याद रखें, चीनी कब्जा सीमित और स्थानीय समस्या नहीं है!!

सन्दर्भ: हमारें विदेश मंत्री की ९ मई से प्रारम्भ हो रही चीन यात्रा.

चीनी सेना द्वारा धृष्टता और दुष्टता पूर्वक भारतीय भूभाग पर19 किमी तक घुस कर कब्जा कर लेनें हमारें प्रधानमन्त्री मन मोहन सिंह द्वारा इस कब्जे को सीमित और स्थानीय समस्या का विशिष्ट दर्जा देनें के बाद उल्लेखनीय तथ्य है कि हमारें विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद 9 मई को चीन यात्रा पर जा रहें हैं. “कहनें में कोई संकोच नहीं हो रहा कि प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने इस समस्या के सम्बन्ध में जो हास्यास्पद बयान दिया है वह वैदेशिक या राजनयिक प्रकार का नहीं बल्कि किसी वार्ड पार्षद द्वारा वार्ड की समस्या के सम्बन्ध में दिया गया प्रतीत होता है”. हमारें विदेश मंत्री की चीन यात्रा और इसके बाद होनें वाली चीन के नवनियुक्त प्रधानमन्त्री सी केकियांग की भारत यात्रा का अधिकृत कार्यक्रम लगभग दो माह पहले से घोषित हो चुका था और यह दौलत बेग ओल्डी में कब्जे का घटना क्रम इन दोनों यात्राओं के सन्दर्भ में चीन के प्रिय कूटनीतिक खेल हाइड एंड सीक की अगली कड़ी है. यद्दपि हमारें प्रधानमन्त्री कम बोलते हैं और इसे उनकी गरिमा का नाम देकर महिमा मंडित किया जाता रहा है तथापि प्रश्न तो है ही कि प्रधानमन्त्री इस विषय में इतना भावनाशुन्य, संभावना रहित और भविष्य से खिलवाड़ करनें वाला व्यक्तव्य देनें की अपेक्षा चुप्पी ही रखते तो अधिक अच्छा होता. एक लोकतांत्रिक देश के प्रधान मंत्री को वैसा ही और उतना ही बोलना चाहिए जितने में उस देश के हितों का सरंक्षण हो जाए और जन भावनाओं का यथोचित प्रकटीकरण हो जाए. प्रधान मंत्री मन मोहन सिंह ने जब यह बेशर्मी भरा बयान दिया होगा तब इस देश के सवा सौ करोड़ नागरिक छोडिये उनकें स्वयं के मंत्रिमंडल के अधिकाँश सदस्य भी उनकी इस बात से ह्रदय से सहमत नहीं होंगे. कोई सहमत हो या न हो यह विषय नहीं है– तथ्यगत विषय यह है कि चीनी फौज पिछली १५ अप्रेल से दौलत बेग ओल्डी क्षेत्र में तम्बू गाड़ कर बैठी है और फ्लैग मीटिंग्स में भारतीय तथ्यों को बेतरह झुठला कर चीनी पक्ष हमारी विदेश नीति और रक्षा नीति पर हावी हो चुका है. चीनी सेना के सन्दर्भ में हमें यह तथ्य समझ लेना चाहिए कि वहां कि सेना न तो पाकिस्तान की तरह राजनैतिक तंत्र पर हावी होकर रहती है और न ही भारत की तरह राजनैतिक निर्णयों और वातावरण के आधिपत्य में रहती है. वहां की सेना विदेश नीति के नीतिगत मामलों में निर्णायक हस्तक्षेप रखती है और राजनयिक स्तर पर हावी रहती है. भारतीय विदेश मंत्री के चीन प्रवास और चीनी प्रधानमन्त्री के भारतीय दौरे के तिथि भर घोषित होनें के ठीक पहले इस घटना क्रम को व्यवस्थित और राजनयिक चश्मे से देख लिया जाना चाहिए.

अभी पिछले ही माह जब बर्मा में ब्रिक सम्मलेन के दौरान चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग से हमारें प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह मिलें थे तब भी हमारें नेतृत्व की बेचारगी और वैदेशिक मामलों में इस सप्रंग सरकार अक्षमता सामनें आ गई थी. मनमोहन सिंह ने तब भी यह बयान देकर चीनी नेतृत्व के हौसले बढ़ा दिए थे कि भारत अपनें सीमा विवाद को एकतरफ रखकर चीन के साथ नया भविष्य तलाशेगा. पिछले लगभग दस वर्षों में चौदह बार से अधिक चीनी नेतृत्व के साथ बैठकें करनें के अनुभव वाले भारतीय प्रधानमन्त्री ने तब अरुणाचल प्रदेश में घुसपैठ की समस्या, ग्वादर बंदरगाह के माध्यम से भारतीय सीमा में हस्तक्षेप के चीनी प्रयास, कश्मीरियों को भारतीय दस्तावेजों के स्थान पर अन्य कागजों के आधार पर वीजा देनें, तिब्बत की स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में हो रहे निरंतर आत्मदाहों की चर्चा न करके इन विषयों पर अपना श्वेत ध्वज लहराकर सुरक्षात्मक हुए तब ही चीन के आक्रामक होनें और हमारें नेतृत्व के रीढ़ झुका लेनें की स्थिति स्पष्ट हो गई थी.

