चीन की अरुणाचल प्रदेश के अस्तित्व को चुनौती

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प्रमोद भार्गव

चीन ने एक बार फिर सीमा विवाद खड़ा कर दिया है। दिसंबर 2017 में चीनी सैनिकों की भारतीय सीमा में घुसपैठ करने के साथ यह सीनाजोरी भी की अरुणाचल प्रदेश नाम का कोई राज्य भारत का हिस्सा है, इसे वह मानता ही नहीं है। यह बरजोरी सीधे-सीधे अरुणाचल के अस्तित्व को नकारने की हिमाकत है। इस परिप्रेक्ष्य में चीन ने दावा किया है कि अरुणाचल भारत का नहीं दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा है। इस लिहाज से तिब्बत पर अधिकार होने के कारण चीन को इस क्षेत्र में कोई भी निर्माण करने का अधिकार है। इसी आधार पर चीनी सैनिक सड़क निर्माण के उपकरण लेकर भारतीय सीमा में 200 मीटर तक घुसे चले आए और सड़क निर्माण का कार्य भी शुरू कर दिया। जब आईटीबीपी के सैनिकों को इस हरकत का पता चला तो उन्होंने मौके पर पहुंचकर चीनी सैनिकों को वापस भेजने के लिए विवश कर दिया। डोकलम के बाद चीन की यह दूसरी घुसपैठ हैं।

चीन की तरफ से डोकलम क्षेत्र में सामरिक सड़क के निर्माण को लेकर था। डोकलम क्षेत्र को चीन ने चीनी नाम डोगलांग दिया है, जिससे यह क्षेत्र उसकी विरासत का हिस्सा लगे। इस क्षेत्र को लेकर चीन और भूटान के बीच कई दशकों से विवाद जारी है। चीन इस पर अपना मालिकाना हक जताता है, जबकि वास्तव में यह भूटान के स्वामित्व का क्षेत्र है। चीन अरुणाचल की तरह सड़क के बहाने इस क्षेत्र में स्थाई घुसपैठ की कोशिश में है। जबकि भूटान इसे अपनी संप्रभुता पर हमला मानता है। दरअसल चीन अर्से से इस कवायद में लगा है कि चुंबा घाटी जो कि भूटान और सिक्किम के ठीक मघ्य में सिलीगुड़ी की ओर 15 किलोमीटर की चौड़ाई के साथ बढ़ती है, उसका एक बड़ा हिस्सा सड़क निर्माण के बहाने हथिया ले। चीन ने इस मकसद की पूर्ति के लिए भूटान को यह लालच भी दिया था, कि वह डोकलम पठार का 269 वर्ग किलोमीटर भू-क्षेत्र चीन को देदे और उसके बदले में भूटान के उत्तर पश्चिम इलाके में लगभग 500 वर्ग किलोमीटर भूमि लेले। लेकिन 2001 में जब यह प्रस्ताव चीन ने भूटान को दिया था, तभी वहां के शासक जिग्में सिग्ये वांगचूक ने भूटान की राष्ट्रिय विधानसभा में यह स्पष्ट कर दिया था कि भूटान को इस तरह का कोई प्रस्ताव मंजूर नहीं है। छोटे से देश की इस दृढता से चीन आहत है। इसलिए घायल सांप की तरह वह अपनी फुंकार से भारत और भूटान को डस लेने की हरकत करता रहता है।

 

हिमालय क्षेत्र में सीमा विवाद निपटाने के लिए 1914 में भारत-तिब्बत शिमला सम्मेलन बुलाया गया था। इसमें मैकमोहन रेखा से भारत-तिब्बत के बीव सीमा का बंटवारा किया गया था। चीन इसे गैरकानूनी औपनिवेशिक और पारंपरिक मानता है, जबकि भारत इस रेखा को अंतरराट्रीय सीमा का दर्जा देता है। 3488 किमी लंबी यही रेखा जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड, सिक्किम, अरुणाचल और भूटान तक विवाद की जड़ बनी हुई है। इस संबंध में 1890 में पहली बार सीमा समझौता हुआ था। इसके बाद तीन बड़े समझौते और भी हुए, लेकिन चीन इन्हें अपने अनुसार तोड़-मरोड़कर पेश करके अपना हक जमाता  रहता है।

