अक्षयवट का लोक-पदार्पण भावी अनीति-उन्मूलन का लक्षण

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      पिछले चार सौ पच्चीस वर्षों से प्रयागराज-स्थित ‘अकबर का किला’
नामक एक मस्जीद में कैद ‘अक्षयवट’ का अब सामान्य श्रद्धालुओं के बीच
पदार्पण हो चुका है । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व उतर प्रदेश के
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की संयुक्त पहल पर कुंभ के दौरान इसे
कैद-मुक्त कर दिया गया है । मोदी-योगी की जोडी ने युगों-युगों से प्रलय व
सृजन का अमर साक्षी रहने वाले इस पौराणिक सार्वकालिक अक्षयवट का
दर्शन-पूजन करने के पश्चात विधर्मी मुगलिया शासन के कलंक तथा अंग्रेजी
औपनिवेशिक शासन के षड्यंत्र से मुक्त करने का जो ऐतिहासिक काम किया है,
सो देखने में भले साधारण प्रतीत हो , किन्तु यह एक असाधारण परिघटना है ।
        मत्स्य पुराण में वर्णन है कि जब प्रलय आता है, पृथ्वी जलमग्न हो
जाती है , तब उस समय भी इस अक्षयवट का नाश नहीं होता है । ऐसी मान्यता है
कि प्रलय के बाद सृष्टिकर्ता नई सृष्टि की रचना इस वृक्ष पर से ही करते
हैं । अपनी इसी विशिष्टता के कारण यह वटवृक्ष ‘अक्षयवट’ के नाम से जाना
जाता है । अक्षयवट, अर्थात ऐसा वट , जिसका क्षय नहीं हो सकता । ऐसी भी
मान्यता है  इसी वटवृक्ष के नीचे सावित्री को उसके मृत पति के पुनर्जीवन
का वरदान मिला था । इसी कारण भारतीय स्त्रियां आज भी किसी वट-वृक्ष के
नीचे ‘वट सावित्री’ नामक विशेष पूजा-अर्चना किया करती हैं । प्रतिवर्ष
जेयष्ठ माह की अमावस्या के दिन सौभाग्यवती स्त्रियां अपने पति की लंबी
आयु के लिए ‘वट सावित्री’ का व्रत ले कर वटवृक्ष की पूजा-अर्चना व
परिक्रमा करती हैं । प्रयागराज में स्थित सदियों पुराने अक्षय वट नामक इस
वटवृक्ष को ‘अमरत्व के वृक्ष’ की संज्ञा दी गई है , क्योंकि इस वृक्ष का
अस्तित्व आदि काल से ही धरती पर है और सृष्टि के समाप्त हो जाने के बाद
भी बना रहेगा । इस वटवृक्ष के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु व शीर्ष
पर शिव का वास माना गया है । जैन और बौद्ध पन्थ में भी इस अक्षयवट को
पूजनीय माना गया है । कहा जाता है कि बुद्ध ने कैलाश पर्वत के निकट
प्रयागराज के इस अक्षय वट का ही एक बीज बोया था । जैन परम्परा में यह
मान्यता है कि उनके आदि तीर्थंकर-  ऋषभदेव ने अक्षय वट के नीचे ही तपस्या
की थी । प्रयागराज में इस स्थान को ‘ऋषभदेव की तपस्थली’ और ‘तपोवन’ के
नाम से भी जाना जाता है । रामायण में भी इस अक्षयवट नामक वट्वृक्ष का
उल्लेख मिलता है । राम-लक्ष्मण-सीता वनवास के दौरान जब यमुना पार कर
दूसरे तट पर उतरे , तब  वहां स्थित इस ‘अक्षयवट’ को सीता जी ने प्रणाम
किया था । वाल्मीकि रचित ‘रामायण’ और कालिदास रचित ‘रघुवंश’ महाकाव्य में
भी इस वटवृक्ष की चर्चा है । प्रलय व सृजन का संदेश देता यह अक्षयवट एक
ऐसा वटवृक्ष है , जो सनातन भारतीय संस्कृति को छाया प्रदान करता रहा है ,
आगे भी करता रहेगा ; किन्तु  इतिहास में इसकी व्याप्ति व परिणति बडी
त्रासदपूर्ण है ।
          मालूम हो कि अभारतीय वामपन्थी सोच से ग्रसित इतिहासकारों व
