किराए की राहत:किसके हिस्से कितनी

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अनिल अनूप 
बस किराया बढ़ाकर परिवहन क्षेत्र को कितनी राहत मिलेगी, लेकिन आम जनता अवश्य ही अपने लिए इसे एक अतिरिक्त बोझ मानेगी। काफी अरसे से बस किराया वृद्धि की मांग नजरअंदाज हो रही थी और अंत में निजी क्षेत्र की दो दिवसीय हड़ताल ने सरकार को यह कदम उठाने पर विवश कर दिया। मंडी बैठक के परिणामों की सूई अब किराया बढ़ोतरी की ओर घूम रही है, तो न्यूनतम से अधिकतम दरों तक इसका असर दिखाई देगा। सरकार ने न्यूनतम किराया तीन रुपए से कम से कम पांच रुपए, जबकि हर प्रकार का किराया प्रति किलोमीटर औसतन साढ़े इक्कीस प्रतिशत की दर से बढ़ाने की सहमति दी है। यह बढ़ोतरी अपरिहार्य हो सकती है, लेकिन एकमुश्त दरों का इस कद्र सुर्ख होना गांव-देहात से शहरी जनता की परेशानियों में कुछ हद तक इजाफा जरूर करेंगी। यह दीगर है कि वर्तमान दौर में परिवहन की लागत जिस तरह बढ़ गई है, उसे देखते हुए किराया वृद्धि एक तरह का उपचार है और इसके कारण निजी के साथ-साथ सरकारी बसों का अमला भी राहत महसूस करेगा। इसमें दो राय नहीं कि एचआरटीसी की प्रति बस लागत, निजी क्षेत्र के अनुपात से कहीं अधिक व दोषपूर्ण है, फिर भी किराया वृद्धि से सरकारी उपक्रम भी अपने कुछ वित्तीय पाप धो पाएगा। कहना न होगा कि सरकारी क्षेत्र की अनुपस्थिति में निजी आपरेटर किसी तरह की नैतिक जिम्मेदारी नहीं ओढ़ते। इस हिसाब से सरकारी बस कई मायने में सामाजिक सेवा का ऐसा अर्थ तंत्र है, जिसके घाटे में भी सरकारें श्रेय उठाती हैं। यहां सरकार ने ऐसी किसी कसौटी से बाहर निकलकर, किराया वृद्धि की फाइल की धूल हटाकर कड़वा घूंट पिया है। यानी हड़ताली बस मालिकों के गुस्से को शांत करते हुए थोड़ी सी लाली एचआरटीसी की माली हालत पर भी आएगी। फैसला अब उसी जनता के दरबार में है, जिसे दो दिन की हड़ताल ने सरकारी बसों के आगे कतारबद्ध खड़ा किया और इस दौरान की दुश्वारियों में केवल एचआरटीसी ही राहत देने को तत्पर रही। निजी बसों की हड़ताल के दौरान आम उपभोक्ता को यह अंदाजा हो गया कि जब लक्ष्य सिर्फ सेवा हो, तो केवल सरकारी क्षेत्र ही एकमात्र साधन बचता है। इसमें दो राय नहीं कि हड़ताल के पंजे से अगर यात्री मुक्त रहे, तो यकीनन परिवहन निगम ने पहली बार अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया और अपने घाटे के घावों पर भी मरहम लगाया। खैर अब वार्ता के जरिए जब निजी बसें सडक़ों पर लौट आई हैं और वादे के मुताबिक उनकी पीड़ा को सरकार ने कम कर दिया है, तो जनता की शर्तें समझनी होंगी और मर्यादित ढंग से नियमों का पालन भी करना होगा। यह एक तथ्य की तरह प्रमाणित है कि निजी बसों के कारण परिवहन के खतरे निरंतर बढ़ रहे हैं। पिछले कुछ सालों की दुर्घटनाओं से स्पष्ट हो गया है कि सरकारी के मुकाबले निजी बसों ने सडक़ों पर कहीं अधिक कोहराम मचाया है। आपसी प्रतिस्पर्धा से जूझते परिवहन के मायने बेहतर व सक्षम सेवा तो हो सकते हैं, लेकिन हिमाचल में सडक़ों पर आवारगी का आलम यह कि अकसर निजी बसें तेज गति के कारण यातायात आवश्यकताओं को ही मौत के घाट उतार रही हैं। पर्यटन राज्य की परिवहन सेवाओं में निजी क्षेत्र का योगदान अकसर शिकायतें पैदा करता है और केवल कमाऊ रूट की पड़ताल में सेवा भाव का मुलम्मा उतर जाता है। परिवहन सेवाओं को आर्थिक रूप से संबल मिलना चाहिए, लेकिन उपभोक्ता जरूरतों के मुताबिक यह सरल व सुविधाजनक कैसे होंगी, इसकी अनुपालना निजी क्षेत्र में सुनिश्चित की जाए। हिमाचल में परिवहन नीति की परिभाषा में न तो यातायात के नियम सुदृढ़ हुए और न ही सर्वेक्षणों के जरिए रूट परमिट जारी हुए। परिवहन अपने आप में अगर उद्योग की परिपाटी में आता है, तो दैनिक यात्रियों की जरूरतों को इस तरह से पूरा किया जाए कि सडक़ों पर व्यक्तिगत वाहनों की तादाद घटे और ग्रामीण से शहरी क्षेत्रों तक का यातायात अपनी क्षमता का कुशल संचालन करते हुए भरोसेमंद व्यवस्था कायम करे।

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