कश्मीर पर रिपोर्ट : षड्यंत्र के महाबीज

प्रवीण गुगनानी

भारत का हर खास ओ आम, बड़ा छोटा, बाल अबाल सभी जानते है कि कश्मीर राज्य एक विशिष्ट विषय हो गया है. सभी विचारधाराओं के लोग प्राकट्य रूप से कश्मीर को भारतीय गणराज्य का अभिन्न अंग मानते है और ह्रदय से ऐसी कामना करते है कि न सिर्फ वर्तमान कश्मीर बल्कि पूरा अविभाजित कश्मीर भारत का एक अविभाज्य किन्तु सामान्य अंग हो अर्थात बाकी राज्यों की तरह ही कश्मीर भी एक सहज सामान्य राज्य हो. आश्चर्य है कि इस राष्ट्रीय भावना का प्रकटीकरण केन्द्र की सप्रंग सरकार के आचरण से नहीं होता है. लगता है कि काश्मीर के सम्बन्ध में निर्णय लेते समय केन्द्र सरकार भांग पी कर निर्णय करती है. हाल ही में जब १३ अक्टू. २०१० को अस्तित्व में आई दिलीप पडगांवकर समिति की कश्मीर पर रिपोर्ट आई तो सप्रंग सरकार का कश्मीर पर घोर तदर्थवाद पुनः सिद्ध व स्थापित सत्य हो गया.

पिछले दिनों २४ मई २०१२ को काश्मीर के विषय में नियुक्त तीन वार्ताकारों दिलीप पडगांवकर, (अध्यक्ष), पूर्व सुचना आयुक्त एम्.एम. अंसारी और राधा कुमार की रिपोर्ट सार्वजनिक की गई. सर्वप्रथम तो इस रिपोर्ट को यह तथ्य ही शंकास्पद बना देता है.कि इस रिपोर्ट को केन्द्र सरकार ने लगभग छः माह तक अपने पास दबाये रखा और दो संसद के सत्र बीत जाने के बाद इसे ऐसे समय सार्वजानिक किया गया है जबकि – देश की सर्वोच्च पंचायत के सत्र को आहूत होने में अभी समय बाकी है और सत्र के प्रारंभ होने ओर संसद और पूरे देश को राष्ट्रपति चुनाव की गहमागहमी से भी गुजरना है -में रख देती है. सरकार का इस रिपोर्ट को चिदंबरम द्वारा यह व्यक्तव्य देते हुए पेश करना कि “यह कोई सरकारी रिपोर्ट नहीं है ” एक विचित्र स्थिति को जन्म देता है, किन्तु हमें इस सप्रंग सरकार का पुराना आचरण ध्यान में रखना होगा कि किस प्रकार विवादास्पद रिपोर्टो को पहले वह दबे पाँव मैदान फिर उन्हें लागू करने के लिए वातावरण बनाना प्रारंभ कर देती है.

१३ अक्टू. २०१० से नियुक्त व कार्यरत इस विवादस्पद समिति के विषय में तथ्य है कि इसने अपने अट्ठारह माह के लंबे कार्यकाल में जम्मू एवं काश्मीर राज्य का ११ बार भ्रमण किया. कहा गया है कि इस समिति ने २२ जिलों में ७०० समूहों के साथ चर्चा की व ३ गोलमेज सम्मलेन किये है. आश्चर्य होता है कि इतने श्रम और प्रवासों के बाद यह समिति जम्मू काश्मीर की समस्या के ह्रदय तक पहंच ही नहीं पाई या यूँ कहे कि यह समिति समस्या के मर्म को छु भी नहीं पाई है किन्तु एक छदम वातावरण को रचने की और भ्रमजाल को बुनने की तरफ अवश्य बढ़ रही है.