धर्मनिरपेक्षतावादी बुद्धिबाजों और सत्तालोलुप बुजदिल राजनेताओं द्वारा
जिस अकबर को महान घोषित करते हुए उसकी तथाकथित गंगा-यमुनी तहजीब को परवान
चढ़ाने के मशक्कत किये जाते रहे है, उस मुगल शासक ने प्रयागराज नामक
तीर्थ-भूमि पर अपनी सत्ता की धाक जमाने के लिए न केवल इस नगरी का नाम बदल
कर ‘अल्लाहाबाद’ कर दिया, बल्कि त्रिवेणी-तट पर यमुना किनारे अपना एक
किला भी स्थापित किया । किले के लिए उसने इस तीर्थ-भूमि पर जिस स्थान का
चयन किया, वहां सनातन धर्म-ध्वजा से युक्त अनेक मन्दिरों के मध्य भारतीय
संस्कृति की चिरन्तनता से हरित-भरित यह अक्षयवट लहलहा रहा था । जाहिर है
, वह स्थान समस्त हिन्दू समाज के लिए गहरी आस्था व अटूट श्रद्धा का
केन्द्र जैसे अब है, वैसे ही तब भी था । ऐसे में इस्लाम की इबादत करने
वाला मुस्लिम शासक अपनी धाक जमाने हेतु किला-निर्माण के लिए उसी स्थान का
चयन अगर न करे , तो वह मुसलमान कैसा ? सो  आनन-फानन में शाही फरमान से
वहां के सभी मन्दिर तोड डाले गए और अक्षयवट को उक्त किला के घेरे में
कैद कर लिया गया । अकबर को चूंकि गंगा-यमुनी संस्कृति की तहजीब व तमीज
पेश कर इतिहास में महान भी बनना था , अतएव तोडे गए मन्दिरों के भीतर की
सभी मूर्तियों को और अक्षयवट की कतिपय डालियों-शाखाओं को दूर के एक उस
मन्दिर में एकत्रित करवा दिया, जो अब पातालपुरी मन्दिर कहलाता है । जाहिर
है , उसके बाद पिछले 425 वर्षों से हिन्दू श्रद्धालूजन किसी सामान्य
वटवृक्ष का दर्शन-पूजन भले करते रहे हों , किन्तु लोक-श्रद्धा का प्रतीक
वह अक्षयवट तो अकबर के किले में कैद  रहने के कारण लोक-दृष्टि से ओझल ही
रहा ।
           परन्तु उस किले की चारदीवारी के भीतर कैद अवस्था में भी वह
वटवृक्ष सनातन धर्म की चिरंतनता का संदेश अन्तरीक्ष में सुवासित करता रहा
और हिन्दू मानस में भविष्य की आशा व विश्वास का संचार करता रहा तो  अकबर
को यह भी रास नहीं आया । वह अपनी सत्ता की इस्लामी शान के लिए इसे चुनौती
मानता रहा । इसीलिए उसके आदेश पर वर्षों तक इस वटवृक्ष की जड़ों में गर्म
तेल डाला जाता रहा , ताकि यह सूख कर नष्ट हो जाए । लेकिन इसकी हरियाली
यथावत बनी रही । फिर अकबर का उतराधिकारी जहाँगीर भी उस अक्षयवट का क्षय
करने की मशक्कत करने लगा । उसने पहले तो इसमें आग लगवा कर इसे नष्ट करने
का यत्न किया , किन्तु उसकी मुराद पूरी नहीं हुई , तब थक-हार कर उसने इसे
कटवा दिया । इस्लाम के मजहबी उन्माद में उन्मत्त उन मुगल बाप-बेटों को यह
समझ में नहीं आया कि जिस वटवृक्ष का प्रलय में भी क्षय नहीं होने के कारण
ही ‘अक्षयवट’ नाम है , उसका क्षय कर पाना किसी राजसत्ता के बूते से बाहर
है । काट दिए जाने के बाद भी यह वटवृक्ष पनपता रहा और ‘अक्षयवट’ होने की
अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करता रहा । इसकी ठूंठ से शिखायें व शाखायें निकल
कर मुगल शासन की मजहबी कट्टरता का प्रतिकार और सनातन धर्म की चिरंतनता का
इजहार करती हुई आकाश छू लेने को मचलती रहीं । जहाँगीर के बाद भी
मुगल-शासनकाल में इस वृक्ष को नष्ट करने के बहुविध प्रयास होते रहे.