अब जबकि हमारें विदेश मंत्री दौलत बेग ओल्डी पर कब्जें की काली घटना के तुरंत बाद चीन जा रहें हैं तो उन्हें और हमारें राजनायिकों को यह स्पष्टतः याद रखना चाहिए कि हम पर यह स्थिति योजनाबद्ध तरीकें से लादी गई है. अब यदि विदेश मंत्री चीन जाकर केवल सौहाद्र राग अलापें (जिसकी प्रयाप्त संभावना है) तो निश्चित ही सीमा विवाद, तिब्बत विवाद और अरुणाचल प्रदेश के बड़े भूभाग पर पहले से चला आ रहा चीनी कब्जें आदि को चीनी दृष्टिकोण से देखनें की कुटेव हमें विकसित करनी पड़ेगी और वैश्विक समुदाय के सामनें हमारें तर्कों और पक्षों की स्थिति दुर्बल होगी. अब जबकि भारत-चीन के बीच के पुरानें विवादों के यथास्थिति में रहते हुए ही चीनी सैनिकों की पलटन ने नए सिरे से 15 अप्रैल को भारतीय क्षेत्र में घुस कर डीबीओ क्षेत्र के भुरथे इलाके में शिविर स्थापित कर लिए हैं और चीनी सेना ने लद्दाख क्षेत्र में भारतीय सीमा में 19 किमी भीतर अपना तंबू गाड़ दिया है. इन हालातों में यदि भारत की ओर से सीमा पर यथास्थिति बहाल करने की मांग को नजरअंदाज करते हुए चीन ने अपने पहले के रुख को कायम रखा और कहा कि उसके सैनिकों ने लद्दाख क्षेत्र में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) का उल्लंघन नहीं किया है तब क्या विदेश मंत्री का यह चीनी प्रवास भारतीय पक्ष की दृष्टि से सकारात्मक सिद्ध होगा?

दुनिया की सबसे ऊंची हवाई पट्टी दौलत बेग ओल्डी जो कि पिछले कुछ सालों में तैयार की गई भारतीय वायुसेना की तीन एडवांस लैंडिंग ग्राउंडों में से एक है और जिसे  वास्तिवक नियंत्रण रेखा के निकट 16200 फीट की उंचाई पर वर्ष 1962 में भारत-चीन युद्ध के समय हमारी जांबाज सेना ने बड़ी मेहनत और खून पसीनें की कुर्बानी देकर बनाया था. अब इस हवाई पट्टी के करीब चीनी सेना की मौजूदगी सैन्य और सामरिक दृष्टि से बड़ी चुनौती  और ख़तरा हो गई है और यह स्थिति सदा के लिए हमारी सेनाओं के लिए स्थायी सिरदर्द बन जायेगी.

मार्च और अप्रेल माह की तीन बड़ी घटनाओं के सन्दर्भों में विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद की चीन यात्रा को जिस चश्में से देखा और तराशा जाया जाना चाहिए उन्हें हमें समझना चाहिए और सावधानी के साथ ही ड्रेगन के सामनें जाना चाहिए. घटना नंबर एक. पिछलें माह मार्च में बर्मा में ब्रिक सम्मलेन के दौरान भारतीय प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह का चीनी राष्ट्रपति से मिलना और बिना पुरानी समस्याओं और सीमा विवाद पर चिंता या चर्चा के; लगभग बेवकूफ बनकर अच्छे और सौहाद्रपूर्ण संबंधो और सुन्दर भविष्य की ओर ताकना. घटना न.दो- चीनी सेना का भारतीय क्षेत्र में उन्नीस किमी तक अन्दर घुस आना, तम्बू गाड़ना, फ्लैग मीटिंगों में चीनी अधिकारियों द्वारा अतिक्रमण को सिरे से नकार कर कब्जा बनाएं रखना और भारतीय विदेश मंत्रालय के साथ रक्षा मंत्रालय की गहन निंद्रा या बेहोशी की स्थिति में रहना. घटना न.तीन भारतीय प्रधान मंत्री का इस घटना को सीमित और स्थानीय समस्या कहनें जैसा बेहद अल्पकालिक और वैसा बयान जो किसी वार्ड पार्षद को अपनें वार्ड की समस्या आनें पर देना होता है. घटना न.चार भारतीय पक्ष की ओर से एक बार भी यह नहीं कहा जाना कि नई परिस्थितियों में भारत अपनी विदेश मंत्री की यात्रा के होनें या न होनें के सम्बन्ध में समीक्षात्मक दृष्टिकोण अपनाएगा. बल्कि हुआ यह कि भारतीय विदेश मंत्री ने इस घटना के तुरंत बाद ऐसा शुतुर्मुगी व्यवहार अपनाया कि कहीं चीनी प्रवास पर कोई दुष्प्रभाव न पड़ जाएँ. किन्तु हमारें देश में दिल्ली की गद्दी पर बैठे सप्रंग शासन को स्मरण रखना चाहिए कि बीजिंग के लाल कालीन पर कदम रखनें से पहले सलमान खुर्शीद को भारतीय सीमाओं में ताजे चीनी अतिक्रमण, अरुणाचल के बड़े भूभाग पर पूर्व से चले आ रहें चीनी कब्जें, को समझ लेना चाहिए और प्रधान मंत्री के उस सीमित और स्थानीय समस्या वाले ओछे बयान की प्रेत छाया से बाहर आकर आक्रामक होना चाहिए वरना ड्रेगन लील जाएगा और खुर्शीद समझ भी न पायेंगे!!