दरअसल चीन भारत के बरक्ष बहरूपिया का चोला ओढ़े हुए है। एक तरफ वह पड़ोसी होने के नाते दोस्त की भूमिका में पेश आता है और दूसरी तरफ ढाई हजार साल पुराने भारत चीन के सांस्कृतिक संबंधो के बहाने हिंदी-चीनी भाई-भाई का राग अलाप कर भारत से अपने कारोबारी हित साध लेता है। चीन का तीसरा मूखौटा दुश्मनी का है, जिसके चलते वह पूरे अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा ठोकता है। साथ ही उसकी यह मंशा भी हमेशा रही है कि भारत न तो विकसित हो और न ही चीन की तुलना में भारतीय अर्थवयवस्था मजबूत हो। इस दृष्टि से वह पाक अधिकृत कश्मीर, लद्दाख और अरूणाचल में अपनी नापाक मौजदूगी दर्ज कराकर भारत को परेशान करता रहता है। इन बेजा हरकतों की प्रतिक्रिया में भारत द्वारा विनम्रता बरते जाने का लंबा इतिहास रहा है, इसी का परिणाम है कि चीन आक्रामकता दिखाने से बाज नहीं आता।

दरअसल चीन का लोकतंत्रिक स्वांग उस सिंह की तरह है जो गाय का मुखैटा ओढ़कर धूर्तता से दूसरे प्रणियों का शिकार करने का काम करता है। इसका नतीजा है कि चीन 1962 में भारत पर आक्रमण करता है और पूर्वोत्तर सीमा में 40 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन हड़प लेता है। कैलाश मानसरोवर जो भगवान शिव के आराध्य स्थल के नाम से हमारे प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में दर्ज हैं, सभी ग्रंथों में इसे अखंड भारत का हिस्सा बताया गया है। लेकिन भगवान भोले भंडारी अब चीन के कब्जे में हैं। यही नहीं गूगल अर्थ से होड़ बररते हुए चीन ने एक आॅनलाइन मानचित्र सेवा शुरू की है। जिसमें भारतीय भू-भाग अरूणाचल और अक्षाई चिन को चीन ने अपने हिस्से में दर्षाया है। विश्व ़मानचित्र खण्ड में इसे चीनी भाषा में दर्शाते  हुए अरूणाचल प्रदेश को दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा बताया गया है, जिस पर चीन का दावा पहले से बना हुआ है। वह अरुणाचलवासियों को चीनी नागरिक भी मानता है। यही नहीं चीन की एक साम्यवादी रूझान की पत्रिका में वहां की एक कम्युनिस्ट पार्टी के नेता का लेख छपा था कि भारत को पांच टुकड़ों में बांट देना चाहिए। अब सवाल उठता है कि भारत इस कुटिल मंशा का जबाव किस लहजे और भाषा में दे ?

