पर लोग असत्य व अनुचित बातों पर टीका टिप्पणी करने से बचा करते हैं। इनमें से अधिकांश मतों का यदि इतिहास देखें तो इन्होंने अपने प्रचार व प्रसार के लिए छल-कपट-झूठ-अविद्या-दम्भ-लोभ-सेवा-हिंसा आदि का सहारा लिया है। मनुष्य का सबसे बड़ा निजी धर्म अपने प्राणों वा जीवन की रक्षा है। जब किसी के प्राणों पर बन आती है तो लोग धर्म-कर्म कुछ नहीं देखते। अतीत में ऐसा ही हुआ है। आज जितने भी मत-मतान्तर हैं उनमें कहीं न कहीं इन अ-धार्मिक कृत्यों का सहारा लेकर अपनी-अपनी संख्या को बढ़ाया गया है। आज महर्षि दयानन्द के प्रभाव से लोग अपने मत की प्रशंसा अधिक नही कर पाते हैं। अच्छाईयां व बुराईयां सभी मतों में हैं। वह अपनी कुछ अच्छाईयों का बखान कर आत्म-तुष्टि कर लेते हैं परन्तु परस्पर विवाद के विषयों पर मौन साध लते हैं।

महर्षि दयानन्द का जीवन इनसे बिलकुल विपरीत था। उन्होंने उन मुद्दों पर विचार कर समाधान ढूंढा जो सर्वाधिक विवादास्पद थे। उदाहरण के लिए, क्या मूर्तिपजा सत्य है? क्या अवतारवाद और फलित ज्योतिष सत्य है? क्या सामाजिक असमानता तथा स्त्री व शूद्रों को विद्या व अध्ययन से वंचित रखना उचित है? क्या सती प्रथा, विधवाओं पर अत्याचार, बेमेल विवाह, जन्मना जाति व्यवस्था उचित है? उन्होंने स्त्री व पुरूषों की समानता की बात कही और कहा कि सबको मर्यादित जीवन व्यतीत करना चाहिये। उन्होंने योग, समाधि, वेदाध्ययन, साधना आदि से जो सत्य व यथार्थ उत्तर प्राप्त किये उनका मौखिक प्रचार किया और धर्म-प्रेमियों के निवेदन करने पर सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ऋग्वेद-यजुर्वेद-संस्कृत-हिन्दी-भाष्य, संस्कार विधि, व्यवहारभानु, गोकरुणानिधि आदि अनेक ग्रन्थ भी लिखे जिनकी सहायता से सत्य धर्म का निर्धारण होता है। आज भी इन ग्रन्थों को पढ़कर मनुष्य तर्क व युक्ति प्रमाणों से स्वधर्म को जानकर अपने जीवन के उद्देश्य को जानने के साथ उसे सिद्ध व सफल भी कर सकता है। उनकी शिक्षायें, मान्यतायें व सिद्धान्त सार्वभौमिक वा नदपअमतेंस हैं। सत्याचार, परोपकार, सेवा, ब्रह्मचर्य का पालन, निःस्वार्थ जीवन, अंहिसा, सभी प्राणियों की रक्षा ही धर्म है तथा मांसाहार, मदिरापान, ध्रूमपान, जुआं, व्यभिचार आदि से बचना चाहिये क्योंकि उनके अनुसार यह  धर्म नहीं अपितु अधर्म या पाप कर्म हैं। अधिक सुख-सुविधा एवं भोग प्रधान जीवन भी इस जन्म व परजन्म में दूखों का कारण बनता है, ऐसा उनके विचारों का अध्ययन करने से ज्ञान होता है जो कि उचित ही हैं।

 

