पाखण्डी गुरूओं की लगी हैं मंडी…

पण्डित परन्तप प्रेमशंकर

बंदउ गुरुपद पदुम परागा……

गुरू महिमा –

आषाढ शुक्ल पूर्णिमा को व्यास पूर्णमा कहते हैं । भगवान के ज्ञानावतार श्री द्वैपायन कृष्णने वेद का व्यास एवं अनेक पुराणादि की रचनाद्वारा सनातन वैदिक संस्कृतिको अनुपम योगदान दिया हैं । विद्वद्गण तो मानते हैं कि व्यासोच्छिष्ठं जगत्सर्वं । संस्कृतिकी अनन्त सेवाको सन्मानित करनेके लिए विश्वगुरू वेदव्यासको इस पुनितपर्व पर कोटीकोटी वंदन करते हैं ।

हमारी सनातन संस्कृति में गुरू की अपार महिमा हैं । गुरूका स्थान सर्वोच्च हैं । गुरूगीता गुरूकी महिता का प्रतिपादन करता हुआ ग्रंथ हैं – गुरूपूर्णमा के पुनित दिवस पर उसका पठन करना चाहिए । गुरूगोविंद दोऊं खडे काके लागु पाय, बलिहारी गुरू आपने गोविंद दियो बताय – स्वयं भगवान से भी उपर किसीका स्थान हैं तो वह है सद्गुरूका । श्रुति-स्मृति-पुराणेतिहासादि समस्त वैदिक वाङमयमें गुरू की महत्ताका वर्णन मिलता हैं । यहां कुछ उधृत प्रस्तुत हैं – यो गुरू सःशिवः प्रोक्तो यः शिवः स गुरूः स्मृतः । यथा शिवस्तथाविद्या यथा विद्या तथा गुरूः । शिवविद्या गुरूणां च पूजया सदृशं फलम् ।। सर्वदेवात्मश्चासौ सर्वमंत्रमयो गुरूः । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन यस्याज्ञां शिरसा वहेत् ।। शिवपुराण वायवीय संहिता ।

हमारी सनातन वैदिक परम्परा गुरूपसदन होनेका सिखाती हैं । उपगम्य गुरूं विप्रमाचार्यं तत्ववेदिनम् – । तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् (मु.उप) – स गुरूमेवाभिगच्छेत्…..श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्…अशिष्यायाविरक्ताय यत्किंचिदुपदिश्यते, तत्प्रयात्यपवित्रत्वं गोक्षीरंश्वद्रतौ यथा – आचार्यवान् भव । योगविशिष्ठकारने तो बताया हैं कि गुरूपदेशशास्त्रर्थेबिना आत्मा न बुध्यते । गुरू तो चाहिए ही चाहिए । वशिष्ठजी कहते हैं – गुरूम्बीना वृथो मंत्रः ।

बीन गुरूज्ञान कहां से पाए….. यूं तो दुनियामें सभी विद्याओंकी पुस्तके उपलब्ध हैं किन्तु क्या कोई सर्जरीकी पुस्तक पढकर सर्जरी कर सकता हैं या कोई एरक्राफ्ट चला सकता हैं ? गुरू की आवश्यकता अनिवार्य हैं । चाहे मंत्रविज्ञान हो या यज्ञादि कर्म प्राधान्य, सभी जगहपर गुरू की परमावश्यकत रहती ही हैं । स्वयं नारायणने भी राम व कृष्ण बनकर गुरूचरण सेवा की हैं । वशिष्ठजी कहते हैं – गुरूम्बीना वृथो मंत्रः यदि बीना गुरूके कोई मंत्र पठन कर भी लो तो निरर्थक हैं । अदिक्षिता ये कुर्वन्ति जपयज्ञादिका क्रिया सर्वं नष्फलतां यान्ति शीलायामुप्तबीज वत् – यथा पत्थरपर पडा बीज अंकूरित नहीं होता, बीना गुरूका मंत्र कभी फलित नहीं होता । लेकिन गुरू भी ईश्वरकी कृपाके बीना नहीं मिलते – बीन हरि कृपा मिलहीं नहीं संता सत संगति संसृति कर अन्ता । अतः सद्गुरूकी प्राप्ति के लिए इश्वरकृपा होनी चाहिए ।