भातरीय गणराज्य के नाते इस समिति की नियुक्ति निश्चित ही इसलिए की जानी चाहिए थी कि किस प्रकार काश्मीर की जनता व शेष राष्ट्र में विश्वास के तार और अधिक सुगठित व सुव्यवस्थित किये जा सके. किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि यह समिति तो कश्मीर की समस्या के तारों को और अधिक उलझाने के लिए और कश्मीर को शेष भारत से अलग थलग करने या अलग करने की पृष्ठभूमि बनाने के लिए गठित की गई है. इसके सुझावों और सिफारिशों को पढते समय ऐसा विश्वास पल प्रतिपल गहराता जाता है कि यह समिति नई दिल्ली ने नहीं बल्कि इस्लामाबाद ने नियुक्त की है ! समिति ने बेहद दुस्साहस पूर्ण नीति रीति से दुराशय पूर्ण रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए कहा है कि – धारा ३७० से अस्थायी शब्द हटा दिया जाये, जम्मू कश्मीर की १९५२ से पहले वाली स्थिति पुनर्स्थापित की जाए, राज्य की जनता को सीमापार आवाजाही व व्यापार के लिए शिथिलता लायी जाये, विभिन्न आपराधिक मामलो में जेल में बंद युवको को रिहा कर उन्हें बंद करने वाले अधिकारियों पर मानवाधिकार के मुकदमे लगाए जाये, इस समिति ने कश्मीर के सम्बन्ध में कानून बंनाने की संसदीय शक्तियों को भी सीमित करने कि अनुशंसा कि है,कश्मीर शासन में अखिलभारतीय सेवा के अधिकारियों के स्थान पर कश्मीर के स्थानीय अधिकारीयों की ही नियुक्तिया की जाएँ, कश्मीर के मुख्यमंत्री व राज्यपाल को उर्दू में सदरे रियासत व् वजीरे आजम कहने की क़ानूनी व्यवस्था कि जाए, कश्मीर में १९५२ से पहले की स्थिति कायम की जाये …आदि आदि अनेकों अनुशंसाएँ ऐसी है जिनके लागु होने से एकात्म राष्ट्र और राज्य की नहीं बल्कि द्विराष्ट्रीय भाव विकसित होते है.

इस समिति वह सब कुछ तो लिखा जिससे काश्मीर के भारत से अलग होने का भाव उत्पन्न होता है किन्तु बहुत कुछ ऐसा भी है जो आवश्यक रूप से लिखा जाना चाहिए था किन्तु उन तथ्य के पास जाने या उन्हें छु लेने का प्रयास भी इस १७६ पृष्ठीय रिपोर्ट में नहीं है. उन विषयों को पढ़े जो इस रिपोर्ट में नहीं होने से यह रिपोर्ट आत्माविहीन व प्राणविहीन हो गई है. मध्यस्थो ने उन कश्मीरियों के बारे में कोई चर्चा नहीं कि जो आजादी के समय शरणार्थी के तौर पर काश्मीर में आये और आज साठ वर्षी के बाद भी बिना नागरिकता ,बिना अधिकारों ,बिना राष्ट्रीय पहचान के नारकीय जीवन बिता रहे है! ये नागरिक जिन्हें मैं अपने लेख में भी शरणार्थी कहना अनुचित समझता हूँ क्यों कि पाक के कब्जाए काश्मीर से ये लोग स्वाभाविक रूप से काश्मीर में आकर बस गए और उन्हें आश्वासन दिया गया था कि उन्हें समान नागरिकता और नागरिक अधिकार दिए जायेंगे किन्तु आज इन्हें नागरिकता केवल इस लिए नहीं दी जा रही है क्योकि इनके नागरिक बन जाने से जन-सांख्यिकी स्तर पर ऐसी स्थितियां निर्मित होगी जो अलगाव वादियों को स्वीकार्य नहीं है!! कश्मीर जिसे हम भारत का मस्तक और उस पर लगे तिलक की उपमा देते रहे है उसे इन वार्ताकारों ने इस रिपोर्ट में दो भू भागो को जोड़ने वाले एक भू भाग कि गरिमा शून्य संज्ञा देकर भी एक एतिहासिक भूल कि है!!! जो निश्चित ही अस्वीकार्य है. सबस बड़ा आश्चर्य पाक द्वारा कब्जाए कश्मीर को पाक प्रशासित शब्द के उपयोग से होता है जिसे पाक राजनयिक भी उपयोग करने से बचते है और केवल अलगाव वादी इस शब्द का उपयोग करते है . वार्ताकारों के पाक प्रशासित शब्द का उपयोग करने से मष्तिष्क में वह चर्चा घुमती है कि इन तीन में दो समिति सदस्य आई एस आई एजेंट फई के निमंत्रण पर भारत विरोधी संगोष्ठी में सम्मिलित हुए थे और उसके बाद इन तथाकथित वार्ताकारों में कलह प्रारंभ हो गई थी.

