आरक्षण की वैशाखी पर टिकी राजनीति

-प्रमोद भार्गव-
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-संदर्भः महाराष्ट्र में मराठों और मुस्लिमों को आरक्षण-

भारत में आरक्षण राजनीतिक दलों के सियासी खेल का दांव बनकर लगातार उभर रहा है। इसमें नई कड़ी महाराष्ट्र में मराठों को 16 फीसदी और मुस्लिमों को 5 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने के फैसले से जुड़ी है। राज्य की कांग्रेस और राकांपा गठबंधन सरकार ने शिक्षा और सरकारी व अर्ध-सरकारी नौकरियों में यह अरक्षण सुनिश्चित किया है। महाराष्ट्र में अब आरक्षण 52 फीसदी से बढ़कर 73 फीसदी हो गया है। यह व्यवस्था संविधान की उस बुनियादी अवधारणा के विरूद्ध है, जिसके मुताबिक 50 फीसदी से ज्यादा नहीं होनी चाहिए ? इसी आधार पर पत्रकार केतन तिरोड़कर ने मराठा आरक्षण को मुंबई उच्च न्यायालय में चुनौती भी दे दी है। हालांकि राज्य सरकार का दावा है कि यह आरक्षण पूर्व के आरक्षण को किसी भी प्रकार से प्रभावित किए बगैर एक अलग विशेष प्रवर्ग तैयार करके लागू किया गया है। किंतु इस प्रकृति के ज्यादातर मामलों में ये टोटके संविधान की कसौटी पर खरे नहीं उतरते ? क्योंकि संविधान में धर्म और उपराष्ट्रीयताओं के आधार पर आरक्षण देने का कोई प्रावधान नहीं है।

राज्य संविधान अनुच्छेद 15 (4) के मुताबिक शैक्षणिक और अनुच्छेद 16 (4) के मुताबिक नौकरियों में महाराष्ट्र सरकार ने आरक्षण का यह प्रावधान किया हैै। दरअसल, किसी भी समाज की व्यापक उपराष्ट्रीयता भाषा और कई जातीय समूहों की पहचान से जुड़ी होती है। भारत हीं नहीं समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में उपराष्ट्रीयताएं अनंतकाल से वर्चस्व में हैं। इसकी मुख्य वजह यह है कि भारत एक साथ सांस्कृतिक भाषाई और भौगोलिक विविधताओं वाला देष है। इसीलिए हमारे देश के साथ ‘अनेकता में एकता‘ का संज्ञासूंचक शब्द जुड़ा हुआ है। एक क्षेत्र विशेष में रहने के कारण एक विषेश तरह की संस्कृति विकसित हो जाती है। जब इस एक प्रकार की जीवनशैली के लोग इलाका विशेष में बहुसंख्यक हो जाते हैं तो यह एक उपराष्ट्रीयता का हिस्सा बन जाती है। मराठे, बंगाली, पंजाबी, मारवाड़ी बोड़ो, नगा और कश्मीरी ऐसी ही उपराष्ट्रीयताओं के समूह हैं। एक समय ऐसा भी आता है, जब हम अपनी-अपनी उपराष्ट्रीयता पर गर्व दूराग्रह की हद तक करने लग जाते हैं। जम्मू-कश्मीर और पंजाब के अलगाववादी आंदोलन शुरूआत में उपराष्ट्रीयता को ही केंद्र में रखकर चले, किंतु बाद में सांप्रदायिकता के दुराग्रह में बदल गए। इन्हीं उपराष्ट्रीयताओं के हल हमारे पूर्वजों ने भाषा के आधार पर राज्यों का निर्माण करके किए थे। लेकिन महाराष्ट्र में मराठों को आधार बनाकर आरक्षण का जो नया प्रावधान किया गया है, वह इन सभी सुप्त पड़ी उपराष्ट्रीयताओं को जगाने का काम कर सकता है ? लिहाजा इस आरक्षण पर राजनीति से परे गंभीरता से पुनर्विचार की जरूरत है? महाराष्ट्र में नवनिर्माण सेना वैसे भी मराठी उपराष्ट्रीयता के परिप्रेक्ष्य में बिहार और उत्तर प्रदेश के हिंदीभाषियों को मुंबई से खदेड़ने का काम करता रही है।

महाराष्ट्र में मराठा, उत्तर भारत के क्षत्रियों की तरह उच्च सवर्ण और सक्षम भाषाई समूह है। आजादी से पहले षासक और फिर सेना में इस कौम का मजबूत दखल रहा है। आजादी की लड़ाई में मराठा, पेशवा, होल्कर और गायकवाड़ों की अह्रम भूमिका रही है। स्वतंत्र भारत में यह जुझारू कौम आर्थिक व समाजिक क्षेत्र में इतनी क्यों पिछड़ गई कि इसे आरक्षण के बहाने सरंक्षण की जरूरत पड़ रही है, यह चिंता व सोच का विषय है ? इस आरक्षण को रद्द करने की दृष्टि से हाईकोर्ट में जो जनहित याचिका दायर की गई है, उसमें तर्क दिया गया है कि मराठा न तो कोई जाति है, न ही आर्थिक दृष्टि से पिछड़ा समाज, जिसे आरक्षण की आवश्यकता हो। मराठा समाज महज एक भाषाई समूह है, जो काफी ताकतवर भी है। लिहाजा इसे आरक्षण नहीं मिलना चाहिए।