आज के गुरू –

आजकल गुरूओंकी तो लम्बी लाईन हैं । एसी गाडीयोंमें ओर आलिशान मठोंमें निवास करनेवाले गुरूओकी लम्बी यादी हैं । पानी पिजे छानकर गुरू किजे जानकर । सुयोग्य गुरू न मिले तो गुरू न करें । स्वामि विवेकानन्दजी गुरूदिक्षा के पूर्व श्रीरामकृष्ण परमहंसजी पास गए थे । उन्होंने सुना था की गुरूजी द्रव्यको श्पर्श नहीं करते हैं । नरेन्द्रने (विवेकानन्दजीने) गुरूका ध्यान न हो ऐसे उनकी गद्दी पर सिक्का रख दिया । परमहंसजी जैसे ही विराजमान हुए सहसा खडे हो गए ओर बोले आज आसनमें कूडा आगया हैं । ऐसी परिक्षा समर्थ रामकृष्णजी की भी हुई थी । आज तो मठोंकी मंडी लगी हैं ओर चारों और सेल्समेन-एजन्ट गुमते हैं – शिष्योकी खोजमें । उनकी दुकान अच्छी चलनी चाहिए ओर ऐसा करनेके लिए वे कुछ भी हद तक गीर सकते हैं । वे यो यहां तक दुराग्रह रखते हैं कि वे जो कहे वो ही सनातन सत्य हैं – डायरेक्ट प्रभु के एजन्ट । शास्त्रमर्यादा की ऐसी की तैसी । कोई कहे स्त्रीयोंका दर्शन तक मत करो – प्रायः उनका प्रागट्य ब्रह्माण्डसे सीधा ही हुआ होगा । हमारे शास्त्रोने स्त्रीको जगदम्बाका स्वरूप बताया हैं । कोई कर्मकाण्डका विरोध करता हैं । कोई वेद – उपनिषदोके मंत्रोको बदलनेका साहस करता हैं, जो अपौरूषेय हैं । रामजी तो स्वयं भगवान थे उनको यज्ञ, पूजा, सन्ध्या की क्या जरुरत थी, फिर भी वह यह सब करते थे । स्वयं वशिष्ठ व विश्वामित्र जैसे ब्रह्मर्षि भी उन यज्ञादि का आचार्यत्व करते थे । आज के स्वयं बन बैठे गुरु ऐसे यज्ञादि, पूजनार्चन, कर्मकाण्ड से विमुख है और भले भोले लोगो को बहकाकर लूटते है । सीधा वेद किसी को नहीं पचता नानुष्ठानं विनावेद वेदनं पर्यस्यति ब्रह्मधीस्तवतैवस्यात्फलदेति परामाता अनु.प्रकाश श्रीविद्यारण्यस्वामि ने इसपर विशेष बात कही हैं । गीता भी कहती है कि सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् । यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् । भगवान ने सुस्पष्ट कहा हैं यज्ञ-पूजादि कार्य लोग हितार्थ भी हैं अतः कभी न त्यागें, क्योंकि जो श्रेष्ठनर आचरण करते है उसीका ही अनुसरण शिष्यगण करते हैं । विद्वानो संतो के लिए गीता में आदेश है न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम् । जोषयेत्सर्व कर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ।।गी.3.26 । समर्थ गुरू ब्रह्मतत्त्वकी शास्त्रविरूध्द व्याख्या नहीं करते । तस्माच्छात्रं प्रमाणंते कार्याकार्य व्यवस्थितौ, ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्मकर्तुमिहार्हसि (गी.17.24) परमार्थाय शास्त्रीतम् । श्रुति भी कहती हैं कि शास्त्रज्ञोsपि स्वातंत्रेण ब्रह्मज्ञानान्वेषणं न कुर्यात् (मु.उप)। शास्त्रं तु अन्त्य प्रमाणम्। समर्थ होते हुए भी शास्त्रविरूध्द नहीं बोलना ये शास्त्र मर्यादा है । पानी पीजे छानकर, गुरू कीजे जानकर । ज्ञान ध्यान जाने नहीं मनवाँ मूढ अजान, पाप चडावें शीश पै बिन जाने गुरू मान । आजकल तो प्राय: शिष्यवित्तोपहारक: । यस्यागमः केवलजीविकायै तं ज्ञानपण्यं वणिजं वदन्ति । शिष्योकी संम्पत्तिसे मठ-आश्रम चलानेवाले, ए.सी. कारवाले सन्त (मठरूपी दुकान चलानेवाले) ही ज्यादा मिलते है । जिसके जीवनमें तप नहीं, तितिक्षा या उपरति नहीं वह कैसे सन्त हो सकता हैं । प्रकृतिजन्य उष्मा-शीत-वर्षा नहीं सह सकता, तो वह तपहीन गुरूको पाखण्डी समझना यथोचित हैं । भगवान वेदव्यासजीने ऐसे धनी-कुटिल गुरूओंसे सावधान रहनेकी बात कई जगह पर की हैं । संत शिरोमणी तुलसीदासजी ने भी कहा हैं बहुदाम सँवारहिं धाम जति । विषया हरि लीन्हि न रहि बिरती । तपसी धनवंत दरिद्र गृही । कलि कौतुक तात न जात कहीं । धनवंत कुलीन मलीन अपी । द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी । नाहि मान पुरान न बेदही जो । हरि सेवक संत सही कलि सो । कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सद्ग्रंथ । दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रकट किए बहु पंथ । कलियुग में अरबो-खरबोकी संपत्ति के मालिक-ट्रस्टी संत महंतो की कमी नहीं होगी । अखण्ड सनातन सभ्यताको अपनी दुकान चलाने हेतु छोटी छोटी मान्यता – विचारधाराओंमे बटोरकर – दंभ व स्वार्थयुक्त अनेक छोटे-छोटे संप्रदायोंमें विघटित कर दी हैं । इस परिस्थिति में सुज्ञ प्रजा व विद्वानोंका परम कर्तव्य हैं कि इस पाखण्ड लीला का निरसन करनेकी दिशामें प्रशस्त हों, आज नहीं तो आनेवाला कल इस विघटनके द्वारा सर्वनाश की दिशामें और आंतरिक कलहमें निःसंदेह परिणित होगा ।