भूख सभी मनुष्यों को प्रतिदिन प्रातः, दिन व सायं समय में लगती है। यदि भूखे को समुचित भोजन न मिले तो वह दुखी हो जाता है। वह भोजन के लिए प्रयास करता है। यदि उसे भोजन प्राप्ति के साधन नहीं मिलते तो वह दूसरों से सहायता मांगता है। भिक्षा मांगना भी इनमें से एक तरीका हो सकता है। यह देखा जाता है कि देशी-विदेशी मत-मतान्तर व मजहब के लोग जिनके पास प्रचुर धन व साधन होते हैं, उनमें जो अपने धर्मावलम्बी बन्धुओं की संख्या बढ़ाना चाहते हैं वह व उनके धर्म-प्रचारक ऐसे ऐसे स्थानों पर जहां निर्धनता, गरीबी व भूख हैं, पहुंच जाते हैं। लोगों को भोजन व दवा आदि बांटते हैं और उनके लिए चिकित्सालय व विद्यालय खोलते हैं और उसकी आड़ में उनका धर्म परिवर्तन कर अपने मत में सम्मिलित कर लेते हैं। भारत का विगत कुछ शताब्दियों का इतिहास ऐसी घटनाओं से भरा पड़ा है। आज इस प्रकार की घटनायें कुछ कम तो अवश्य हुईं हैं परन्तु हमें लगता है कि समाप्त नहीं हुई हैं। यह सब काम योजनाबद्ध तरीके से किये जाते हैं। इसके पीछे सुदृढ़ संगठन होते हैं। हिन्दू समाज की जन्मना-जाति-व्यवस्था व विषम सामाजिक व्यवस्थायें व समस्याययें भी इसमें एक कारण होतीं हैं। कई लोग इससे तंग आकर धर्म त्याग करते आये हैं व अब भी यदा-कदा कर देते हैं। इसे मानने वाले धर्माधीशों के कानों पर जू नहीं रेंगती। ऐसे लोग अज्ञान व स्वार्थ में खोये प्रतीत होते हैं। आज भी यह स्थिति है कि देश की आधी जनसंख्या के पास दो समय के भोजन की न्यूनतम व्यवस्था नहीं है। इन 65 करोड़ से अधिक लोगों की जिंदगी व इनके दुःखों का कुछ अनुमान तो लगाया ही जा सकता है। इसका भावी परिणाम घातक हो सकता है। अतः आवश्यकता है कि सरकार को सबसे अधिक ध्यान इन निर्धनतम व गरीब लोगों की समस्याओं के हल करने पर देना चाहिये, परन्तु यह तो तभी होगा कि जब अन्य सरकारी कार्यों से धन बचेगा। आज साधनों के देशवासियों के लिए उपयोग व उनके वितरण में सन्तुलन बिगड़ा हुआ है। सन्तुलन ठीक होगा तभी गरीबों के लिए कुछ किया जा सकता है। देश के सारे साधन प्रायः शहरी जनता के उत्थान, उन्नति व विकास में लगते प्रतीत होते हैं। आज स्मार्ट सिटी बनाये जाने का तो शोर सभी दिशाओं में सुनाई दे रहा है परन्तु निर्धनतम व्यक्ति की भूख दूर करने व उसकी न्यूनतम आवश्यकताओं रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, चिकित्सा व रोजगार पर शायद कम ही ध्यान दिया जा रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि अतीत में हमारे निर्धन व सामाजिक दृष्टि से कमजोर लोगों को जो मुख्य धारा से दूर किया गया है, उसकी पुनरावृत्ति न हो। यह काम सरकार के करने का है परन्तु इसके लिए आर्य समाज जैसे सामाजिक संगठनों की भूमिका भी है। कुछ सामाजिक संगठन कार्य कर भी रहे हैं। जो कर रहे हैं वह प्रंशसा के पात्र है। अन्यों को भी उनसे प्रेरणा लेनी चाहिये। दीनबन्धुओं के लिए प्रत्येक सुधी व्यक्ति को अपने जीवन में कुछ न कुछ करना चाहिये। भूखे और रोगी व्यक्ति का कोई धर्म नहीं होता, उसे तो येन-केन-प्रकारेण भोजन चाहिये जिससे उसकी जान बच सके। हम आशा करते हैं कि समाज के सभी मतों के बन्धु अपनी मान्यतओं व सिद्धान्तों से ऊपर उठकर निर्धनों के हितों का चिन्तन करेंगे और धनी व निर्धनता में जो जमीन व आसमान का अन्तर है, यदि उसे कुछ बांटा या कम किया जा सके तो यह धर्म का कार्य व सेवा होने के साथ देश सेवा होगी।

 

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