मुस्लिमों की आर्थिक बदहाली का खांका राजेंद्र सच्चर समीति और रंगनाथ मिश्र आयोग खींच चुके हैं। मिश्र आयोग ने ही धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के बीच विभाजन रेखा खींचकर इनकी बदहाली की पड़ताल की थी। इस तबके में आर्थिक रूप से कमजोर व सामाजिक स्तर पर पिछड़े अल्पसंख्यकों की पहचान कर आरक्षण सहित अन्य कल्याणकारी उपाय इन्हें सुझाए थे। इसी आधार पर धर्म की बजाए मुस्लिमों के पिछड़े वर्ग का मानकर राज्य सरकारें आरक्षण देने का उपाय कर रही हैं। क्योंकि संविधान में धर्म के आधार पर आरक्षण देने का प्रावधान नहीं है। इसी तरह से संविधान में उपराष्ट्रीयताओं का भी हवाला नहीं है। इसी वजह से मराठों को भी पिछड़ा व आर्थिक रूप से कमजोर मानकर आरक्षण का प्रावधान किया गया है। लेकिन आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसदी रखने की हिदायत सुप्रीम कोर्ट पहले ही दे चुकी है। आंध्र प्रदेश में मुसलमानों को आरक्षण देने के फैसले को न्यायपालिका ने रद्द कर दिया था। उत्तर प्रदेश में भी ऐसे प्रावधानों का यही हश्र हुआ है। बावजूद विधानसभा चुनाव के चार महीने पहले महाराष्ट्र सरकार ऐसे तरीके अपना रही है जो लोगों को गुमराह करने से आगे नहीं जाते।

लेकिन सवाल उठता है कि आरक्षण की इस रूढ़ बन चुकी परिपाटी को हम कब तक राजनीति की वैशाखी बनाए रखना चाहते हैं ? 2014 का आम चुनाव एक ऐसा राजनीतिक सबक दे गया है, जिसमें धर्म और जाति आधारित दुराग्रहों को झटका लगा है। जाति की राजनीति करने वाले लालू, मुलायम, नीतिश, अजीत सिंह और मायावती को जनता ने नकार दिया है। जाहिर है, यह दौर बदलाव का है और आरक्षण सुविधा में ऐसे बदलावों की जरूरत है, जिससे वास्तविक जरूरतमंदों और मातृभाषा से अध्ययन करने वाले प्रतिभागियों को लाभ मिले ? 129 साल पुरानी कांग्रेस को सोचना चाहिए कि उसने आमचुनाव से ठीक पहले जाट समुदाय को जाति आधारित आरक्षण दिया था। लेकिन वह जाट बहुल सभी लोकसभा सीटें हारी। जाहिर है, मतदाता अब लोक लुभावन टोटकों की बजाय ठोस उपाय चाहता है।

एक समय आरक्षण का सामाजिक न्याय से वास्ता जरूर था, लेकिन सभी जाति व वर्गों के लोगों द्वारा षिक्षा हासिल कर लेने के बाद जिस तरह से देष में षिक्षित बेरोजगारों की फौज खड़ी हो गई है, उसका कारगर उपाय आरक्षण जैसे चुक चुके औजार से अब संभव नहीं है ? लिहाजा सत्तारूढ़ दल अब सामाजिक न्याय से जुड़े सवालों के समाधान आरक्षण के हथियार से खोजने की बजाय रोजगार के नए अवसरों का सृजन कर निकालेंगे तो बेहतर होगा ? यदि वोट की राजनीति से परे अब तक दिए गए आरक्षण के लाभ का ईमानदारी से मूल्यांकन किया जाए तो साबित हो जाएगा कि यह लाभ जिन जातियों को मिला है, उनका समग्र तो क्या आंषिक कायाकल्प भी नहीं हो पाया ? भूमण्डलीकरण के दौर में खाद्य सामग्री की उपलब्धता से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास संबंधी जितने भी ठोस मानवीय सरोकार हैं, उन्हें हासिल करना इसलिए और कठिन हो गया है, क्योंकि अब इन्हें केवल पूंजी और अंग्रेजी षिक्षा से ही हासिल किया जा सकता है ? ऐसे में आरक्षण लाभ के जो वास्तविक हकदार हैं, वे अर्थाभाव में जरूरी योग्यता और अंग्रेजी ज्ञान हासिल न कर पाने के कारण हाशिये पर ही उपेक्षित पड़े हैं। अलबत्ता आरक्षण का सारा लाभ वे लोग बटोरे ले जा रहे हैं, जो पहले ही आरक्षण का लाभ उठाकर आर्थिक व षैक्षिक हैसियत हासिल कर चुके हैं। लिहाजा आदिवासी, दलित व पिछड़ी जातियों में जो भी जरूरतमंद है, यदि उन्हें लाभ देना है तो क्रीमीलेयर को रेखांकित करके इन्हें आरक्षण लाभ से वंचित करना जरूरी है ? अन्यथा यह लाभ चंद परिवारों में सिमटकर रह जाएगा। मसलन सामाजिक न्याय की अवधारणा एकांगी होती चली जाएगी ? फिलहाल इसकी शुरूआत आरक्षण कोटे से अधिकारी, सांसद और विधायकों की संततियों को लाभ से वंचित करके की जा सकती है ?

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