कथा एवं ज्ञानसत्र के माध्यम से भोले-भले एवं सीधे लोगों को लूंटनेका कार्य आज जोरशोर से चारो तरफ चल रहा हैं । शास्त्र मर्यादा का कौन विचार करता हैं ? भागवत रामायणादि के पारायणका पूर्ण विधान होते हुए भी स्वच्छन्दासे अपने हिसाबसे पारायण को ज्ञानसत्रका नाम देकर चलाते हैं । भगवति श्रुति कहती हैं कि समर्थोपि स्वातंत्रेण ब्रह्मान्वेषणं न कुर्यात् । आजकल तो अत्रि वशिष्ट अंगिरा या विश्वामित्र से भी अधिक ज्ञानी हो ऐसे मनचले अनेक बाबा निकल पडे हैं । पुराणोंका तत्त्व निरूपण एवं यथार्थता की बात तो एक तरफ रही समग्र समाज को कर्मभ्रष्ट करने चले हैं । स्वयं के जीवनसे तो तप को तिलांजली दे दी हैं ओर सामान्य जनमानस को गुमराह करते हैं । संत शिरोमणी श्री तुलसीदास ने कहा हैं सबदी साखी दोरहा, कहि किहनी उपहान । भगति निरूपहीं भगत कली निन्दहिं वेद-पुरान ।। आजकल तो किसी उपनिषदके एक शब्दको पकडकर (जो वे समझते भी नहीं), साखी, दोहे, उपाख्यान कहानियां, चुटकुले, कव्वालीयां, गजल कहकर केवल लोकमानस का रंजन करके धर्मात्मा बने बैठे हैं । वेद – शाखा – धर्मशास्त्र किसीका ज्ञान न होते हुए भी समर्थ ज्ञाता होनेका पाखण्ड करते हैं और उनके एजन्ट हमारे बीच मीडिया के माध्यम से ग्राहक ढूंढते रहते हैं । नित्य एक नया पंथ नया आश्रम नया सम्प्रदाय कीडे मकोडे की तरह उभर आता हैं । सहज समाधि कोर्ष, राजयोग शिबिर.. आज आपको अक्षरों की जरूरत नहीं सीधे ही निबंध लिख सकते हैं । महर्षि पातञ्जलिने अष्टांग योग एवं क्रमशः उद्गमन की बात की है । आज के गुरू आपको सीधे ही उपर भेज रहे हैं – समाधि लगा देते हैं । दैहिक व्यायाम – आसान इत्यादि को राजयोग का नाम देकर सीधे सादे लोगोंको मतिभ्रम कर रहे हैं । आप विचार करें उनके आंतरिक चरित्रका । आप देखिए कभी वो बीना गाडी या बिना ए.सी. रह सकते हैं । किसी गरीब के घर उच्छिष्ठ भोजन अन्न ब्रह्म मानकर खा सकते हैं ? कभी दिखावे के लिए तो कर भी लेंगे लेकिन यह उनकी पाखण्ड का एक भाग ही हैं । लाखों रूपए मिडीयावालों को प्रचार के लिए दे ते हैं । नकली चीज बेचने के लिए ही ज्यादा शोर मचाना पडता हैं । शिक्षित समाज आगे आकर ऐसे पाखण्ड का निरसन करेगा तब हीं निर्मल भारत का निर्माण होगा । यह एक आतंकवाद से भी अति गंभीर समस्या है । जिनके चरणोंमें अरबों खरबों के काले धन का ढेर लगता हो उनका चरित्र भी तो काला ही होता हैं । आहार शुद्धो सत्व शुद्धि शास्त्र कहता हैं जिनका आहार शुद्ध है उनका मन शुद्ध रहता हैं । जिनके मठोंमे काले धनका ढेर लगा हो उनका जीवन – चरित्र कदापि शुद्ध नहीं हो सकता । ये गुरू प्रतिहजार बीस रूपये लोक कल्याणार्थ खर्च करते हैं और वो भी मिडिया द्वारा विज्ञापन हेतुसे ही । अन्यथा जिनको केवल एक लंगोटीकी जरूरत हैं उनको इतनी संपत्ति की क्या आवश्यकता । हमारे ऋषि, भगवान शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्यजी का जिवन देखों । सेंकडों वर्षोके उपरान्त भी उनकी अमला किर्ती बनी रहेगी । उन्होंने धन इकठ्ठा नहीं किया । आज पांच हजार वर्षके बाद भी वेदव्यास, विश्वामित्र एवं वशिष्टको याद करते हैं । जनसेवा के लिए धन इकठ्ठा करनेका बहाना बनाकर आजके पाखण्डी संत ऐय्याशी करते हैं ।