चीन की दोगलाई कूटनीति तमाम राजनीतिक मुद्दों पर साफ दिखाई देती है। चीन बार-बार जो आक्रामकता दिखा रहा है, इसकी पृष्ठभूमि में उसकी बढ़ती ताकत और बेलगाम महत्वाकांक्षा है। यह भारत के लिए ही नहीं दुनिया के लिए चिंता का कारण बनी हुई है। दुनिया जनती है कि भारत-चीन की सीमा विवादित है। सीमा विवाद सुलझाने में चीन की कोई रुची नहीं हैं। वह केवल घुसपैठ करके अपनी सीमाओं के विस्तार की मंशा पाले हुए है। चीन भारत से इसलिए नाराज है, क्योंकि उसने जब तिब्बत पर कब्जा किया था, तब भारत ने तिब्बत के धर्मगुरू दलाई लामा के नेतुत्व में तिब्बतियों को भारत में शरण दी थी। जबकि चीन की इच्छा है कि भारत दलाई लामा और तिब्बतियों द्वारा तिब्बत की आजादी के लिए लड़ी जा रही लड़ाई की खिलाफत करे। दरअसल भारत ने तिब्बत को लेकर शिथिल व असंमजस की नीति अपनाई हुई है। जब हमने तिब्बतियों को शरणर्थियों के रूप में जगह दे दी थी, तो तिब्बत को स्वंतत्र देश मानते हुए अंतरराष्ट्रिय मंच पर सर्मथन की घोषणा करने की जरुरत भी थी ? डाॅ राममनोहर लोहिया ने संसद में इस आशय का बयान भी दिया था। लेकिन ढुलमुल नीति के कारण नेहरु  ऐसा नहीं कर पाए ?

चीन कूटनीति के स्तर पर भारत को हर जगह मात दे रहा है। पाकिस्तान ने 1963 में पाक अधिकृत कश्मीर का 5180 वर्ग किमी क्षेत्र चीन को भेंट कर दिया। तब से चीन पाक का मददगार हो गया। चीन ने इस क्षेत्र में कुछ सालों के भीतर ही 80 अरब डाॅलर का पूंजी निवेष कर दिया। चीन की पीओके में शुरू हुई गतिविधियां सामाजिक दृष्टि से चीन के लिए हितकारी हैं। यहां से वह अरब सागर पहुंचने की जुगाड़ में जुट गया है। इसी क्षेत्र में चीन ने सीधे इस्लामाबाद पहंुचने के लिए काराकोरम सड़क मार्ग भी तैयार कर लीया है। इस दखल के बाद चीन ने पीओके क्षेत्र को पाकिस्तान का हिस्सा भी मानना शुरू कर दिया है। यही नहीं चीन ने भारत की सीमा पर हाइवे बनाने की राह में आखिरी बाधा भी पार कर ली है। चीन ने समुद्र तल से 3750 मीटर की उंचाई पर बर्फ से ढके गैलोंग्ला पर्वत पर 33 किमी लंबी सुरंग बनाकर इस बाधा को दूर कर दिया है। यह सड़क सामारिक नजरिए से बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि तिब्बत में मोषुओ काउंटी भारत के अरूणाचल का अंतिम छोर है। अभी तक यहां कोई सड़क मार्ग नहीं था।

 

यह ठीक है कि भारत और चीन की सभ्यता 5000 साल से भी ज्यादा पुरानी है। भारत ने संस्कृति के स्तर पर चीन को हमेशा नई सीख दी है। अब से करीब 2000 साल पहले बौद्ध धर्म भारत से ही चीन गया था। वहां पहले से कनफ्यूशिस धर्म था। दोनों को मिलाकर नवकनफ्यूशनवाद बना। जिसे चीन ने अंगीकार किया। लेकिन चीन भारत के प्रति लंबे समय से आंखे तरेर्रे हुए है। इसलिए भारत को भी आंख दिखाने के साथ कूटनीतिक परिवर्तन की जरूरत है। भारत को उन देशों से मधुर व सामरिक संबंध बनाने की जरूरत है, जिनसे चीन के तनावपूर्ण संबंध है। ऐसे देशों में जापान, वियतमान और म्यांमार हैं। जिस तरह से चीन जम्मू-कश्मीर और अरूणाचल के निवासियों को भारतीय पार्सपोर्ट की बजाए, अलग से सादा कागज पर नत्थी वीजा देने का सिलसिला जारी रखे हुए है, उसकी काट के लिए भारत को तिब्बत, मंगोलिया और ष्क्यििांग के अल्पसंख्यकों को नत्थी वीजा देने की जरूरत है। क्योंकि चीन को उसी की भाषा में उत्तर नही दिया गया तो वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आएगा ?

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