इस समिति ने उस एतिहासिक तथ्य का उल्लेख भी नहीं किया है कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने २६ अक्टू. १९४७ को अपने राज्य की ३६३१५ व.कि.मी. भूमि का विलय भारतीय गणराज्य में किया था किन्तु आज इस राज्य के पास मात्र २६०० व.कि.मी. भूमि ही क्यों बची है ?

इस समिति ने इस बात पर भी चर्चा नहीं की है किस प्रकार चीन अलगाववादियों को बढ़ावा देते हुए कश्मीर के युवकों को को भारतीय दूतावास द्वारा जारी दस्तावेज पर नहीं बल्कि एक अन्य प्रकार के स्थानीय कागज़ के आधार पर वीजा आदि की सुविधा दे रहा है.

कश्मिर में चल रहे अलगाव वादी संगठन अहले हदीस के हुर्रियत और आई. एस. आई. से सम्बन्ध और इसकी ६०० मस्जिदों और १२० मदरसों की जगजाहिर भूमिका पर भी इस समिति के सदस्य रहस्यमय चुप्पी साधे रहे है.

यह समिति तथाकथित रूप से उन परिस्थितियों पर भी चुप्पी रखती है कि आखिर इस शांत घाटी में युवको की मानसिकता को जहरीला किसना बनाया? किसने इनके हाथों में पुस्तकों की जगह अत्याधुनिक हथियार दिए है?? किसने इस घाटी को अशांति और संघर्ष के अनहद तूफ़ान में ठेल दिया है ???

क्या वार्ताकारों ने विस्थापित कश्मीरी पंडितों की समस्या पर भी मुखर नहीं होकर पुर्वागृह से ग्रसित होने का ठप्पा नहीं लगा लिया है? विस्तृत रूप से कश्मीरी पंडितों के सम्मानजनक पुनर्स्थापन के व्यवस्थित सुझाव इस रिपोर्ट में नहीं होना इस रिपोर्ट को अप्रासंगिक और अपूर्ण नहीं बना देता है?? और तो और इन वार्ताकारों ने पाक के कब्जाए कश्मीर से १९९० में निकाले गए चार लाख हिंदुओं के बारे में भी दुराशय पूर्वक व्यवस्थित चर्चा नहीं की है इस साजिशी चुप्पी का जवाब इस समिति से आने वाला इतिहास और देश का मर्म मांगेगा यह भी निश्चित है; और तब यह समिति, इसके नियोक्ता और इस रिपोर्ट को महत्त्व देते हुए लोग इस देश के सामने नजरे झुकाकर खड़े होने को मजबूर होंगे यह भी तय है. वार्ताकारों ने धारा ३७० के आधार पर और उसकी गलत व्याख्या कर केन्द्रीय कानूनों को भी काश्मीर में क्रियान्वित न होने के कारण जो विसंगतिया उत्पन्न होती है उसकी चर्चा भी नहीं की है. अमरनाथ यात्रा के सन्दर्भ में शेष राष्ट्र के लाखो भक्तों को किस प्रकार सुरक्षित, पवित्र और सुविधासंपन्न यात्रा उपलब्ध हो पाए वह लेख भी इसमें नहीं होना इस रिपोर्ट को “हिंदू विरोध करो और प्रगतिशील कहलाओ” के आसान फार्मूले को साधने का प्रयास मात्र लगती है.

इन वार्ता कारों ने जिस प्रकार की चर्चाएं और सिफारिशे इस रिपोर्ट में की है और जिस प्रकार की नहीं की है उससे यह रिपोर्ट रहस्य, शोध और चिंता विषय सहज ही बन जाती है. इस रिपोर्ट से अलगाव वादियों का प्रसन्न होना और राष्ट्रवादियों का दुखी होना ही इस रिपोर्ट के प्रस्तुत निष्कर्षों और अनुशंषाओं को विवादित बना देता है और इसे केवल एक दुरभिसंधि प्रमाणित करता है. कालांतर में संभवतः यह रिपोर्ट कश्मीर के विषय में अलगाव का एक ब्लूप्रिंट ही सिद्ध होगी !!

श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में जो आंदोलन प्रजा परिषद के नाम से १९५३ में शुरू हुआ था उसकी भावना आज भी संघर्षरत ही है किन्तु इस प्रकार कि रपटे और इनसे उपजा वातावरण ऐसे सभी सद्भावी उपायों, विचारों, आंदोलनों को पतन की गर्त में धकेल देगा यह निश्चित है.

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