गुरू कैसे होने चाहिए –

जिनके चरण कमलों में परम शांति मिले और मन समाहित रहे, शांत रहे, संकल्प-विकल्पों का शमन हो ऐसे गुरु होने चाहिए । गुरूगीता क्या कहती हैं तमे दुर्लभं मन्ये शिष्यहृतापहारका । गुकारश्चान्धरा हि रूकारस्तेज उच्यते । अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरूदेव न संशयः । दियते येन विज्ञानं क्षीयते पाशबंधनम् । अज्ञानरूपी अंधकारसे और वासनाओंके पाशबंधोसे जो मुक्ति दिला सकें । या विद्याच्चतुरोवेदान्सांगोपनिषदो द्विज:, पुराणं विजानाति य: सतस्माद्विचक्षण: वेद-वेदांत के ज्ञाता होने के साथ साथ अच्छे पौराणिक हो । धर्मशास्त्र विदो ये वै तेषां वचनमौषधम् ऐसे धर्मशास्त्र के विद्वानका वचन औषध जैसा होता है । तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभि गच्छेत्समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् (मु.उप) । दीक्षायुक्तं गुरो: ग्राह्यं मंत्रंह्यथ फलाप्तये, ब्राह्मण: सत्य पूतात्मा गुरोर्ज्ञानी विशिष्यते । उपगम्य गुरूं विप्रमाचार्यं तत्ववेदिनम्, जापिनं सद्गुणोपेतं ध्यानयोग परायणम् । उपासक, तत्ववेत्ता ओर ज्ञानी व पवित्र भी है, ईश्वर के ध्यान में रत रहते हो । शिष्यचित्तोपहारकः शिष्यके चित्तको समाहित कर सकें । जो सद्गुरू होते है उनको तो शिष्यके कल्याणमें ही रूचि होती हैं । उनका कोई संप्रदाय बढानेमें रस नहीं होता । आजके महंतोको शिष्यका कल्याण हो या न हो – कंठी बंधवाना – युनिफोर्म पहनाना – अपना तिलक करना (ट्रेडमार्क) – संप्रदायने नियत किया, उसीसे ही सभीका अभिवादन करना (कोडवर्ड) इत्यादि । आजके संप्रदाय कट्टरतावादी होते जा रहे हैं । कलके भारतके लिए आतंकवादसे भी यदि ज्यादा भय है तो, यह बढते कट्टरतावादी छोटे-छोटे परिवार, समाज, योगसंस्थाओंसे । भगवान श्रीकृष्णने गीतामें अढारह योगोका ज्ञान, अपने शिष्य अर्जून को दिया किन्तु गीता में कहीं भी कृष्ण उवाच नहीं हैं । अंतमें भगवानने अर्जूनको कहा कि यथायोग्यं तथा कुरू तेरी बुद्धि एवं श्रद्धा जिसे स्वीकार करे, वो ही तू कर । कोई संप्रदाय या शाखा नहीं । सद्गुरूतो कतकरेणुके (एलम) पुष्पकी तरह होते हैं । शिष्योंके संशयरूपी मलको लेकर पानीके नीचे बैठ जाते हैं – पानी निर्मल हो जाता हैं पर कहीं भी अपना नाम नहीं । भगवाननें सृष्टि बनाकर – सूर्य-चन्द्र बनाकर – पर्वत-नदिया-सागर बनाकर कहीं भी अपना नाम नहीं लिखा । वर्षा के जलके साथ कभी बिल नहीं आता । आजके गुरूओंकी शिबिरमें दक्षिणा देनी पडती हैं । किसी साधारण या जनसामान्यके वहां ये गुरू जाते नहीं – आर्थिक दक्षताके आधारपर ही उनका व्यवहार चलता हैं । हजार रूपये लेकर बीस रूपये लोक हितार्थ खर्च करते हैं, बाकी मठ-मंडीका मुनफा अपनी ऐयाशीके लिए । ऐसे अनेक छोटे-छोटे संप्रदायोके विकासमें, विद्वद्वर्गकी सुषुप्ति एवं जनजागृतिका अभाव ही कारणभूत हैं ।

