आरक्षण की स्थिति और सामाजिक समीक्षा

क्षेत्रपाल शर्मा

आज समाज का हर वर्ग नौकरियों में आरक्षण की मांग करता है.इसे एक आसान रास्ते के रूप में वे चाहते हैं. आज आज़ादी मिले 65 वर्ष हो चुके हैं . कभी गूजर तो कभी और वर्ग इस तरह की मांग उठा देते हैं हाल ही का मध्य प्रदेश का किस्सा मालूम ही है. दक्षिण के राज्यों में स्थिति से निबटने लिए वहां के पढे लिखे युवकों ने खाड़ी देशों की राह पकड़ी. आन्दोलनों को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय को भी हस्तक्षेप करना पड़ा . बाद के सालों में तो इसे वोट बटोरने के लिए एक तरीके के रूप में प्रयोग किया गया . देवी लाल जी का विचार वीपी सिंह ने प्रयोग किया.

संविधान में इस बाबत कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं हैं हां इतना जरूर है कि दीक्षा भूमि के समझौते के बाद यह तय हुआ कि इस वर्ग के उत्थान के लिए एक प्रशासनिक आदेश दस वर्ष के लिए निकला जो अब हर दस वर्ष बाद नवीनीकरण होता है. यह क्यों माना गया यह भी एक मजबूरी या कहिए एक सूझबूझ वाली बात थी.

उत्थान इस वर्ग का कितना हुआ यह तो ठीक आंकलन नहीं कर सकते लेकिन इसे जारी रखने से परिणाम अच्छे नहीं निकले न कार्य में दक्षता आई और न इस वर्ग का आत्मविश्वास बढा. बल्कि एक उलट चीज यह और हो गई कि हर चीज में चाहे वह एड्मीसन हो ,प्रमोसन हो आदि में इसका विस्तार मांगा गया. हद तब हो गई कि निजी नौकरियों में भी जब इसकी मांग निहित स्वार्थी लोगों ने उठाई .साठोत्तरी लोगों को पता होगा कि उनके पूर्वज कितने असहाय ,हीन और दीन थे. जो परिश्रम करता था वह गुजर कर लेता था नहीं तो सब समुदाय जमींदार की एक ही लाठी के नीचे था . अब जब आज़ादी का सूरज उग आया, तो इसकी रोशनी सब को बराबर मिलनी चाहिए.

अंग्रेजी कवि टेनीसन का कथन है कि हर पुरानी चीज की जगह नई चीज लेती है एसा इसलिए कि कहीं वह अच्छी चीज बहुत दिन रहकर जड़ ( खराब ) न हो जाए. और व्यवस्था को चौपट न कर दे.कमोबेश अब इस व्यवस्था की साथ यही स्थिति है. अब इसका दोहन हो रहा है. और वोटों की खातिर युष्टीकरण की नीति अपनाई जा रही है जो अंतत: समाज में असमानता को जन्म दे रही है उससे विक्षोभ पैदा हो रहा है.इसी विक्षोभ को एक व्यंग्य में इस तरह कहा था कि आगे आने वाले समय में दो प्रकार के डाक्टर मिलेंगे एक वो जो डोनेसन देकर आए हैं दूसरे वो जो आरक्षण के कोटे से आए हैं , मरीज को सुविधा पूरी होगी कि वह किसके हाथों मरना चाहेगा.

यह कहां की सामाजिक समरसता है कि एक जुगाड़ से रोजी-रोटी पाए और दूसरा पसीना बहाकर भी रोटी ही जुगाड़ पाए.विकास हुआ तो वह लोगों के चेहरों पर झलकना चाहिए ,जो कि अभी नहीं देख रहे हैं.

जब मैं इस लेख को लिख रहा था तब ही मेरे मित्र इस बात से क्षुब्ध थे कि हर किस्म के आरक्षण का विरोध होना चाहिए, चाहे वह पंडों का हो या फ़िर राजनीति में वंशवाद हो ,एक तरह से एक भीड़ की मानसिकता को लेकर एसा लम्बे समय तक नहीं होना चाहिए.

एक बार जय प्रकाश जी ने एक जन सभा में कहा था कि अब बहुत बरदाश्त किया आगे और बरदाश्त नहीं करेंगे, ….. अब न नसेहों.

आर्य और अनार्य कहकर जो इतिहास आरक्षित किया गया है ,उसमें भी पारदर्षिता आनी चाहिए कि वे कौन लोग हैं जो एसा कहते हैं और उनके मंसूबे क्या हैं.

आखिर शिव जी के दिए वरदान की तरह ,दूसरों के लिए कष्टकारी, इन आश्वासनों का काट समय अपने आप संभालेगा.कहते हैं जब मानवीय एजेन्सी फ़ेल हो जाती हैं तभी प्रकृति अपना काम करती है.

1 COMMENT

  1. आबादी के पिछ्ड़ॆपन के आधार पर आरक्षण की मांग की गई थी और उसी आधारपर आज भी इसे उचित माना जाता है.देश के शाषकॊं की यह कमजोरी है कि वॆ इसे आज तक पूरा नहीं कर पायॆ.देखा यह जाता है कि कमजोर व्यक्ति भी सुविधाएं पाकऱ आगॆ बढ़ जाता है…नेता और पूंजीपति कोई ज़्यादा काबिल नहीं हॊतॆ पर वॆ दॆश पर राज कर रहे हैं…कामचोरी के लिये किसी जाति का बहाना नहीं चलेगा…अभी भी सरकारी अस्पतालों में अधिकांश डाक्टऱ ऊंची जातियों के ही हैं पर वहां कोई इलाज़ नहीं कराना चाहता…खॆती बाड़ी पऱ अभी भी अधिकांश ऊंची जातियों का कब्ज़ा है…यह सदियों से चला आ रहा रिज़र्वॆशन है…सामाजिक तौर पर तो कभी भी इस व्यवस्था मे‍ समता संभव नहीं दिखती…बुरा है पर यह सच है…

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