चीन जा रहे हमारें विदेश मंत्री को ग्वादर बंदरगाह के अधिग्रहण और अन्य घोषित अघोषित गतिविधियों और षड्यंत्रों से दक्षिण एशिया में चीन की तेज आर्थिक और कूटनीतिक कोशिशों को भी समझना होगा. हिंद महासागर के आस पास चीन के बढ़ रहे प्रभाव, बीजिंग के श्रीलंका, बांग्लादेश, मालदीव और म्यांमार जैसे देशों से चीन के मजबूत होते सम्बन्ध,  भारत के इन पड़ोसियों को चीन की आर्थिक मदद और वहां आधारभूत सरंचनाओं के निर्माण आदि से मनमोहन-खुर्शीद और सप्रंग की दिल्ली चिंतित हो या न हो किन्तु शेष राष्ट्र चिंतित और परेशान है यह बात नए कपडे सिलाकर और बालों में खिजाब लगाकर चीन जानें को बेहद उत्सुक खुर्शीद याद रखें “तो ही शुभ होगा

5 COMMENTS

  1. ऐसी देश विरोधी सरकार से इसके इलावा और आशा भी क्या की जा सकती है. एक तरह से अछा ही हो रहा है, इसका असली चेहरा तो सामने आ रहा है, हर देशभक्त का काम है कि इस सरकार की असलियत को उद्घाटित करने का कोई अवसर न चूके .

  2. अगर हम सचमुच चीन को झुकाना चाहते हैं,तो उसके भारत के साथ व्यापार पर हमला करना होगा. अगर प्रत्येक भारतीय यह प्रतिग्या कर ले कि वह किसी भी चीनी वस्तु का इस्तेमाल नहीं करेगा तो चीन झुक सकता है,क्योंकि भारत उसके वस्तुओं का बहुत बड़ा बाजार है.

  3. पता नहीं इस टिप्पणी पर आपलोगों की क्या प्रतिक्रिया हो,पर मुझे वाध्य हो कर कहना पड़ता है कि हम इतने कमजोर हैं कि हमारे पास चीन की शर्तें मानने के अतिरिक्त अन्य कोई रास्ता नहीं है.

  4. मॉर्गन थाउ लिखित आंतर राष्ट्रिय कूट नीति की पाठ्य पुस्तक के अनुसार, विस्तारवादी सत्ताएं इसी प्रकार प्रभाव जमाती है।
    इसका प्रयोजन, सलमान खुर्शिद की चीन यात्रा से जुडा होगा, यह सांभावना मानता हूँ।
    ==>
    चीन को बाज़ार की विशेष आवश्यकता है। उसकी अपनी सुविधा केपक्ष में सलमान खुर्शिद की यात्रा होगी। चीन का पलडा भारी कराने के उद्देश्य से, ही सीमामें, घुसना था। और पीछे हटना हमारे पर उपकार।
    इस उपकार का बदला चीन सुविधाजनक समझौते से पाएगा। राह देखिए।
    यही संभावना मुझे दूरबीन पर दिखायी देती है। गलत प्रमाणित होने की इच्छा रखता हूँ।
    समझौतो में पाठ्य पुस्तक यही तकनीक निर्देशित करती है।
    लेखक प्रवीण भाई गुगनानी जी ने अच्छा विषय रखा है। धन्यवाद।

  5. सरकारने देश की जनता को एक बार फिर बेवकूफ बनाया है.हमने अपने ही इलाके में सेना को पीछे क्यों हटाया?काराकोरम दर्रे व घाटियों पर नजर रखने वाली चोकी खली क्यों की ?यह तो एक महत्वपूर्ण चोकी थी.अपने ही इलाके में पीछे हटने का समझोता समझ के बाहर है?विदेश मंत्री की बाहर जाने की इच्छा ,ने देश की भूमि का ही तो सौदा नहीं कर दिया?ये भी जानते हैं कि वहां किसको भूमि के विभाजन का पता है.किसने वहां जा कर देखना है,घरेलु मोर्चे पर विफल सरकार ने अपनी गर्दन बचने के लिए ऐसा अपमानजनक समझोता किया, ताकि एक बार तो जनता का गुस्सा कम हो, फिर कि फिर देखी जाएगी.वहां किस संवाददाता ने जाना है?किसीको भी राष्ट्रीय सुरक्षा कि दुहाई दे कर रोक जा सकता है.लगता है सत्ता में बने रहने के लिए ये देश की सीमाओं का भी सौदा करने में बाज नहीं आयेंगे.

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