गुरू के प्रकार –

जिस प्रकार ५ वॉल्ट के बल्बमें पावरस्टेशन का सीधा सप्लाय नहीं दे सकतें वैसे ही अनन्त शक्ति ब्रह्मका अनाधिकारीको अनुभूति सीधे ही नही कराई जाती हैं । शक्तिपातानुसारेण शिष्योनुग्रहमर्हति योग्यताके आधारपर ही इस परम तत्वका बोध हो सकता हैं । हर कोई मेडिकलमें नहीं जा सकता या आईएएस नहीं बन सकता । यथा योग्यताके अनुसार ही ईश्वर कृपासे गुरू मिलते हैं । अनुग्रह प्रकारस्य क्रमोयमविवक्षतः शि.पु.वा.सं.3-4 तंत्र व वैदिक मतानुसार तीन प्रकार के गुरू होते है (१) दिव्यौघ (२) सिद्धोघ (३) मानवौघ ।

जिस प्रकार १०००० वॉल्टकी मोटर को सीधा सप्लाय दे सकते हैं – किसी ट्रान्सफोर्मरकी जरूरत नहीं हैं, वैसे ही तप और भक्ति एवं पूर्वजन्मोंके अर्जित पुण्यकी जिसके पास पूंजी हैं, उसे स्वयं परमात्माके द्वारा उपदेश मिलता हैं जैसे कि प्रहलाद – ध्रुव – अर्जून – देवहूति आदि । दिव्य विग्रह ही अपने दिव्य स्वरूपसे उपदेश देते हैं । ये हैं दिव्यौघ गुरू परंपरा ।

कहीं पर प्रभु स्वयं न आते अपने दिव्य भक्तो ओर सिद्धो को गुरूके रूपमें भेजकर अनुग्रहीत करते हैं । क्योंकि ५०० वॉल्टके बल्ब के लिए ट्रान्सफोर्मर चाहिए । जैसे शंकराचार्य द्वारा चार शिष्योंको उपदेश, शुकदेवजी द्वारा परिक्षितको उपदेश हुआ हैं । ये हैं सिद्धौग परंपरा ।

अब आप समझ ही गए होंगे कि ५ वॉल्ट के बल्ब को तो मिटरसे जो सप्लाय आता है, वो भी सीधा नहीं दे सकतें । उसमें भी एक ओर ट्रान्सफोर्मर की आवश्यकता रहती हैं । सज्जन व साधारण अधिकारीयोंको साधुजन द्वारा जो उपदेश होता हैं, यह मानवौघ परंपरा हैं ।