लेकिन यह वटवृक्ष हर प्रकार के प्रहार का प्रतिकार करता हुआ अक्षयवट बना
रहा और एक तरफ इस्लामी मजहबी आक्रांताओं को सनातन धर्म की अक्षुण्णता का
अहसास कराता रहा. तो दूसरे तरफ हिन्दुओं को भी स्वधर्म की रक्षा के लिए
डटे रहने की प्रेरणा देते हुए उनके बीच आशा-विश्वास का  संचार करता रहा ।
इतना ही नहीं , बल्कि जिस तरह से कभी असुराधिपति रावण के दरबारियों
द्वारा महाबलि हनुमान की पूंछ में आग लगाया जाना उसके राज-पाट-वैभव-विलास
के नाश का कारण बना , उसी तरह मुगल शासकों द्वारा इस अक्षयवट पर बहुविध
प्रहार किये जाने के परिणामस्वरुप वह मुगलिया सलतनत भी पतन-पराभव का
शिकार हो कर अंग्रेजों के हाथों समाप्त हो गया ।
           अंग्रेज-शासकों ने इस वटवृक्ष पर किसी तरह का कोई प्रहार तो
नहीं किया, किन्तु उनने इसकी मुगलिया कैद को कायम ही रखा । अंग्रेजों के
चले जाने के बाद  अकबर का वह किला यद्यपि भारतीय सेना के नियंत्रण में हो
गया, तथापि उसकी चारदीवारी के भीतर अवस्थित ‘अक्षयवट’ आम श्रद्धालुओं की
पहुंच से दूर ही रहा । साधु-सन्तों-श्रद्धालुओं द्वारा राज्य और केन्द्र
की तमाम सरकारों से इस अक्षयवट को मुक्त कर देने-सम्बन्धी
प्रार्थना-याचना लगातार की जाती रही, किन्तु ‘धर्मनिरपेक्षता’ नामक ‘घोर
साम्प्रदायिकता’ की घिनौनी सोच से ग्रसित कांग्रेसियों-समाजवादियों की
सरकारें हजरत मोहम्मद के किसी कल्पित-प्रक्षेपित ‘बाल’ से युक्त एक दरगाह
में राष्ट्रद्रोही आतंकी गतिविधियां क्रियान्वित होते रहने के बावजूद उसे
वांछित सैन्य-कार्रवाई से बचाये रख कर उसके प्रति श्रद्धा-निष्ठा तो
जताती रहीं, किन्तु एक सनातन तीर्थ-भूमि पर कायम एवं युगों-युगों से भारत
राष्ट्र की सनातनता का बोध कराते रहने वाले इस दिव्य-वृक्ष को जन-सुलभ
करने के प्रति उदासीन ही बनी रहीं । ऐसे में कांग्रेस-बसपा-सपा का एक तरह
से सफाया हो जाने और अप्रत्याशित रुप से भाजपा की सत्ता कायम हो जाने के
व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो हिन्दूत्व-विरोधी अनैतिक राजनीति को
युगो-युगों से चुनौती देते रहने वाले इस लोक-श्रद्धा-सम्पन्न ‘अक्षयवट’
के अब कैद-समापन अर्थात ‘लोक-पदार्पण’ की यह असाधारण परिघटना अनेक भावी
राजनैतिक अनीतियों- अवांछनीयताओं के उन्मूलन का लक्षण भी है ; क्योंकि
संहार व सृजन का क्रियान्वयन ही इसके युगान्तरकारी अस्तित्व का प्रयोजन
है ।
•       मनोज ज्वाला

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