गुरू कृपा –

इश्वर कृपा होती हैं या व्रत-तपादि द्वारा जब पुण्यसंचय होता हैं तब सद्गुरूकी प्राप्ति होती हैं । श्रुति कहती हैं व्रतेन दीक्षा माप्नोति व्रतादि द्वारा ही दीक्षाधिकारत्व मिलता हैं । दिव्यंज्ञानं यतो दद्यात्कुर्यात्पापक्षयं तथा । ततो दिक्षेति लोकेस्मिन्किर्तिता तंत्रपारगैः । जिसके द्वारा दिव्यज्ञानकी अनुभूति हो ओर पापोंका क्षय हो उसे शास्त्र दिक्षा कहते हैं । दिक्षाके कई प्रकार हैं जैसेकी शाम्भवी-शाक्ति-मान्त्री इत्यादि । सद्गुरू किसी भी प्रकारसे शिष्यको शक्तिपात करके अनुग्रहीत करते हैं । श्पर्शके द्वारा – शिष्यके मस्तिक या देह पर श्पर्श करके – जैसे मरघी या पक्षी श्पर्श करके अंडेको पुष्ट करती हैं । कृपा दृष्टि के द्वारा जिस प्रकार मछली अपने अंडेको देखकर ही पुष्ट करती हैं । ध्यान या चिंतन द्वारा जिस प्रकार काचबी (कच्छपी) ध्यानके द्वारा अपने अंडोको पुष्ट करती हैं । संकल्प द्वारा जिस प्रकार कीट भ्रमर बनता हैं । तपोबल का प्रकाश डालकर – जिस प्रकार सूर्यकी किरणों से कमल खिलते है – सूर्यमूखी पुष्प खिलते हैं । शिष्यकी योग्यताके आधारपर ही गुरू कृपाका आधार हैं, खगकी भाषा खग ही जाने जैसे गरूडजी जैसे पक्षीराज को ज्ञान देनेके लिए काकभूशुण्डीजी द्वारा रामकथा कही गई । इस प्रकार गुरूके माध्यमसे दिव्यशक्तिका संचार शिष्य पर होता हैं जिसे शक्तिपात कहते हैं ।

गुरू मिलना ईश्वर की कृपा व स्वकीय पुण्यपुरूषार्थ पर निर्भर हैं यद्यपि सबके लिए प्रथम गुरू माता-पिता ही होते हैं क्योकि पिताके बैजिक संस्कार व माताकी सगर्भावस्थामें सच्चिन्तन ही जातकको संस्कार के रूपमें मिलते हैं । न मातुः परमदैवतम् – सहस्रान्तुपितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते – मनु छोटे बच्चेको भोजन कराना – शोचादि कराना – मामा-चाचा-दादा बोलते शिखाना – अपने वात्सल्यके अमृतसे पुष्ट करना माताका काम हैं । इसलिए कहा हैं कि माता एक हजार शिक्षकोंके बराबर हैं । अंगूली पकडकर चलना सिखाना – कंघेपर बिठाकर खिलौने से खेलना – सभ्यतासे बोलना पिता सिखाते हैं, यथा गुरूकी अनुपलब्धिमें एवं सर्वप्रथम गुरूके रूपमें माता-पिताकी पूजा भी आज अवश्य करनी चाहिए । ‘मधर्स डे’ या ‘फाधर्स डे’ वाली पाश्चात्य (पछात) संस्कृति को भी एकदिन के लिए माता पिता को याद करनेकी बात, भारतीय संसर्गसे समझमें आई हैं ।

गुरूकी कृपाका – ज्ञानका साक्षात्कार कब होगा, यह शिष्यकी योग्यता पर निर्भर हैं । आचार्यात्पादमाद्दत्ते पादंशिष्य स्वमेधया, कालेन पादमादत्ते पादं स ब्रह्मचारिभिः ।। कुछ बाते शीघ्र ही – तत्काल आत्मसात् होती हैं – कुछ तत्काल नहीं होती कालान्तरमें समझमें आती है – कुछ शिष्य स्वमेधा या चिंन्तनसे अनुभूत करता हैं – कुछ तप-चर्चा या मित्रोके माध्यम द्वारा आत्मसात् होता है । पारस केरा गुण किसा, पलटा नहीं लोहा । कै तो निज पारस नहीं, कै बीच रहा बिछोहा । अगर पारस के श्पर्श से लोहा सोना नहीं बनता तो या तो असली पारस नहीं या तो लोहे ओर पारस के बीच में कोई अन्तराय हैं ।

आज गुरू पूजनके अति पूनितपर्वपर, मेरी स्वल्प समझको साकृत करना गुरू पूजा ही समजता हूं । विवेकयुक्त विचार करके गुरूपसदन हो ओर इश्वर कृपासे शीघ्र ही सद्गुरुकी प्राप्ति हो ऐसी मंगल कामना ।

तस्मै श्री गुरवे नमः ।।…..

पण्डित परन्तप प्रेमशंकर

 

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